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9 जून की सुबह की शुरुआत कुछ इस तरह की न्यूज हेडलाइन्स से हुई, जिसमें जोरदार तरीके से कहा गया कि "नाबालिग पहलवान के पिता ने यह स्वीकार किया है कि यौन उत्पीड़न को लेकर जो शिकायत दर्ज कराई गई है वह झूठी है."
पीटीआई की रिपोर्ट में लिखा गया है, जो संभवतः बृज भूषण सिंह के समर्थकों को खुश करता है,
ऐसी बात इस तथ्य के बावजूद भी लिखी गई कि POCSO मामले में किसी भी कथित द्वारा "पीछे हटने" का मतलब यह नहीं होता है उस मामले को खुद ब खुद खारिज कर दिया जाए. किसी भी मामले में आगे चलकर जब भी कोई आरोप या बयान से पलट गया या उससे पीछे हट गया, तब कोर्ट ने बहुत बार अन्य सबूतों को ध्यान में रखा है.
बृजभूषण शरण सिंह सत्ताधारी पार्टी (बीजेपी) के सांसद हैं.
महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियों को उनके वर्चस्व और प्रभाव के कारण अक्सर जमानत देने से इनकार कर दिया जाता है. जैसा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली के पूर्व डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को जमानत देने से इंकार करते हुए कहा था "... जमानत के लिए आवेदन करने वाला आवेदक एक शक्तिशाली व्यक्ति है, इस नाते इस बात की संभावना है कि उसके गवाहों को प्रभावित किया जा सकता है."
बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ यह एकमात्र FIR नहीं है. अन्य (वयस्क) पहलवानों ने WFI के पूर्व प्रमुख पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है और वे अभी तक अपनी शिकायतों से पीछे नहीं हटे हैं.
नाबालिग द्वारा बाद में पुलिस के सामने जो पलटने वाला बयान आया उसके बारे में कई परस्पर विरोधी बातें पिछले लगभग पूरे सप्ताह हावी रहीं.
सबसे खास बात यह है कि 5 जून की एक तत्कालीन रिपोर्ट में, नाबालिग के पिता को द प्रिंट ने यह कहते हुए उद्धृत किया था कि...
8 जून को अन्य मीडिया हाउस के साथ-साथ पीटीआई ने यह जानकारी दी थी कि नाबालिग के पिता ने दावा किया था कि उन्होंने सिंह के खिलाफ "झूठी शिकायत" दर्ज कराई थी. यह बताया गया कि नाबालिग के पिता का कहना है कि उनकी वास्तविक शिकायत, एशियाई U17 चैंपियनशिप के ट्रायल के दौरान उनकी बेटी के साथ हुए भेदभाव या अन्याय से संबंधित थी.
लेकिन जब द प्रिंट द्वारा उनसे पूछा गया कि उन्होंने अब अपने बयान से पीछे हटने का फैसला क्यों किया है, तो उन्होंने कहा कि
हालांकि, उन्होंने मीडिया आउटलेट के इस खास प्रश्न का जवाब नहीं दिया कि क्या उन्हें भूषण द्वारा धमकी दी गई थी? या कथित तौर पर झूठी शिकायत दर्ज करने के लिए अन्य प्रदर्शनकारियों द्वारा दबाव डाला गया था. उन्होंने केवल इतना कहा कि...
सीधे शब्दों में कहें तो बयान से मुकरने के इस कदम को किसी भी परिस्थिति में अभियुक्त की बेगुनाही के सबूत के रूप में नहीं देखा जा सकता है. जैसा कि सीनियर एडवोकेट सतीश टम्टा ने इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में बताया. उन्होंने कहा कि...
जैसा कि नाबालिग के पिता ने पीटीआई से कहा था कि "अब जब बातचीत शुरू हो गई है और सरकार ने पिछले साल मेरी बेटी की हार (एशियाई अंडर-17 चैंपियनशिप ट्रायल में) की निष्पक्ष जांच का वादा किया है तो ऐसे में मेरा भी यह कर्तव्य बनता है कि मैं अपनी गलती सुधारूं."
लेकिन अतीत में हमारे संवैधानिक न्यायालय कई मामलों में शिकायतकर्ता के रुख में इस तरह के बदलावों (पहले मामला दर्ज कराकर बाद में उससे पलट जाना ) से सावधान और सजग रहे हैं.
ओम प्रकाश Vs यूपी स्टेट और अन्य मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से यह कहा गया था कि "... (इस तरह के मामलों में) पीड़ितों को समझौता करने की स्वतंत्रता नहीं है क्योंकि यह एक समझौता करने योग्य अपराध या एक सिविल मामला नहीं था."
