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छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के सुकमा जिले में 2017 के दौरान हुए हमले में दोषी बनाए गए 121 आदिवासियों को 17 जुलाई को NIA की एक स्पेशल कोर्ट ने बरी कर दिया. निर्दोष होते हुए भी इन 121 लोगों में से ज्यादातर ने अपने पिछले 5 साल जेल में बिताए हैं. भारत में वक्त-वक्त पर इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं, जिसमें कई सालों तक लोगों को अपराधी बताकर जेल में रखने के बाद उन्हें कोर्ट बरी कर देता है.
उत्तराखंड पुलिस द्वारा देशद्रोह और आतंकवाद के आरोप में कार्यकर्ता और पत्रकार प्रशांत राही को साल 2007 में 22 दिसंबर को गिरफ्तार किया गया था. चौदह साल के बाद 7 जनवरी, 2022 को उन्हें उत्तराखंड की एक निचली अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया.
Rediff की रिपोर्ट के मुताबिक उधम सिंह नगर की सेशन कोर्ट ने माना कि राही और उनके तीन साथियों पर अपराध सिद्ध करने में अभियोजन पक्ष नाकाम रहा, जिसके बाद उन्हें बरी कर दिया गया.
झारखंड के पलामू जिले की एक कोर्ट ने चार साल पहले काला जादू करने के आरोप में एक दंपति की हत्या के आरोपी 12 लोगों को सबूतों के अभाव में 24 जून,2022 को बरी किया. इस मामले में 12 आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 2018 में मनातु थाना क्षेत्र के सरगुजा बहेराटांड गांव में जादू टोना करने के लिए इंद्रदेव उरांव और उनकी पत्नी सुकनी देवी की हत्या कर दी थी.
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक बचाव पक्ष के वकील राहुल सत्यार्थी ने कहा कि मामले की सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष के गवाहों के विरोधाभासी बयान के बाद आरोपियों को संदेह का लाभ दिया गया. इस संबंध में गवाहों के बयान, पोस्टमार्टम रिपोर्ट और पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र मेल नहीं खाते और ठोस सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर दिया गया.
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने साल 2013 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत लश्कर-ए-तैयबा के साथ संबंध रखने के आरोप में तीन अन्य लोगों के साथ मोहम्मद राशिद और मोहम्मद शाहिद को गिरफ्तार किया था. 9 मई (2022) को, सभी पांचों आरोपियों को दिल्ली की एक कोर्ट ने बरी कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अभियोजन पक्ष का मामला किसी भी विश्वसनीय सबूत के बजाय अनुमानों पर आधारित था.
The Hindu की रिपोर्ट के मुताबिक बरी होने के कुछ दिनों के बाद राशिद ने कहा कि उन भयानक वर्षों की भरपाई कोई नहीं कर सकता जब मुझे आतंकवादी होने के टैग के साथ जीना पड़ा...जब मेरे परिवार को समाज ने बहिष्कृत कर दिया था.
अगस्त 2016 में बिहार के गोपालगंज में जहरीली शराब त्रासदी हुई थी. इस मामले में गोपालगंज की एक कोर्ट ने फरवरी 2021 के दौरान 13 लोगों को दोषी ठहराया था. इसमें से 9 लोगों को मौत की सजा और चार महिलाओं को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. जिसमें अभियोजन पक्ष के द्वारा अपनी भूमिका न साबित कर पाने के बाद पटना हाईकोर्ट ने जेल में बंद आरोपियों को रिहा करने का फैसला सुनाया.
बेंच ने अपने 89 पन्नों के फैसले में कहा कि मामले में एफआईआर किए बगैर ही जांच शुरू की गई थी. पुलिस को मामले की सूचना देने वाले बंधु राम इसके गवाह नहीं थे और न ही जांच अधिकारी जांच के दौरान उनसे मिले.
