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संडे व्यू: भारत-चीन में कोल्ड वॉर, क्रिकेटर्स को सिर पर न चढ़ाओ

फेसबुक को मीडिया कंपनी के कानूनों का पालन करना चाहिए,  आदिवासियों को सुरक्षा दे नई वन नीति, पढ़ें बेस्ट आर्टिकल

दीपक के मंडल
भारत
Updated:
संडे व्यू
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संडे व्यू
(फोटोः istock)

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मीडिया कंपनियों के रूल फॉलो करे फेसबुक

इस सप्ताह फेसबुक डेटा लीक की खबर सुर्खियों में रही. फेसबुक, व्हाट्सएप समेत तमाम सोशल मीडिया बड़ी बहस के घेरे में आ गए. हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने फेसबुक और व्हाट्सअप की अनियंत्रित सूचनाओं, समाचारों और दूसरी सामग्रियों के असर के साथ कैंब्रिज एनेलिटिका विवाद की चर्चा करते हुए लिखा है- साफ है कि हालात काबू से बाहर हो चुके हैं.

फेसबुक ने इस विवाद के बाद कहा है कि उसने फेक न्यूज की दिक्कतें दूर करने के कदम उठाए हैं. व्हाट्सअप पर भी फेक न्यूज को काबू करने के कदम उठाने की बात की जा रही है. भारत में व्हाट्सअप से फेसबुक की तुलना में ज्यादा तेजी से फेक न्यूज फैलाई जाती है.

कैंब्रिज एनालिटिका के मुद्दे के सामने आने के बाद फेसबुक के फाउडंर मार्क जकरबर्ग के खिलाफ कई देशों में जांच चल रही हैफोटो: रॉयटर्स

सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि फेसबुक को पहले यह स्वीकार करना होगा कि वह एक मीडिया कंपनी है. भले ही फेसबुक का 5 फीसदी कंटेंट न्यूज हो लेकिन कंपनी को मानना होगा कि वह भी न्यूज मीडिया कंपनी है. इसका मतलब है कि उसे पत्रकारिता के बेसिक सिद्धांतों का पालन करना होगा. मतलब उसे सटीकता, निष्पक्षता और डिस्क्लोजर के नियमों को अपनाना होगा.

लगता है कि फेसबुक इस बारे में सोचता हुआ नहीं दिखता. टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह डिजिटल मीडिया पर भारत में रेग्यूलेशन नहीं है. न तो कोई इंडस्ट्री संगठन है जो सेल्फ रेग्यूलेशन करे. अगर फेसबुक मीडिया बिजनेस से मुनाफा कमाना चाहती है तो उसे मीडिया कंपनी के रूल भी फॉलो करने होंगे.

क्रिकेटरों को इतना सिर न चढ़ाओ

इस सप्ताह ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों की करतूत सामने आने के बाद हंगामा मचा है. आकार पटेल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है-ऑस्ट्रिलाई कप्तान स्मिथ रोते हुए बड़बड़ा रहे थे कि उन्होंने अपने देश को नीचा दिखाया. इससे उन्होंने जिंदगी का बड़ा सबक सीखा. यह मामला हमारे लिए बड़ी चिंता और खबर बन गया. क्यों?

इसलिए कि हम अपने नासमझ राष्ट्रवाद का बड़ा हिस्सा इस पर खर्च करते हैं. जबकि क्रिकटरों के लिए यह झूठा राष्ट्रवाद है. इसे साबित करना हमारे लिए आसान है. जब क्रिकेट बल्ले से गेंद को हिट करने की बात आतती है तो सचिन देश के लिए योगदान करते नजर आते हैं. लेकिन जरा संसद में उनका प्रदर्शन देखिये. हाजिरी 8 फीसदी. डिबेट में हिस्सा बिल्कुल नहीं. एक भी बिल का प्रस्ताव नहीं.

