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किसानों और सरकार के बीच एक और दौर की बातचीत खत्म हो चुकी है, लेकिन आंदोलन खत्म नहीं हुआ है. छठे दौर की बातचीत से पहले ये दावा किया जा रहा था कि ये कृषि कानूनों का ये मुद्दा पूरी तरह से हल हो सकता है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हालांकि बैठक में रखे गए 4 मुद्दों में से दो पर सरकार और किसानों के बीच सहमति बन गई है. दोनों तरफ से कहा गया है कि पिछले एक महीने से जमी बर्फ थोड़ा पिघली है, लेकिन पूरी तरह से पिघलने के लिए 4 जनवरी की बातचीत का इंतजार करना होगा.
अब किसानों और सरकार के बीच अच्छे माहौल में हुई इस बातचीत के बाद उम्मीद की किरण जरूर दिखी है, लेकिन अगर गौर किया जाए तो असली मुद्दों पर पेच अब भी फंसा हुआ है. पहले आपको बताते हैं कि इस बातचीत के दौरान किन मुद्दों पर चर्चा हुई थी.
इन चार मुद्दों में से इस बातचीत में दो मुद्दों को सुलझा लिया गया है. यानी दोनों मुद्दों पर सरकार ने किसानों की बात मान ली है. वो मुद्दे क्या हैं पहले वो जान लीजिए.
राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में हर साल पराली जलाए जाने के कारण होने वाले पॉल्यूशन को लेकर आयोग अध्यादेश 2020 लाया गया. जिसके तहत 1 करोड़ रुपये तक के जुर्माने और करीब 5 साल तक की सजा जैसे कठोर प्रावधान थे. किसानों की मांग थी कि इस कठोर कानून से उन्हें मुक्ति दी जानी चाहिए. जिसे सरकार ने मान लिया है. यानी ये मुद्दा हल हो चुका है.
अब जो दूसरा मुद्दा हल हुआ है वो है- विद्युत संशोधन विधेयक 2020, जिसके आने से पहले ही किसान इसका विरोध करने लगे थे. इसमें बिजली की कीमतों, क्रॉस सब्सिडी और कमर्शियल मीटर को लेकर किसानों के मन में डर था. उनकी मांग थी कि पहले जो व्यवस्था थी, वही जारी रखी जाए. इस पर भी सरकार और किसानों के बीच सहमति बन गई और मुद्दे का हल निकल गया.
तो अब तक आपको यही लग रहा होगा कि अब किसान आंदोलन अगले कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएगा और कृषि कानूनों को लेकर उठा तूफान शांत होगा. लेकिन जो दो मुद्दे हल हुए हैं, उनका कृषि कानूनों के साथ ज्यादा कोई संबंध है नहीं. जिन मुद्दों पर आंदोलन खड़ा हुआ है, वो जस के तस पड़े हैं. पहले दो मुद्दों पर हल निकलना उतना ही मुश्किल है, जितना बर्फ के एक बड़े ग्लेशियर को पिघालना है. हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, आइए समझते हैं.
बैठक से पहले या यूं कहें कि आंदोलन से पहले ही किसानों की पहली शर्त ये रही है कि तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाए. इस छठे दौर की बैठक में भी सरकार को दो टूक ये बताया गया था कि कृषि कानून रद्द करने पर बात होगी. अब किसान नेताओं का कहना है कि भले ही दो बातों पर सहमति बनी हो, लेकिन अगले दौर की बातचीत में सरकार से ये बात होगी कि कैसे कानूनों को खत्म करने के लिए संसद सत्र बुलाया जाए.
लेकिन सरकार पहले दिन से ही इस तरफ सोच भी नहीं रही है. आंदोलन के बाद जिस तरह का अभियान बीजेपी ने सोशल मीडिया और समर्थक किसानों के साथ मुलाकात के बाद छेड़ा है, उससे भी साफ होता है कि कानूनों को रद्द करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है. इसे लेकर इस बैठक के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री ने जो कहा, उससे भी सीधे मैसेज दिया गया कि कानून के उन पहलुओं पर बात होगी जिन पर आपत्ति है. कृषि मंत्री ने कहा,
तो आपने देखा कि असली मुद्दे पर बर्फ पिघली नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे और जमती जा रही है. सरकार संशोधनों से आगे नहीं बढ़ना चाहती और किसान कानूनों को रद्द करने की मांग से पीछे नहीं हटना चाहते. तो इस बर्फ को पिघलाने के लिए सरकार किस ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करती है, ये देखना दिलचस्प होगा.
अब दूसरा मुद्दा जिसे लेकर बात नहीं बन पाई है, वो है न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का मुद्दा. किसानों ने अपनी दूसरी मांग में ये कहा था कि सरकार को एमएसपी पर कानून लाना चाहिए. इसे लेकर ही बैठक में बातचीत होगी. यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर बातचीत के लिए कहा गया. अब इस दूसरे अहम मुद्दे पर भी बर्फ पिघली नहीं है. सरकार ने पहले इसे लेकर कहा था कि पिछले सरकारों में भी बिना कानूनी गारंटी के एमएसपी मिल रही थी, हमारी सरकार में भी मिलती रहेगी. जब किसान अड़े रहे तो सरकार ने प्रस्ताव में कहा कि एमएसपी को लेकर वो लिखित आश्वासन देने के लिए तैयार हैं. लेकिन किसानों की मांग है कि इसके लिए कानून बनाया जाए. इससे कम पर वो नहीं मानेंगे. बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा हुई, लेकिन हल नहीं निकला. खुद कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने बैठक के बाद बताया,
यानी कानूनी दर्जा दिए जाने को लेकर कृषि मंत्री ने जो संकेत दिए हैं, उसे लेकर यही लगता है कि इस मुद्दे पर कहीं न कहीं अगली बातचीत में सहमति बन सकती है. यानी एमएसपी पर किसानों की मांग को माना जा सकता है. अगर ऐसा हुआ तो चार मुद्दों में से 3 मुद्दों का हल निकल जाएगा. जिसके बाद किसानों पर आंदोलन खत्म करने का पूरा दबाव होगा. क्योंकि सरकार इसके बाद यही कहेगी कि जब हमने तमाम मांगों को मान लिया है तो किसानों को भी कुछ न कुछ समझौता करना होगा और बात माननी होगी. यानी कानूनों को खत्म करने वाला मामला ठंडे बस्ते में डालने की पूरी कोशिश होगी. लेकिन किसानों का मूड फिलहाल ऐसा नहीं दिख रहा है. उनका कहना है कि वो कृषि कानूनों को रद्द करवाकर ही अपने घरों को लौटेंगे.
तो कुल मिलाकर बैठक के बाद ये कहा जा सकता है कि बर्फ तो जरूर पिघली है, लेकिन सिर्फ किनारों पर जमी हल्की बर्फ को पिघलाया गया है, अभी बीच की सख्त बर्फ का पिघलना बाकी है. यानी कृषि कानूनों पर फैसला अभी बाकी है. एमएसपी पर बात बनने के बाद आंदोलन जरूर थोड़ा हल्का हो सकता है, लेकिन पूरी तरह खत्म होगा, ये फिलहाल कहना मुश्किल होगा.
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