2021 (केरल राज्य Vs हफसल रहमान और अन्य) में, सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह केरल उच्च न्यायालय के उस आदेश पर रोक लगा दी ती, जिसमें समझौते के आधार पर पॉक्सो एफआईआर को रद्द कर दिया गया था. इस प्रकार, शीर्ष अदालत ने पुलिस को मामले की जांच जारी रखने की अनुमति दी थी.
इस बिंदु पर यह बताना महत्वपूर्ण होगा कि मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि बृजभूषण सिंह के खिलाफ उनके वयस्क जीवन के दौरान 30 से अधिक मामलें दर्ज किए गए हैं, जिनमें से एक में हत्या का मामला भी शामिल है. लेकिन उन्हें किसी भी मामले में दोषी नहीं ठहराया गया है.
यहां तक कि जब तक मामला शीर्ष अदालत तक नहीं पहुंच गया और उसके बाद भी कुछ समय तक के लिए दिल्ली पुलिस भी पहलवानों के बार-बार आग्रह के बावजूद इन दोनों एफआईआर को दर्ज करने से स्पष्ट रूप से हिचकिचा रही थी.
इस तथ्य के बावजूद भी कि अक्सर प्रभावशाली या ताकतवर लोगों को गिरफ्तार किया जाता रहा है और उनकी जमानत याचिका को इस आशंका के आधार पर नामंजूर कर दिया जाता है कि वे अपनी ताकत या प्रभाव का इस्तेमाल कर सकते हैं और गवाहों को अपने बयान बदलने के लिए मजबूर कर सकते हैं.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस गोविंद माथुर ने द क्विंट के साथ बातचीत में बताया कि "संज्ञेय अपराध के मामले में, उचित जांच करने, आगे और अपराध न होने देने, सबूतों से छेड़छाड़ करने और गवाह को प्रलोभन देने से रोकने के लिए पुलिस किसी भी आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है."
जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा, "महिला पहलवानों के मामले में निश्चित और गंभीर आरोपों के साथ शिकायत दर्ज की गई थी, लेकिन अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है और अब एक शिकायतकर्ता ने अपना बयान बदल दिया है."
पूर्व चीफ जस्टिस के अनुसार, डब्ल्यूएफआई (WFI ) के पूर्व प्रमुख की गिरफ्तारी जरूरी और जांच के हित में थी.
जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालत की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है.
जस्टिस माथुर ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा कि शिकायतकर्ता के बयान में कथित बदलाव सबूतों से छेड़छाड़ और गवाह को लुभाने का संकेत दे सकते हैं. इसलिए, "जांच एजेंसी को अब आरोपी को गिरफ्तार करना चाहिए."
"कानून केवल ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए संज्ञेय अपराधों में बिना वारंट के भी गिरफ्तारी का प्रावधान करता है. यदि आरोपी को हिरासत में नहीं लिया जाता है, तो जांच विफल हो सकती है और इस बात की संभावना है कि एक आरोपी छूट सकता है."
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि साक्ष्य या सबूतों के साथ छेड़छाड़ जमानत रद्द करने के लिए पर्याप्त आधार है. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि इस तरह की छेड़छाड़ की "उचित आशंका" भी जमानत रद्द होने के लिए पर्याप्त आधार है.
इसलिए, अगर ऐसी आशंकाएं (जब उचित पाई जाती हैं) जब जमानत रद्द करने के लिए पर्याप्त आधार हो सकती हैं तो क्या वे एक अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए पर्याप्त नहीं सकतीं?
अर्नेश कुमार गाइडलाइन्स (जो स्पष्ट रूप से कहती है कि आम तौर पर उन मामलों में गिरफ्तारी से बचा जाना चाहिए जहां अधिकतम सजा सात साल से कम है) भी एक अपवाद के रूप में अभियुक्तों को सबूतों के साथ छेड़छाड़ से रोकने के लिए की गई गिरफ्तारियों को सूचीबद्ध करती है.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन लोकुर ने द क्विंट से बातचीत में कहा कि...
वे आगे कहते हैं कि "पहलवानों को तथाकथित अपराध स्थल (क्राइम सीन) पर ले जाने के साथ ही अब फिर से उत्पीड़न की प्रक्रिया शुरू हो गई है."
पीटीआई की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, कुछ दिन पहले (शुक्रवार 9 जून) एक महिला पहलवान को कथित क्राइम सीन रीक्रिएट करने के लिए डब्ल्यूएफआई प्रमुख के आवास पर ले जाया गया था.
(पीटीआई, इंडिया टुडे, द वायर और द प्रिंट के इनपुट्स के साथ)
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