Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: राहत पैकेज में कंजूसी चिंताजनक,बढ़ती आबादी घटती बेटियां

संडे व्यू: राहत पैकेज में कंजूसी चिंताजनक,बढ़ती आबादी घटती बेटियां

मोदी सुधारक तभी कहलाएंगे, जब वे GDP में ग्रोथ करवाएंगे..संडे व्यू में पढ़े देश के प्रमुख अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स

क्विंट हिंदी
भारत
Updated:
संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
i
संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
फोटो: द क्विंट

advertisement

बेटे की चाहत के साथ बढ़ती आबादी

सी रंगराजन और जेके सातिया ने इंडियन एक्सप्रेस में जनसंख्या से जुड़ी चिंता पर बड़ा तथ्य सामने रखा है. उन्होंने बताया है कि न सिर्फ बढ़ती जनसंख्या चिंता की वजह है बल्कि जन्म के समय बढ़ता लिंगानुपात भी चिंता का विषय है. मतलब ये कि बेटे के लिए बढ़ती चाहत, बेटी के लिए उदासीनता.

2011 में जन्म के समय स्त्री-पुरुष लिंगानुपात 906 के मुकाबले 2018 में 899 हो चुका है. केरल और छत्तीसगढ़ को छोड़कर देश के बाकी सभी राज्यों में पुत्र संतानों के प्रति ललक बनी हुई है. इसलिए लिंग समानता को ध्यान में रखते हुए माता-पिता में जनसंख्या से जुड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में तुरंत जागरूकता लाने की जरूरत है.

रंगराजन और सातिया लिखते हैं कि फर्टिलिटी रेट के 2.1 के स्तर पर (रिप्लेसमेंट फर्टिलिटी रेट) आ जाने के बावजूद जनसंख्या को घटने में समय लगता है. केरल का उदाहरण रखते हुए वे लिखते हैं कि वहां रिप्लेसमेंट फर्टिलिटी रेट 2009 में आ चुका था, लेकिन 30 साल बाद भी 2018 में वहां जनसंख्या में वृद्धि की दर 0.7 फीसदी बनी हुई है.

इसकी वजह है जनसंख्या उत्पादन की उम्र जो 15 से 49 साल होती है. जनसंख्या नियंत्रण के दो महत्वपूर्ण कारक हैं महिलाओं की शिक्षा और गर्भनिरोधक उपायों का प्रचलन. भारत में 6 राज्य ऐसे हैं जहां फर्टिलिटी रेट रिप्लेसमेंट रेट से अधिक हैं- बिहार (3.2), उत्तर प्रदेश (2.9), मध्य प्रदेश (2.7), राजस्थान (2.5), झारखण्ड (2.5) और छत्तीसगढ़ (2.4). लेखकद्वय ने बताया है कि यूएनएफपी के अनुसार भारत में लिंगानुपात 2020 में 910 होने का अनुमान है जो चीन को छोड़कर दुनिया में सबसे कम है.

बांग्लादेश में दिखा है बदलाव मगर...

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि ‘दीमक’ निर्यात करने वाला बांग्लादेश अब बदल चुका है. 90 के दशक में अपनी दो बांग्लादेश यात्राओं को याद करते हुए वे बताते हैं कि तब बिजनेस क्लास के सफर में टॉयलेट भी वाआईपी के लिए हुआ करता था, राजधानी ढाका में सड़कों पर रिक्शों की भरमार थी.

अब स्थिति बदल चुकी है. अमर्त्य सेन ने सबसे पहले इस बात को इंगित किया था कि बांग्लादेश कई सामाजिक मानकों पर भारत से आगे बढ़ चुका है. अब आईएमएफ ने बताया है कि कोविड-19 के दौर में बांग्लादेश की जीडीपी ग्रोथ डॉलर के हिसाब से भारत के मुकाबले मामूली रूप से बढ़ने वाली है.

लेखक बांग्लादेश के वित्तमंत्री रहे सैफुर रहमान को इसका श्रेय देते हैं जो भारत में मनमोहन सिंह की उम्र के हैं. भारत में विनिवेश पर अड़े निजीकरण के बजाए निजीकरण के विशद कार्यक्रमों को लागू करने का श्रेय रहमान को है. नाइनन बताते हैं कि 1971 के बाद से भारत और बांग्लादेश की आबादी ढाई गुणी हो चुकी है जबकि पाकिस्तान की 3.5 गुणी.

अगर बांग्लादेश से आबादी का पलायन नहीं हुआ होता तो यह और अधिक होती. बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में टका मजबूत होकर 2008 के बाद उभरा था जब भारत मंदी के दौर में था. एक बार फिर जब कोविड-19 में भारतीय अर्थव्यवस्था डांवाडोल है तो वह भारत को पीछे छोड़ता दिख रहा है. गारमेंट एक्सपोर्ट में बांग्लादेश ने बेहतर मुकाम हासिल कर दिखाया है जिसका उसकी जीडीपी में बड़ा योगदान है.