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ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर स्टीव स्मिथ और डेविट वॉर्नर का करियर लगभग खत्म, दोनों ने प्लान कर दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ बॉल टेंपरिंग करवाई(फोटो: Twitter/Facebook)

तेंदुलकर को जब फेरारी गिफ्ट की गई तो उन्होंने सरकार से इस पर ड्यूटी हटाने की मांग की. आखिर टैक्सपेयर इनका पैसा क्यों भरें? ऐसी मध्यवर्गीय मौकापरस्ती क्रिकेटरों में भरी होती है, जिसकी शिनाख्त हम नहीं करते. आईपीएल शुरू होने के बाद मुंबई मिरर ने रिपोर्ट दी थी कि सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री बीसीसीआई के कांट्रेक्ट पर हैं.

उन्हें 3.6 करोड़ रुपये सालाना दिए जा रहे थे. साथ ही वे कमेंट्री और कॉलम राइटिंग भी कर रहे थे. आखिर उन्हें किस चीज का भुगतान किया जा रहा था. जाहिर है बीसीसीआई का नजरिया सामने रखने के लिए क्रिकेटरों का देश प्रेम झूठा है. लेकिन मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है. क्योंकि मैं नहीं मानता कि ये क्रिकेटर मेरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं. महान क्रिकेटर भी उस स्टैंडर्ड का पालन करने में नाकाम हैं, जिनका हम उनसे उम्मीद रखते हैं.

भारत और चीन का कोल्ड वॉर

पी चिदंबरम ने दुनिया में चल रहे एक नए कोल्ड वॉर का जिक्र किया है. दैनिक जनसत्ता में वह लिखते हैं- इस समय दुनिया में एक नया कोल्ड वॉर चल रहा है. यह अमेरिका और रूस के बीच नहीं है; जो कि एक कूटनीतिक जंग है, ढीठ व ‘एकमात्र महाशक्ति’ और एक प्रताड़ित पर स्वाभिमानी देश के बीच, जिसने धुरी होने की अपनी हैसियत खो दी है.

यह अमेरिका और चीन के बीच नहीं है; जो कि व्यापार युद्ध है, जिसे विश्व व्यापार के नियमों के तहत ही उचित तरीके से रोका जा सकता है. नया शीतयुद्ध भारत और चीन के बीच है. यह जंग दो टकराते दृष्टिकोण की उपज है: भारत चीन को ईर्ष्या की निगाह से देखता है, चीन भारत को हिकारत की नजर से देखता है.. भारत की निगाह में चीन वर्चस्ववादी है. चीन भारत को नौसिखुआ मानता है.

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चिदंबरम लिखते हैं - खटास को समझने के लिए कुछ कठोर तथ्यों को जानना ही होगा. इसके लिए लेख में लगा टेबल देखना होगा. मैं इसे काफी अफसोस के साथ कहता हूं, पर इसमें दो राय नहीं कि कौन अधिक सशक्त और अधिक समृद्ध राष्ट्र है. दोनों में एक को या दोनों को ही गरीबी से पार पा चुके मध्य-आय वाला देश होने में बरसों लगेंगे. हालांकि चीन इस दौड़ में भारत से आगे है.

भारत को चीन के बराबर की आर्थिक शक्ति बनना पड़ेगा. उसके लिए सामूहिक आर्थिक समझ, साहसिक, ढांचागत सुधारों, कड़े नीतिगत बदलावों और दृढ़ कार्यान्वयन की जरूरत है, जो दो दशक तक सतत और ऊंची (आठ से दस फीसद) विकास दर की तरफ ले जाएगा. इस चुनौती से पार पाना अकेले मोदी के बस का नहीं है.

यूपी की राजनीति और लोहिया-अंबेडकर

यूपी की राजनीति या कहिये देश की राजनीति में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के करीब आने को वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार दिलीप मंडल एक ऐसे संदर्भ में देख रहे हैं, जो इस वक्त देश की एक बड़ी आबादी को दिशा देने वाले राजनैतिक नेतृत्व के लिए बेहद जरूरी है. मंडल लोहिया और आंबेडकर की राजनैतिक विचारधारा में समानता तलाश रहे हैं.

