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संडे व्यू: चीन के खिलाफ धर्म युद्ध, विकास जिन्दा भी अहम,मुर्दा भी

विकास दुबे एनकाउंटर से लेकर चीन से तनाव तक, क्रिकेट से लेकर कोरोना तक, संडे व्यू में पढ़िए प्रमुख अखबारों के आर्टिकल

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संडे व्यू में पढ़िए देश के अखबारों के प्रमुख आर्टिकल
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संडे व्यू में पढ़िए देश के अखबारों के प्रमुख आर्टिकल
फोटो: द क्विंट

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जिन्दा विकास और मुर्दा विकास दोनों व्यवस्था की जरूरत

चाणक्य हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि जीवित विकास दुबे जिस व्यवस्था की कभी जरूरत थी, उसी व्यवस्था की जरूरत हो गयी विकास दुबे की मौत. ऐसा परिस्थिति में बदलाव नहीं चाहने वाली व्यवस्था के कारण संभव हुआ. जो जैसा है, रहने दो. विकास दुबे को पहले अपराध के वक्त ही रोका जा सकता था, मगर व्यवस्था ने उसे संरक्षण दिया. 8 पुलिसकर्मियों की जान लेकर विकास दुबे ने व्यवस्था को तोड़ा, जिसके बाद इस मामले को अंजाम तक पहुंचाना जरूरी था.

चाणक्य लिखते हैं कि विकास दुबे की गिरफ्तारी के बाद उसे संरक्षण देने वालों को पकड़ा जा सकता था. अपराध की पूरी व्यवस्था ध्वस्त की जा सकती थी. मगर, ऐसा करना उन लोगों को मंजूर नहीं था, जो व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं चाहते.

ऐसे बाहुबलियों की जरूरत राजनीतिज्ञों को होती है और राजनीतिज्ञ ही पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रमोशन तय करते हैं. यथास्थितिवादियों को विकास दुबे की मौत में ही इस सिस्टम की सुरक्षा दिखी. और, इस तरह विकास दुबे मारा गया. सरकार का सख्त संदेश कि अपराधियों का हश्र यही होता है. एनकाउंटर की जांच होगी. मगर, नतीजे चाहे जो आएं फिलहाल व्यवस्था ने विकास की मौत में ही खुद को अनुकूल स्थिति में पाया है.

चीन के खिलाफ धर्मयुद्ध में अकेला नहीं है भारत

स्वपन दास गुप्ता ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि चीन के साथ धर्मयुद्ध में भारत अकेला नहीं है. वे लिखते हैं कि चीन ने हाल में घुसपैठ की घटना के बाद यह साफ किया है कि वह वर्तमान एलएसी को पवित्र नहीं मानता है और लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश, जिसे वह तिब्बत का हिस्सा मानता है, की संप्रभुत्ता पर कोई दावा छोड़ने को तैयार है.

वे लिखते हैं कि डोकलाम के 3 साल बाद गलवान घाटी की घटना से यह साफ हो गया है कि चीन महज स्पर्धी देश नहीं है. अंदरूनी राजनीति की चर्चा करते हुए दासगुप्ता लिखते हैं कि कुछ लोगों को इस बात से खुशी है कि शी जिनपिंग के साथ नरेंद्र मोदी की पर्सनल केमिस्ट्री काम नहीं आयी, वहीं कुछ लोग यह देखते हैं कि चीन ने दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के तौर पर अमेरिका को पीछे कर दिया है और एशिया में भारत को बाधा के तौर पर देख रहा है.

लेखक का मानना है कि देंग से जिनपिंग तक चीन ने जो विकास की जो दूरी तय की है उसे देखते हुए एशिया को एकध्रुवीय होने से रोकने का प्रयास भारत को नहीं करना चाहिए. इसके बजाए बेहतर शर्तों पर बीजिंग के साथ संबंध विकसित करना चाहिए. लेखक बांडुंग सम्मेलन से 1962 तक भारत की सोच को जवाहरलाल नेहरू की नीतिगत भूल मानते हैं.

