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हर बजट जनता से कुछ लेने और कुछ देने का दस्तावेज होता है. छोटे कारोबारी हों या कंज्यूमर या फिर कॉरपोरेट, वित्त मंत्री उन्हें एक साथ से कुछ देते हैं तो दूसरे हाथ से कुछ लेने की भी कोशिश करते हैं ताकि सरकारी खजाने का संतुलन बना रहे. इस बार के बजट में एक हाथ से देने और दूसरे से लेने के तीन बड़े उदाहरणों पर गौर करें-
वित्त मंत्री ने पर्सनल इनकम टैक्स की दरों में कोई इजाफा नहीं किया. उन्होंने स्टैंडर्ड डिडक्शन को दोबारा लाकर सैलरी पाने वालों को कुछ राहत दी. सीनियर सिटिजन्स और महिलाओं को रियायत वाले कुछ कदम उठाए लेकिन मेडिकल बिल और ट्रैवल अलाउंस को सैलरी पाने वाले लोगों की इनकम के दायरे में ला दिया. पहले इस पर टैक्स छूट मिलती थी.
वित्त मंत्री ने इस तरह से 8000 करोड़ रुपये की टैक्स छूट देंगे लेकिन सेस और लांग टर्म गेन्स टैक्स के जरिये 11000 करोड़ रुपये जुटा लेंगे.
तेल के बढ़ते दाम सरकार को परेशान कर रहे हैं. तेल के दाम बढ़ने पर महंगाई बढ़ने का भी खतरा रहता है. एक साल बाद आम चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए तेल की बिक्री से हासिल रेवेन्यू और जनता को दी जाने वाली राहत के बीच संतुलन बनाना जरूरी था. लिहाजा पेट्रोल और डीजल में लगने वाले बेसिक एक्साइज ड्यूटी खत्म कर दी गई.. दो-दो रुपये प्रति लीटर की कटौती की वजह से पेट्रोल में बेसिक ड्यूटी प्रति लीटर 4.48 रुपये रह गई और डीजल में 6.33 रुपये. लिहाजा..
आठ रुपये की कटौती के बाद रोड लेवी और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस के जरिये आठ रुपये ले लेने से जनता को कुछ नहीं मिला.
हर बजट की तरह इस बार के बजट से पहले कॉरपोरेट हाउस खास कर बड़ी कंपनियों ने उम्मीद की थी एफएम उन पर लगने वाले 30 फीसदी टैक्स को खत्म करेंगे.क्योंकि उन्होंने वादा किया था कि कॉरपोरेट टैक्स की दरें धीरे-धीरे करके कम कर दी जाएंगी. जेटली ने छूट का ऐलान किया लेकिन बड़ी कंपनियों के लिए नहीं.
दरअसल सरकार राजकोषीय घाटे को सीमित करने के अपने लक्ष्य को बरकरार रखन में नाकाम रही है. इस साल वह खर्च भी करेगी इसलिए ऐसा होना लाजिमी था. ऐसे में अर्थव्यवस्था में झोंके गए पैसों को वापस लाने की भी चिंता सरकार के पास रहती है. यही वजह है कि उसने देने के साथ वसूलने का ध्यान रखा है.
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