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8 अगस्त को आर्टिकल 370 को बेअसर बनाने के तीन दिन बाद, जब कश्मीर बंद था, तो प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने कॉलम में एक चेतावनी दी थी.
विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ देशभर में असंतोष और प्रदर्शन की आशंका थी. इसे देखते हुए बीजेपी ने तय किया कि जम्मू-कश्मीर में असंतोष की आवाज को दबाने के लिए अपनाई गई रणनीति ही वह देश के बाकी हिस्सों पर भी लागू करेगी.
नॉर्थ ईस्ट को शांत रखने के लिए इंटरनेट पर बैन जारी रहा, असम में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गई, इस कानून में बीजेपी के मनमुताबिक संशोधन के बाद, यूएपीए का इस्तेमाल अखिल गोगोई के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए किया गया. सेल फोन प्रोवाइडर के आधिकारिक संदेशो में सुना जा रहा है कि 'सेंट्रल और साउथ दिल्ली में इंटरनेट और एसएमएस सेवाएं रद्द कर दी गई है.'
दिल्ली में छात्रों के प्रदर्शन को पुलिस हॉस्टलों और लाइब्रेरी में पहले ही कुचल चुकी है. खौफनाक तरीके से आंसू गैस के गोले छोड़े और यहां तक कि अब वीडियो में देखा जा सकता है कि उन पर बंदूक से फायरिंग भी की गई और अब प्रदर्शनों को रोकने के लिए देशभर में धारा 144 लागू की जा रही है. पूरे बेंगलुरु शहर और कर्नाटक के दूसरे शहरों में भी इसे लागू कर दिया गया है.
बेशक कश्मीर में इंटरनेट ठप है और बड़े मजे से धारा 144 के तहत प्रतिबंध महीनों से चल रहे हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर कुछ नहीं कहा है, इसलिए वास्तव में आप भी चाहें तो इस तरह के उत्पीड़न से बच सकते हैं. हालांकि, ऐसा करके कोई गलत काम सही नहीं हो जाएगा.
धारा 144 बाध्यकारी होती है और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को रोकने में इस्तेमाल होती हैं. कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर यानी सीआरपीसी के तहत यह एक ऐसी शक्ति है जो बहुत जरूरी मामलों में या किसी खतरे की आशंका को रोकने के लिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या दूसरे एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को दी जाती है. मजिस्ट्रेट को अगर लगता है कि किसी कार्य से लोगों को दूर रखना है तो वह सीधे इसका इस्तेमाल कर सकता है. किसी निश्चित गतिविधि से लोगों को अलग करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है अगर मजिस्ट्रेट को ऐसा लगता हो कि इसे रोकना जरूरी है-
अब एक बात की याद दिलाएं. हमारे पास भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 (1 ए) के तहत मौलिक अधिकार है. आर्टिकल 19 (1 बी) के तहत शांतिपूर्ण तरीके से और बिना हथियार लिए इकट्ठा होने का भी मौलिक अधिकार है. संविधान इस पर उचित प्रतिबंध भी लगाता है लेकिन इसके लिए सख्त मानक है.
बीते दशकों में कई बार सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 144 के आदेशों को देखा है और यह व्यवस्था दी है कि, ऐसे आदेशों के लिए निम्न शर्तों को पूरा करना जरूरी है.
144 के आदेश के लिए लिखित आदेश में वो सभी होना चाहिए जो हमने लिखा है. उन मुद्दों का जवाब होना चाहिए.
144 का आदेश तभी लागू हो सकता है जब शासकीय आदेश को तत्काल खतरा हो जिसके लिए डीएम के पास वास्तव में वजह हो. इस वक्त पूरे देश में लगाया जा रहा 144 का आदेश इस जरूरत को पूरा नहीं करता. बेंगलुरु के डीसीपी के मुंह से निकली बातचीत को सुनें- जो कहते हैं कि 144 लागू की जा रही है क्योंकि कई जगहों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. तो क्या हुआ? आपको पता हो कि यही लोकतंत्र होता है.