राम मनोहर लोहिया देश के बड़े समाजवादी नेता और विचारक रहे हैंफोटो:क्विंट हिंदी

अमर उजाला में छपे उनके लेख में कहा गया है- दोनों के बीच समानताएं इतनी अधिक हैं कि दोनों को अलग-अलग नहीं देखा जाना चाहिए. ऐसा करने वाले अंबेडकरवादियों और लोहियावादियों ने एपनी एकांगी सोच का ही परिचय दिया है और इसका नुकसान दोनों को हुआ है. व्यावहारिक रूप से देखें तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी में 1995 के बाद से 2017 तक यानी 22 साल तक जो कड़वाहट रही उसने भारतीय राजनीति में एक अभिनव प्रयोग की संभावना को नष्ट कर दिया.

2018 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी एक बार फिर पास आती दिख रही हैं. अगर यह सत्ता के लिए दो दलों का पास आना है तो फिर इसकी मीमांसा को कोई मतलब नहीं है. अगर वे विचार के स्तर पर करीब आ रही हैं तो जो सबसे पहला काम दोनों दलों के नेताओं को करना चाहिए कि वह यह लोहिया और आंबेडकर को पढ़ें और इससे भी ज्यादा उनके विचारों पर अमल करें. आंबेडकर और लोहिया के साझा विचारों मे आधुनिक विचार का एक अभिनव सपना छिपा है.

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आदिवासियों को सुरक्षा दे नई वन नीति

इतिहासकार और पब्लिक इंटेलेक्चुअल रामचंद्र गुहा ने चिपको आंदोलन और वन संरक्षण कानून कानून का हवाला देते हुए जंगलों के निजीकरण नहीं बल्कि इनके कायाकल्प का सुझाव दिया है. दैनिक हिन्दुस्तान में वह लिखते हैं- पैंतालीस साल पहले अलकनंदा घाटी के ग्रामीणों ने जब जंगल से पेड़ काटकर ले जाने वालों को रोका, तो किसी ने सोचा न होगा कि यहीं से चिपको आंदोलन की नींव पड़ने जा रही है. एक ऐसा किसान आंदोलन, जिसने भारत में वनों के व्यावसायिक दोहन पर सबका ध्यान खींचा.

चिपको आंदोलन का ही यह असर था कि वनाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी. गढ़चिरौली, बस्तर, सिंहभूम और पश्चिमी घाट सहित देश भर से वनाधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष की खबरें आने लगीं. इन सामाजिक आंदोलनों ने अध्येताओं को वन-नीति का इतिहास खंगालने पर मजबूर कर दिया.

तमाम लेख और किताबें आईं, जिनमें ब्रिटिश हुकूमत के दौरान वन क्षेत्र के दोहन की ही नहीं, अंग्रेजों द्वारा ग्राम सभाओं के हाथों से छीनकर वनों को संरक्षित घोषित करने की कहानी भी थी. बताया गया था कि किस तरह किसानों, आदिवासियों, शिल्पियों की वनों तक पहुंच रोकी गई, जो अब गहन व्यावसायिक शोषण का रूप ले चुकी है.

आजादी के वक्त देश के कुल भूभाग का 20 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा भारत सरकार के वन विभाग के अधीन था. दुर्भाग्यवश लोकतांत्रिक गणतंत्र ने भी औपनिवेशिक शासन की दमनकारी नीतियों को जारी रखना ही बेहतर समझा.

गुहा लिखते हैं- नई वन संरक्षण की नई मसौदा नीति कृषि वानिकी के साथ ‘वनों से बाहर पेड़’ के महत्व पर बात करती है. वन-नीति का दूसरा फोकस संरक्षित वनों और इनके आसपास रहने वाले किसानों और आदिवासियों की आजीविका सुरक्षित रखने पर होना चाहिए. नई वन-नीति का मसौदा फिलहाल ये शर्तें पूरी नहीं करता.