बचाव पक्ष के वकील कन्हैया प्रसाद सिंह ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष ने उन 19 लोगों के नाम भी रिकॉर्ड में नहीं लाए, जिनकी मौत जहरीली शराब से हुई थी. उन्होंने कहा कि उनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी रिकॉर्ड में नहीं लाई गई.
Hindustan Times की रिपोर्ट के मुताबिक बेंच ने पाया कि इस मामले में किसी स्वतंत्र गवाह से पूछताछ नहीं की गई. मामले में दो गवाह गांव खजुरबानी के निवासी नहीं थे, जहां घटना हुई थी. इसके अलावा दो तथाकथित स्वतंत्र गवाहों- पलटू कुमार और स्वामीनाथ साह से अभियोजन पक्ष द्वारा पूछताछ नहीं की गई थी. स्वामीनाथ से बचाव पक्ष की ओर से पूछताछ की गई है और उसने बयान दिया कि दो साल पहले जब वह गोपालगंज टाउन थाने में केस दर्ज कराने गया था, तो एसएचओ ने चार-पांच खाली कागजों पर उसके हस्ताक्षर लेकर जाने के लिए कहा था, लेकिन केस रजिस्टर नहीं हुआ.
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट (MP High Court) ने बुधवार,4 मई को श्रुति हिल नाम की एक महिला की हत्या मामले में एक आदिवासी छात्र चंद्रेश मार्सकोले की सजा खारिज कर दी. कोर्ट ने पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि मामले की जांच केवल फंसाने के उद्देशय से की गई थी.
The Week की रिपोर्ट के मुताबिक अपनी प्रेमिका श्रुति हिल की हत्या के आरोपी बनाए गए चंद्रेश मार्सकोले साल 2008 में 20 सितंबर को गिरफ्तार किए गए थे. तब वो मध्य प्रदेश के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में चौथे वर्ष के मेडिकल स्टूडेंट हुआ करते थे. जुलाई 2009 में भोपाल के एक सत्र न्यायाधीश ने उन्हें दोषी करार दिया और उम्रकैद की सजा सुनाई थी, उसके बाद से ही वो जेल में बंद थे.
दिसंबर 2001 के दौरान गुजरात के सूरत में अखिल भारतीय अल्पसंख्यक शिक्षा बोर्ड द्वारा मुस्लिम एजुकेशन पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था, जिसमें पूरे हिंदुस्तान से आए हुए लोगों ने शिरकत की थी.
पुलिस ने यहां पर रुके हुए सभी लोगों को आतंकवाद विरोधी कानून गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) की विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार किया. गिरफ्तार किए गए सभी लोगों पर प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) का सदस्य होने और सीमी की गतिविधियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मीटिंग आयोजित करने का आरोप लगाया गया. इस दौरान कुल 127 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें सभी मुसलमान थे.
7 मार्च 2021 को 19 सालों से ज्यादा वक्त निकल जाने के बाद सूरत की एक कोर्ट ने गिरफ्तार किए गए सभी आरोपियों को बरी कर दिया. नाइंसाफी की इंतेहा देखिए कि सालों की सुनवाई दौरान पांच की मौत हो गई.
TOI की रिपोर्ट के मुताबिक साल 20 फरवरी, 1998 को दिल्ली के जामियानगर में रहने वाले 18 साल के मोहम्मद आमिर खान को दिल्ली पुलिस ने आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया. इसके बाद आमिर को कई सालों तक जेल में रखा गया. उन्होंने 14 सालों तक जेल अपनी जिंदगी बिताई और साल 2012 में कोर्ट ने उन्हें 19 में से 17 आरोपों में बरी कर दिया.
कोर्ट से बरी होने के बाद उन्होंने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि मुझे गिरफ्तार किए जाने के बाद टॉर्चर किया गया और कई ब्लैंक पेपर पर सिग्नेचर करवाए गए थे. इसके बाद मुझे कोर्ट में पेश किया गया और मेरे ऊपर दिल्ली एनसीआर में हुए आतंकी हमलों में शामिल होने का आरोप लगाया गया.