हो सकता है कि जिसे आप लागू कर रहे हैं उस कानून का आपको पता न हो, लेकिन जो कानूनी आदेश गलत तरीके से लागू किए गये हैं उन्हें कर्नाटक हाईकोर्ट में चुनौती दी जा रही है यह आपको जल्द पता चल जाएगा.
उत्तर प्रदेश इसका फायदा उठा रहा है. पूरे राज्य में धारा-144 लागू है. बता दें कि, यहां का मामला सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर के बारे में सरकार के जवाब से अलग है, जहां यह बताया गया था कि हर थाने से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर वहां प्रतिबंध लगाए गये थे. यूपी में धारा 144 लागू करने के बाद बीजेपी सरकार ने नासमझी में खुद ही इन सारे आदेशों के गलत ठहराने का रास्ता खोल दिया है.
संभवत: यह जोर देकर बताने की जरूरत है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ, वह देश के दूसरे हिस्सों में सेक्शन 144 को लागू करने का आधार नहीं हो सकता. हर 144 का आदेश क्षेत्र के हिसाब से होता है और इसे सरकार खुद नहीं लगा सकती.
इसे केवल स्थानीय अधिकारी ही लागू कर सकते हैं, जिनके पास इसे लागू करने का भौतिक आधार हो.जामिया और अलीगढ़ के संबंध में भी यहां साफ कर दें कि पुलिस ने जरूरत से ज्यादा बल का इस्तेमाल किया, इसलिए अपनी ही ओर से पैदा की गई परिस्थिति का इस्तेमाल करते हुए आगे नागरिक सुविधाओं पर प्रतिबंध लगाना गलत होगा.
सरकार जिस तरह का प्रतिबंध लगाना चाहती है वह तभी लागू होता है जब संविधान के आर्टिकल 352 के तहत आपातकाल की घोषणा हुई हो. धारा 144 का इस्तेमाल नकारात्मक अर्थों से बचने के लिए सरकार की सोच के हिसाब से मास्टर स्ट्रोक हो सकता है लेकिन कानूनन यह सही नहीं है. नागरिकों को सरकार से नियमों का पालन करने की मांग करने की जरूरत है.
चूंकि, लागू किए गये धारा 144 के आदेश स्पष्ट रूप से कानून तोड़ते हैं इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अधिकारी इसे तुरंत वापस ले लेंगे और वे लोगों को उस कानून का शांतिपूर्ण विरोध करने का अधिकार इस्तेमाल करने देंगे जिसे वे अन्यायपूर्ण और असंवैधानिक मानते हैं. सत्ताधारी दल के पास बहुमत है, इसका मतलब ये नहीं है कि लोगों के लिए असंतोष का अधिकार खत्म हो गया है.
बेशक इन आदेशों के पीछे सरकार है, इसलिए ऐसा लगता है कि कानून का शासन बनाए रखने और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए हमें अदालतों पर भरोसा करना होगा.
वास्तव में यह मामला किसी अन्य पीठ में ट्रांसफर हो गया जिसने तकरीबन दैनिक आधार पर कई सुनवाई की. उन्होंने 27 नवंबर के लिए फैसला सुरक्षित रखा और अब यह बहुत लंबा खिंच गया है. 6 जनवरी से पहले फैसला आना संभव नहीं लगता.
हम बस उम्मीद कर सकते हैं कि देशभर के हाईकोर्ट हमारे मौलिक अधिकारों से जुड़े ऐसे बेवजह के प्रतिबंधों को लेकर संवेदनशील हों और वे इन स्थितियों को तुरंत सुनें क्योंकि, ये तुरंत सुने जाने योग्य मामले हैं. अन्यथा भारत ने कश्मीर में अपने ही लोगों के साथ जिस तरीके से अपमानजनक व्यवहार किया है, जिस तरीके से उत्तर पूर्व के लोगों के साथ व्यवहार किया है, उसका नतीजा केवल कथित रूप से ‘सामान्य’ हो सकता है जिसे हम हमेशा याद रखेंगे.
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