दासगुप्ता का कहना है कि दुनिया भर में चीन की धुन पर नाचने वाले आज भी मिल जाएंगे. सोवियत संघ ने जैसी लॉबी शीतयुद्ध के दौरान तैयार की थी, वैसी ही लॉबी चीन तैयार कर चुका है. चीन के साथ लम्बे संघर्ष को महसूस करते हुए सीमित तरीके से आगे बढ़ने का रास्ता ही हमें चुनना होगा. चीन अगर इतनी दूर तक आगे बढ़ा है तो यह कोविड-19 के कारण पैदा हुई परिस्थिति है.

चीन से विवाद में कूटनीतिक विफलता

पी चिदंबरम जनसत्ता में लिखते हैं कि 14 नवंबर को चीनी फौज भारतीय क्षेत्र में सौ मील घुस आयी और 21 नवंबर को सेना की वापसी का एलान किया. इस दौरान जो वास्तविक नियंत्रण रेखा को उसने परिभाषित किया उस पर कमोबेस वह बना रहा था. भारत का विद्रोही तेवर बना रहा. 1993 में वास्तविक नियंत्रण रेखा को स्वीकार करने पर सहमति बन गयी लेकिन एलएसी पर सहमति नहीं बनी. 1975 के बाद से 45 साल तक भारत-चीन सीमा पर किसी की जान नहीं जाना बड़ी उपलब्धि थी.

चिदंबरम लिखते हैं कि 8 सितंबर 1962 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ को लिखे पत्र में चीन को हमलावर बताया था. उन्होंने लिखा था कि लांगजू के अलावा चीन ने कभी पूर्वी क्षेत्र में सीमा पार नहीं की थी. चीनी घुसपैठ और गलवान घाटी में ताजा हिंसक घटना के बाद भी प्रधानमंत्री हमलावर के रूप में चीन का नाम तक नहीं ले रहे हैं.

चिदंबरम याद दिलाते हैं कि वुहान वार्ता के बाद सीमा विवाद पर सिर्फ एक पैरा लिखा गया था. इसी तरह महाबलीपुरम में वार्ता के बाद 17 अनुच्छेद वाले बयान में 16वें में सीमा विवाद का जिक्र हुआ था. चिदंबरम लिखते हैं कि भारत ने 1993 तक हासिल उपलब्धियां गंवा दी है. है. लेखक की सलाह है कि कूटनीति का काम राजनयिकों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए.

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कोविड से जुड़े बड़े सवाल और उनके जवाब

करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में कोविड-19 महामारी से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं और उसका जवबा देने की कोशिश की है. वे पहला सवाल उठाते हैं कि क्या हम पर्याप्त संख्या में टेस्टिंग कर रहे हैं? भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 8,191 लोगों की टेस्टिंग हो रही है जबकि यही संख्या स्पेन में 1,22,651 और इंग्लैंड में 96,836 है.

इन देशों के मुकाबले भारत की आबादी 10 से 12 गुणी अधिक है. डब्ल्यू.एच.ओ में चीफ साइंटिस्ट सौम्या स्वामीनाथन के हवाले से वे बताते हैं कि जब तक प्रभावित इलाकों में कोविड पॉजिटिव होने की दर 5 फीसदी से कम न हो जाए, टेस्टिंग जारी रहनी चाहिए.

दूसरा सवाल थापर उठाते हैं कि क्या अब भी भारत में सामुदायिक संक्रमण नहीं है जबकि दैनिक आंकड़ा 27 हजार के स्तर पर पहुंच चुका है? आईसीएमआर नहीं मानता. मगर, कई विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर वे कहते हैं कि दिल्ली, मुंबई जैसे इलाकों में स्थानीय संक्रमण की स्थिति है. देश में 80 प्रतिशत कोविड-19 के मामले 49 जिलों में हैं. यह भी स्थानीय संक्रमण की पुष्टि करता है. तीसरा सवाल मृत्यु दर का है.

भारत में यह प्रति दस लाख की आबादी पर 16 है जबकि इंग्लैंड में 658, इटली में 578 और स्पेन में 607 है. लेखक मृत्यु के आंकड़ों के सही तरीके से दर्ज नहीं होने पाने की बात उठाते हैं और सरकार के इस दावे का प्रतिकार करते हैं कि दूसरे देशों से स्थिति बेहतर है. रिकवरी रेट को लेकर लेखक का कहना है कि इसे तो 99 प्रतिशत होना चाहिए. इस बारे में जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वह भ्रम अधिक फैलाते हैं.