1996 में राजस्थान में हुए समलेटी विस्फोट मामले के 6 आरोपियों रईस बेग, जावेद खान, लतीफ अहमद वाजा, मोहम्मद अली भट, मिर्जा निसार हुसैन और अब्दुल गनी को 23 साल बाद राजस्थान हाईकोर्ट ने 2019 में बरी कर दिया. आरोपी रईस बेग के अलावा सभी लोग जम्मू कश्मीर के रहने वाले वाले थे.
22 मई 1996 को बीकानेर से आगरा जा रही राजस्थान रोडवेज की बस में हुए बम विस्फोट में 14 लोगों की मौत हो गई थी और 37 लोग घायल हो गए थे. इसी घटना का आरोपी बताकर सभी 6 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था.
The Wire की रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में बरी हुए लोगों के वकील शाहिद हुसैन ने बताया था कि खंडपीठ ने दिए गए फैसले में माना कि अभियोजन पक्ष सभी 6 लोगों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने में नाकाम रहा.
सभी नागरिकों को दौसा जिले की बांदीकुई की सेशन कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने और विस्फोटक अधिनियम के तहत आरोपी बनाया था.
साल 2003 में उड़ीसा के बलरामपुर गांव के रहने वाले हाबिल संधू के खिलाफ काला जादू करने और अपने ही 3 पड़ोसियों की हत्या करने के लिए जाशीपुर पुलिस थाने में केस दर्ज किया गया. इसके बाद जाशीपुर पुलिस द्वारा हाबिल को गिरफ्तार कर लिया गया. 2005 में एडिशनल डिस्ट्रिक्ट और सेशंस जज ने हाबिल को दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई.
हालांकि हाबिल ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी और अपने लिए इंसाफ की गुहार लगाई. इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए हाईकोर्ट ने एमिकस क्यूरिए (न्याय मित्र) को जांच के निर्देश दिए. 32 पन्नों की इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट की जांच करने के बाद कोर्ट को संधू को दोषी ठहराने के लिए कोई सबूत ही नहीं मिले.
19 साल बाद हाबिल संधू जब जेल से रिहा हुए तो उन्होंने मीडिया से बात करते हुए अपनी खुशी का इजहार किया, साथ ही उन्हें अपनी जिंदगी के अहम साल जेल में गुजर जाने का दुःख जताया.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक हाबिल ने बताया कि
साल 2016 के दौरान असम की रहने वाली मधुबाला मंडल को विदेशी घुसपैटिया होने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया. इसके बाद असम पुलिस द्वारा उन्हें डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया. लेकिन इसके पीछे की हकीकत कुछ और ही थी. दरअसल असम पुलिस मधुमाला दास नामक महिला को खोजते हुए मधुबाला मंडल के घर पहुंची थी और ये बात मधुबाला द्वारा बार-बार बताए जाने के बाद भी पुलिस ने नहीं सुनी और उन्हें कोकराझार डिटेंशन सेंटर भेज दिया.
59 साल की मधुबाला मंडल अपने परिवार की इकलौती कमाने वाली थीं. मजदूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण करती थीं. उनकी 34 साल की मूकबधिर बेटी फोलमाला और 12 वर्षीय नाती जयंती उनके सहारे ही थीं. आर्थिक कमजोरी के कारण परिवार उनका केस नहीं लड़ पाया और मधुबाला को 3 साल डिटेंशन सेंटर में ही बिना किसी मदद के गुजारना पड़ा.
उसके बाद मधुबाला की कहानी तब सामने आई जब अजॉय कुमार नामक एक लोकल एक्टिविस्ट ने सबूत इकट्ठे किए और उन्होंने पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाए, जिसके बाद पुलिस ने माना कि उनसे एक बड़ी भूल हुई है.
इस मामले के सामने आने के बाद जून 2019 में ट्रिब्यूनल कोर्ट द्वारा उनकी रिहाई का नोटिस जारी किया गया और उन्हें आजाद किया गया.
इतने दिनों तक कैद में रहने के बाद मधुबाला काफी टूट चुकी थीं. डिटेंशन सेंटर से निकलने पर मधुबाला का कहना था कि डिटेंशन से उनका परिवार और उनकी सेहत तहस नहस हो गई है. उनका सवाल था कि उनकी जिंदगी अब कैसे गुजरेगी जबकि वो काम भी नहीं कर सकती हैं? मधुबाला ने सरकार से उनके साथ होने वाली ज्यादती के लिए मुआवजे की भी अपील की थी लेकिन उस सदमे का मुआवजा कैसे मिलता जो उन्होंने 3 साल बांग्लादेशी होने के आरोप में जेल में गुजारे?
मधुबाला ने कहा था कि
विष्णु तिवारी उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के ललितपुर गांव में अपने पिता और दो भाइयों के साथ रहते थे. विष्णु स्कूल छोड़ चुके थे और मजदूरी कर के अपने परिवार की मदद करते थे. उनकी जिंदगी तब बदली जब वर्ष 2000 में एक अनुसूचित जाति की महिला ने उन पर बलात्कार का आरोप लगाया.
इसके बाद विष्णु पर आईपीसी की कई संगीन धाराओं 376, 506 और एससी/एसटी की धारा 3 (1) (7) , 3 (2) (5) के तहत केस दर्ज किया गया और साल 2000 के दौरान 16 सितंबर को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उस वक्त विष्णु की उम्र महज 23 साल थी.
2005 में विष्णु ने कोर्ट के इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन कोई हल नहीं निकल सका. जेल में बीत रहे इस पूरे अरसे में विष्णु ने अपने भाई और पिता को भी खो दिया. वो उन्हें आखिरी विदाई देने से भी महरूम रहे.
14 साल इसी तरह गुजर जाने के बाद जेल अधिकारियों ने उनकी मदद की और उन्होंने स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी की मदद से हाईकोर्ट में फिर से अपील की.
कोर्ट ने माना कि आरोप लगाने वाली महिला के प्राइवेट पार्ट्स पर कोई चोट नहीं थी और एफआईआर 3 दिन बाद दर्ज की गई.
कोर्ट ने ये भी कहा कि दोनों दलों के बीच जमीन को लेकर झगड़ा था, जिसके चलते महिला के पति और सुसर ने शिकायत दर्ज की थी न कि महिला ने. कोर्ट ने कहा कि आरोपी को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया. इसलिए ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए हाईकोर्ट ने 20 साल बाद विष्णु को रिहा कर दिया. विष्णु अब आजाद हो चुके हैं, जेल से बाहर निकल कर उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि उनके पास अब कुछ नहीं बचा है.
TOI की रिपोर्ट के मुताबिक विष्णु जब जेल में थे, तभी उनके माता पिता और दो भाइयों का देहांत हो गया. विष्णु का कहना है कि उनका घर खंडहर हो चुका है. जो उन्होंने खोया है वो वापस नहीं मिल सकता. उन्होंने प्रशासन से मदद की गुहार भी लगाई ताकि वे नया घर बना सकें.
अब सवाल यह उठता है कि क्या बरसों-बरस बिना किसी जुर्म के जेल में बंद रहने वाले इन लोगों को उनका वक्त लौटाया जा सकता है?
जब कोई आपराधिक घटना होती है, तो पुलिस कई बार लोगों को शक के आधार पर उठाकर जेल में बंद कर देती है. जेल में रहने के दौरान आरोप झेल रहे कई लोगों के परिवार बिखर गए, कई के माता-पिता ने उनके इंतजार में दम तोड़ दिया.
कुछ मामलों में बरी किए गए लोगों को मुआवजा दिया जाता है लेकिन मुआवजा नुकसान की भरपाई करने के लिए काफी है. जाहिर है पुलिस और जांच एजेंसियों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है.
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