मोदी सुधारक कहे जाएंगे जब जीडीपी बढ़ाएंगे

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बीजेपी या मोदी सरकार अपने विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों को प्रचारित करने में कामयाब रही है. यहां तक कि सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का ढोल वह तब भी पीटती रही जब भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से रसातल में जा रही थी.

प्रचार का एकमात्र मकसद नरेंद्र मोदी को महान नेताओं की कतार में खड़ा करना था. नयी कोशिश मोदी को मजबूत आर्थिक सुधारकर्ता के तौर पर पेश करने की है. डॉ अरविंद पगड़िया भी ऐसे लोगों में शुमार हो गये हैं जो मोदी का नाम राव और वाजपेयी के साथ तो लेते हैं लेकिन आश्चर्यजनक रूप से डॉ मनमोहन सिंह का नाम नहीं लेते.

चिदंबरम ने अपने आलेख में पनगड़िया की उन तमाम दलीलों को खारिज किया है जिसके आधार पर नरेंद्र मोदी को सुधारक के तौर पर खड़ा करने की कोशिश की गयी है. दिवाला और दिवालियापन संहिता को चिदंबरम 2008 में रघुराम राजन की सोच की उपज बताते हैं जिसे लागू कर पाने में अब तक मोदी सरकार नाकाम रही है. वहीं श्रम कानून सुधार को भारत में मजदूरों को असुरक्षित बनाने वाला करार देते हैं.

कृषि कानून में बदलाव पर चिदंबरम सवाल करते हैं कि केवल यही बता दिया जाए कि देश के सबसे बड़े उत्पादक पंजाब और हरियाणा के किसान नाराज़ क्यों हैं. एफडीआई को उदार बनाने के दावों पर लेखक का कहना है कि सत्ता में आने पर ही बीजेपी के रुख में बदलाव आता है अन्यथा बीजेपी ने 1997 में भी इसका विरोध किया था. लेखक का मानना है कि नरेंद्र मोदी का क्रोनी कैपिटलिज्म की ओर जबरदस्त झुकाव है. मगर, आखिरकार कसौटी यही है कि आर्थिक सुधारों से देश की जीडीपी पर क्या फर्क पड़ा.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

स्टीमुलस पैकेज में कंजूसी के पीछे वोट का डर!

टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर लिखते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए स्टीमुलस पैकेज को लेकर मोदी सरकार संकोच दिखा रही है. सरकार को डर है कि राजकोषीय घाटा बढ़ने से मुद्रास्फीति दर बढ़ जाएगी. यही वजह है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने जो हाल में घोषणा की है वह रकम भी जीडीपी का महज आधा प्रतिशत है. अब तक भारत ने जीडीपी का बमुश्किल 2 प्रतिशत ही अर्थव्यवस्था में झोंका है. जबकि, अमेरिका अपनी जीडीपी का 30 प्रतिशत और जापान 40 प्रतिशत तक अर्थव्यवस्था में जान लाने के लिए झोंक चुके हैं.

अय्यर लिखते हैं कि लॉकडाउन के कारण राजस्व वसूली गिर चुकी है. केंद्र और राज्य सरकारों का घाटा जीडीपी का 12 प्रतिशत तक गिर सकता है. खुद जीडीपी में 10 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है. जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात 90 फीसदी के स्तर पर जाता दिख रहा है. भारत दुनिया में अपवाद है जहां मुद्रास्फीति की दर आरबीआई के लक्ष्य 2-6 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 7.4 फीसदी रहा. इसकी वजह खाद्य मुद्रास्फीति रही.

आने वाले समय में लॉकडाउन खुलते हुए यह और बढ़ने वाली है. लॉकडाउन खोलने और बड़े स्टीमुलस पैकेज से ही मुद्रास्फीति को संभाला जा सकता है. भारत को कम से कम जीडीपी का 4 से 5 फीसदी के स्तर पर इस पैकेज को ले जाना चाहिए. आयात कम होने से पता चलता है कि मांग गिर रही है. वहीं एफडीआई का प्रवाह भी भारत की ओर है.

रिजर्व बैंक ने डॉलर की खरीददारी कर इसका भंडार 25 फीसदी बढ़ा लिया है. लेखक का मानना है कि राजनीतिक रूप से बिहार का चुनाव एनडीए जीतने जा रहा है. प.बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुदुचेरी और असम में बीजेपी केवल असम में जीत सकती है. आर्थिक नीतियों का इन चुनावों पर कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा है. इसलिए सरकार को निडर होकर आर्थिक सुधार की ओर बढ़ना चाहिए.