कांग्रेस है मोदी की लोकप्रियता का कारण

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि दुनिया भर में कोविड के दौर में नेताओं की लोकप्रियता गिरी है लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 74 फीसदी के स्तर पर है. अमेरिकी कंपनी के इस सर्वेक्षण पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. इसकी वजह यह है कि नरेंद्र मोदी ने कम से कम दो बड़ी गलतियां अपने नये कार्यकाल में की हैं.

एक, कोविड के दौर में प्रवासी मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ देना और दूसरा, चीनी घुसपैठ के बाद उनका बयान देना कि भारत की सरजमीन पर न कोई घुसा है, न कोई घुसा हुआ है और न ही हमारी किसी चौकी पर किसी का कब्जा हुआ है. नेतृत्व के मामले में इतने कमजोर इससे पहले कभी नरेंद्र मोदी नहीं दिखे थे.

तवलीन सिंह ने लिखा है कि दो आम चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस का खुद को नहीं बदल पाना और एक ही परिवार से संबंधित कांग्रेस की तीन प्रमुख नेताओँ का बुरे तरह से पेश आना ऐसी वजह हैं जो कांग्रेस को विकल्प बनने नहीं देती. राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी सरकार से चंदा, प्रियंका का सरकारी आवास छिन जाना ऐसी स्थितियां हैं जो बताती हैं कांग्रेस के बुरे दिन चल रहे हैं. फिर भी कांग्रेस नेताओँ का घमंड कम नहीं हुआ है.

तवलीन लिखती हैं कि ऐसा लगता है कि सोनिया कभी भी राहुल के लिए अपना पद छोड़ने को तैयार हैं और प्रियंका तो ऐसा व्यवहार कर रही हैं जैसे यूपी की सीएम वह बन चुकी हों. मोदी अपना कोई भी वादा पूरा नहीं कर सके हैं, फिर भी कांग्रेस के मुकाबले उनकी लोकप्रियता बनी हुई है.

कोविड-19 के दौर से निकलने को आतुर है क्रिकेट

मुकुल केसवान ने द टेलीग्राफ में क्रिकेट के दोबारा शुरू होने की उम्मीद पर खुशी जताते हुए लेख लिखा है. अगर वेस्टइंडीज टीम का इंग्लैंड दौरा संभव हो पाता है तो आगे क्रिकेट के और बड़े अवसर देखने को मिल सकते हैं. कोविड-19 के दौर में बीते चार महीने से क्रिकेट बंद है. तब इंग्लैंड की टीम को श्रीलंका से अपना दौरा छोटा कर लौटना पड़ा था.

केसवान लिखते हैं कि क्रिकेट पर अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति भी हावी दिखेगी. ब्लैक लाइव्स मैटर यानी बीएलएम की आज दुनिया भर में धूम है. यह खुशी की बात है कि इंग्लैंड और वेस्टइंडीज दोनों क्रिकेट बोर्ड ने बीएलएम की भावना के अनुरूप जॉर्ज फ्लॉयड को श्रद्धांजलि देने पर सहमति जतायी है.

हालांकि लेखक ने याद दिलाया है कि इंग्लैंड में बोरिस और उनकी कैबिनेट में फ्लायड को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित सभा से खुद को अलग कर लिया था. लेखक ने द डेली टेलीग्राफ के हवाले से लिखा है कि क्रिकेट को आक्रामक नीतियों के हिसाब से जोड़ने से बचना चाहिए.

केसवान लिखते हैं कि क्रिकेट में हमेशा से ही ब्लैक लाइव्स मैटर की भावना रही है. हर्शेल गिब्स, डैरेन सैमी, गैरी सोबर्स, हॉल, गिब्स, लॉयड, ग्रीनिज, रिचर्ड्स जैसे खिलाड़ी भारत में बहुत लोकप्रिय रहे हैं. लेखक टोनी ग्रेग और विवियन रिचर्ड्स के नेतृत्व वाली टीमों के बीच 1976 का दौर भी याद करते हैं जब वेस्टइंडीज ने 3-0 से इंग्लैंड को हराया था. नस्लवाद के खिलाफ क्रिकेट हमेशा से एंटीडोट के तौर पर काम करता रहा है. एक बार फिर जब क्रिकेट शुरू होगा तो यह अपने स्वाभाविक रूप में नजर आएगा.

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Published: 12 Jul 2020,08:39 AM IST

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