स्टीफन हॉकिंग और ईश्वर

हाल में दिवंगत हुए महान कॉस्मोलोजिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने हमारी कायनात को रहस्य को जिस सरल ढंग से हमारे सामने रखा वह अचंभित करने वाला था. हिन्दुस्तान टाइम्स में मार्क टुली ने लिखा है - हॉकिंग के निधन के बाद धर्म की मान्यता पर बहस एक बार फिर शुरू हो गई है.

लंबे समय तक व्हील चेयर पर रहे स्टीफन हॉकिंग, पिछले दिनों उनकी मौत हो गई(फोटो: फेसबुक)

विज्ञान धर्म को खारिज करता है. हॉकिंग भी धर्म के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ते हैं. उन्होंने कहा था कि हम मनुष्य बंदरों की एक विकसित प्रजाति है जो एक औसत तारे के क्षुद्र ग्रह पर मौजूद हैं. लेकिन हम खास इसलिए हैं कि हम इस कायनात को समझ सकते हैं.

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि इस यूनिवर्स के बारे में सबसे ना समझे जाने बात यह है कि इसे समझा जा सकता है. टुली लिखते हैं- हाल में मैंने एक फेमस क्रिश्चियन थियोलॉजिस्ट को पढ़ा जो कहते हैं कि इस ना समझने वाली बात ने ईश्वर के बारे में रहस्य बना रखा है.

टुली के इस कॉलम में ईश्वर और विज्ञान के बारे में अच्छे तर्क दिए गए हैं. अंत में टुली श्रीलंका के तत्व विज्ञानी और तमिल दार्शनिक आनंद कुमारस्वामी का हवाला देते हैं, जो कहते हैं- धर्म और विज्ञान का असली संघर्ष असंभव है. यह संघर्ष सिर्फ इस बात का है कि कुछ वैज्ञानिक आध्यात्मिक दर्शन के बारे में अज्ञानी हैं. जबकि कुछ कट्टरवादी यह मानते हैं कि उनके मिथक के सच में ऐतिहासिकता है.

इंडियन मनाते हैं हर दिन अप्रैल फूल

टाइम्स ऑफ इंडिया में ट्विंकल खन्ना ने अप्रैल फूल डे का जिक्र करते हुए कहा है विदेश में एक दिन अप्रैल फूल मनाया जाता है. लेकिन हम इंडियन हर दिन मूर्ख बनते हैं. हमारे यहां नीरव मोदी जैसे लोग हैं जो बैंकों को मूर्ख बना कर चंपत हो जाते हैं.

साइंस और टेक्नोलॉजी मिनिस्टर हैं जो दावा करते हैं कि स्टीफन हॉकिंग ने कहा था कि वेदों में वह थ्योरी है, जो थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी से ज्यादा श्रेष्ठ है. पन्नालाल शाक्य जैसे विधायक हैं जो कहते हैं कि लड़कियों को ब्वॉयफ्रेंड नहीं बनाना चाहिए. उन लड़कियों ने उपवास रखे और ईश्वर से मनाया कि उन्हें अगले जन्म में लड़का बनाना.

लाखों स्टूडेंट्स को मूर्ख बनाने वाला सीबीएसई है. रात-दिन पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स और उनके मां-बाप को पेपर लीक करके खूब मूर्ख बनाया गया. और भी मूर्खता के काम हो रहे हैं. मुंबई में शिवाजी की 3600 करोड़ रुपये की लागत से बन रही मूर्ति की ऊंचाई को लेकर कांग्रेस और बीजेपी के नेता लड़ रहे हैं.

कांग्रेस लीडर पृथ्वीराज चह्वाण ने आरोप लगाया कि बीजेपी शिवाजी की मूर्ति को छोटा करने की साजिश रच रही है. सच है दुनिया एक दिन मूर्ख दिवस मनाती है और हम इंडियन हर दिन इसे मनाते हैं. हम बस इसका नाम बदल देते हैं. हम इसे अच्छे दिन कहते हैं.

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Published: 01 Apr 2018,09:34 AM IST

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