बॉलीवुड इकट्ठा हुआ है मगर किसलिए?

एशियन एज में शोभा डे ने बॉलीवुड के 34 प्रॉडक्शन हाऊस और चार अन्य की ओर से दो मीडिया घरानों के खिलाफ दायर याचिका पर सवाल उठाए हैं. याचिकाकर्ताओं की ओर से दिए गये ताजा बयान का जिक्र भी उन्होंने किया है जिसमें कहा गया है कि याचिका का मकसद खास न्यूज़ चैनल को निशाना बनाना नहीं, बल्कि पूरी मीडिया इंडस्ट्री पर सवाल करना है.

लेखिका पूछती हैं कि यह बात स्पष्ट करने में इतना वक्त क्यों लगा? वह यह भी पूछती हैं कि ऐसे मुकदमों से क्या लोगों की सोच बदल जाएगी? याचिकाकर्ताओं में किसी महिला के नहीं होने का जिक्र करते हुए शोभा डे कहती हैं कि इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के बारे में यह स्थिति स्वयं बहुत कुछ कह जाती है.

लेखिका मीडिया की भी इस बात के लिए आलोचना करती हैं कि इस केस में केवल तीन खान को लेकर फोकस किया गया. मूल बात पर चर्चा नहीं हुई. सवाल केवल अपमान का नहीं है, बल्कि फिल्म के कारोबार पर पड़ते बुरे प्रभाव का भी सवाल है. समान रूप से निरंकुश क्षेत्रीय चैनलों के एंकरों पर चुप्पी पर भी लेखिका सवाल उठाती हैं.

वह पूछती हैं कि बॉलीवुड में हलचल आज हुई, पहले क्यों नहीं हुई? बॉलीवुड को ‘कचरा’ या ‘ड्रग्गी’ पहली बार नहीं कहा गया है. सच है कि सुशांत सिंह राजपूत केस में टेलीविजन कवरेज का स्तर घटिया रहा और कुछ कलाकारों, डायरेक्टर और खास लॉबी के लोगों को फंसाने की कोशिशें हुईं. मगर, लेखिका का सवाल है कि फिल्मी कलाकार की मौत या मौत के बाद उसके गर्लफ्रेंड को फंसाए जाने पर यही आवाज़ क्यों नहीं उठी? यह सही वक्त है जब हर एक बात का सही मूल्यांकन हो.

महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य की चिंता और चुनौती

हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पनिक्कर लिखती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों से देश को जूझना पड़ रहा है. महिलाएं सबसे ज्यादा इसका सामना कर रही हैं. महिलाओं की आमदनी और घूमने-फिरने की आजादी लॉकडाउन ने छीन ली है. सामाजिक और शारीरिक दूरी का विकल्प देश की ज्यादातर महिलाओं के पास नहीं है. अपने-अपने घरों में कैद ये महिलाएं गरीबी के कुएं में गिरने के खतरे से जूझ रही हैं. अब पहले से ज्यादा जिम्मेदारी और काम का बोझ है. साप्ताहिक छुट्टी की सोच तो बहुत दूर की बात है.

लगातार महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं. उन्हें नजरअंदाज करने से लेकर गाली-गलौच और नुकसान पहुंचाने के वाकये बढ़े हैं. संकट की घड़ी में सामुदायिक समर्थन नहीं मिलने से उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है.

पनिक्कर लिखती हैं कि महामारी के बाद की परिस्थिति में महिलाओं को कई तरह की मानसिक बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है. इनमें डिप्रेशन यानी अवसाद से लेकर पैसे छिन जाने का डर शामिल है. सदमे की स्थिति पैदा हो रही है. ऐसा देखा जा रहा है कि महिलाओं में नकारात्मकता आयी है.

ध्यान केंद्रित नहीं होने से लेकर आत्महत्या जैसे ख्याल पैदा हो रहे हैं. जो स्वास्थ्य सुविधाएं नियमित रूप से महिलाओं को मिलनी चाहिए थी वह कोविड महामारी के कारण दूर हुई हैं. गर्भनिरोधक, अबॉर्शन और प्रसव से पहले और बाद में मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं से महिलाएं दूर हुई हैं. सरकार को चाहिए कि पंचायती राज व्यवस्था में इस समस्या का समाधान ढूंढे ताकि महिलाओँ को इस परेशानी से निजात दिलायी जा सके.

पढ़ें ये भी: मंदी के खिलाफ मैच में RBI का ‘बाउंसर’, वित्त मंत्रालय की ‘नो बॉल’

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 18 Oct 2020,08:24 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT