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संडे व्यू: संगठन और सरकार का चेहरा बदलेंगे मोदी-शाह? आर्थिक मोर्चे पर चेतावनी

संडे व्यू में पढ़ें प्रभु चावला, राम माधव, पी चिदंबरम, टीएन नाइनन, टीसीए राघवन के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें नामचीन लेखकों के विचारों का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें नामचीन लेखकों के विचारों का सार

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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बीजेपी और मोदी मंत्रिपरिषद में बदलाव का वक्त

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मोदी सरकार को कैबिनेट और बीजेपी में संगठन बदलने का समय आ गया है. नौ राज्यों में चुनाव को देखते हुए यह काम जल्द हो जाना चाहिए. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का विस्तारित कार्यकाल इसी महीने खत्म हो रहा है. चावला लिखते हैं कि जबसे मोदी ने 2014 में सत्ता संभाली है तब से संरक्षणवाद कमजोर हुआ है. जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उन्हें कैबिनेट में अधिक जगह मिलेगी. जातिगत हिस्सेदारी और कॉरपोरेट का ख्याल भी रखा जाता रहा है लेकिन अब ये पुरानी बातें हो चुकी हैं.

प्रभु चावला लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनीति को बदला है. प्रधानमंत्री क्या करने वाले हैं इसे पकड़ना उतना ही मुश्किल है, जितना शिकार पर ध्यान लगाए शेर की अगली कार्रवाई को. जब वे शांत दिखते हैं तब अधिक आक्रामक फैसले होते हैं. मंत्री के चयन में हर बार राजनीतिक पंडितों को चौंकाया है. कोई सोच सकता था कि वोलिंटियरी रिटायर आईएएस अफसर को वे अपनी कैबिनेट में महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो देकर शामिल करेंगे? एक महिला को रक्षा और वित्तमंत्री या मानव संसाधन मंत्री बनाने की बात भी प्रयोग के तौर पर देखा गया. हर मंत्रालय की नीतियां और प्रशासनिक फेरबदल पीएमओ की निगरानी में होता है.

चावला विश्लेषण करते हैं कि 77 सदस्यों वाले मंत्रिपरिषद में क्षेत्र, समुदाय, लिंग या किसी भी आधार पर कोई पैटर्न खोजना मुश्किल है. नरेंद्र मोदी अपने साथ एक दर्जन मंत्रियों को तब से अपने साथ रखे हुए हैं, जबसे वे प्रधानमंत्री बने हैं. डबल इंजन सरकार का नारा गढ़ने का मकसद भी यही रहा है कि क्षेत्रीय स्तर पर भी नेता और कार्यकर्ता अपने स्थानीय नेताओं की बजाए स्वयं उनके साथ जुड़ा महसूस करे.

अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार और संगठन में बदलाव की जिम्मेदारी एलके आडवाणी पर छोड़ रखी थी. नरेंद्र मोदी ने यह जिम्मेदारी अमित शाह पर छोड़ रखी है. पार्टी के अंदर यह विश्वास मजबूत हुआ है कि मोदी और शाह प्रशासनिक और सांगठनिक बदलाव कर तीसरी बार मोदी सरकार को सत्ता में लाएंगे.

भागवत ने महज आक्रामकता छोड़ने को कहा

राम माधव ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इंटरव्यू को समझने की जरूरत है. अमेरिकी लेखक वाल्टर एंडर्सन को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि आरएसएस को समझना मुश्किल है और नहीं समझना आसान. वे इंटरव्यू का अंग्रेजी वर्जन सामने लाने की वकालत करते हैं ताकि भागवत के बयानों को बेहतर समझा जा सके. आरएसएस लगातार बदलता रहा है. गुरू गोलवलकर से लेकर बाला साहेब देवरस, राजेंद्र सिंह, केएस सुदर्शन और उनके आगे भी संघ में बदलाव आते रहे हैं.

मोहन भागवत ने भी संघ को बदला है. अपने सन 2000 के विचार का जिक्र करते हुए राम माधव ने लिखा है कि एलजीबीटी समुदाय को लेकर संघ की सोच अधिक स्पष्ट हुई है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से होमो सेक्सुअलिटी को अपराध माना जाना गलत साबित हुआ है. संघ एलजीबीटी को बायलॉजिकल घटन मानता है और महाभारत कालीन संदर्भ से स्पष्ट है कि यह तब से है जब से मनुष्य.

राम माधव बदलते डेमोग्राफी की ओर ध्यान दिलाते है. भारत में भी यह चिंता का विषय है. हिन्दू, ईसाई और सिख में टोटल फर्टिलिटी रेट जहां 1.94, 1.88 और 1.61 है वहीं मुस्लिम महिलाओं में यह 2.3 है.

इसके अलावा धर्मांतरण और घुसपैठ से डेमोग्राफी बदल रही है. हिन्दू हजार साल से युद्ध में हैं- मोहन भागवत के इस बयान का बचाव करते हुए राम माधव लिखते हैं कि यूनेस्को का संविधान इसी बात से शुरू होता है कि मनुष्य के दिमाग से युद्ध की शुरुआत होती है. यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि भारत को विभिन्न किस्म के राजनीतिक और धार्मिक आक्रामकता झेलने को मजबूर किया जाता रहा है. मोहन भागवत ने महज आक्रामकता छोड़ने की बात कही है. इस विचार को छोड़ना होगा कि हम दूसरों के साथ नहीं रह सकते. राम माधव लिखते हैं कि वास्तव में गांधी और नेहरू दोनों ने यही बातें भारतीय मुसलमानों से बारंबार कही हैं.

जोशी मठ से आगे

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि जोशीमठ के हालात के बारे में सामने आयी मीडिया खबरों में उचित ही कहा गया है कि अतीत में इससे संबंधित चेतावनियों की अनदेखी की गयी. वनों की जमकर हुई कटाई के कारण हिमालय के एक हिस्से में भूस्खलन का खतरा पहले से मौजूद है. महत्वाकांक्षी रेल, सड़क, जलविद्युत परियोजनाओं व अन्य परियोजनाओं के कारण पर्यावरण को हुई क्षति के बारे में भी उचित ही बातें कही गयी हैं.

कुल मिलाकर जतायी जा रही चिंता को दूर करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. इसके बावजूद जीडीपी और हरित जीडीपी का अंतर तेजी से कम हो रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक के बुलिटिन में प्रकाशित यह तथ्य चौंकाने वाला जरूर है लेकिन इसके लिए दर्शाए गये आधारों पर भी ध्यान देना जरूरी है.

नवीकरणीय ऊर्जा को महत्वाकांक्षी गति, जीडीपी की प्रति यूनिट के हिसाब से घटी भौतिक खपत, एलईडी बल्ब और ऊर्जा खपत वाली गतिविधियों में अनिवार्य ऊर्जा अकंकेष्ण जैसी गतिविधियों की बदौलत कम ऊर्जा घनत्व हासिल करना, ठोस कचरा प्रबंधन, नमामि गंगे परियोजना आदि के कारण हरित जीडीपी की स्थिति बेहतर हुई है.

अहम सवाल यह है कि क्या हरित जीडीपी यह भी दर्शाता है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों के साथ क्या हो रहा है? जोशीमठ के आसपास के इलाको में फिलहाल विनिर्माण गतिविधियां बंद हैं. लेकिन, क्या भविष्य मे ऐसी घटनाओं का दोहराव रोका जा सकेगा? हिमालय तथा अन्य इलाकों में पर्यावरण को पहुंच रही क्षति को लेकर दी जा रही चेतावनियों की अनदेखी के परिणामों से कैसे बचा जाएगा? क्या पानी की खपत वाली धान, गन्ना जैसी फसले हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे पानी की कमी वाले इलाकों में उगाई जानी चाहिए? भूजल का दोहन रोकने और कम पानी की खपत को लेकर क्या किसानों को समझाया जा सकेगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका उत्तर पाना जरूरी रहेगा.
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आर्थिक मोर्चे पर साल की पहली चेतावनी

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने प्रथम अग्रिम अनुमान (एफएई) को प्रकाशित करने की स्वस्थ परंपरा शुरू की थी, जो अब खत्म होती दिख रही है. 6 जनवरी को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर एनएसओ ने जो कुछ बताया है उसका सबब जानना जरूरी है. जीडीपी (15.4 फीसद), बजट अनुमान (11.1 फीसद) जैसे उत्साहवर्धक आंकड़े हैं जिससे 6.4 फीसद राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को हासिल करना आसान हो जाएगा. वित्त वर्ष 2022-23 में विकास को प्रेरित करने का जो कारक लग रहा है, वह है निजी उपभोग जो जीडीपी का 57.2 फीसद रहने वाला है. हालांकि आगे निजी उपभोग पर स्थिर मुद्रास्फीति और उच्च बेरोजगारी की मार पड़ेगी. विकास के अन्य कारक सपाट हैं जैसे सरकारी व्यय (जीपी का 10.3 फीसद) और निर्यात (22.7 फीसद).

चिदंबरम लिखते हैं कि आयात चिंता का विषय है जो 27.4 फीसदी रहने वाला है. 2020-21 में यह 19.1 फीसद था और 2021-22 में 23.9 फीसदी से तेज उछाल का द्योतक है. उच्च निर्यात के बिना उच्च आयात का मतलब है कि हम उपभोग के लिए आयात कर रहे हैं. इससे रुपया कमजोर हो सकता है और चालू खाता बढ़ सकता है जिसका असर पूंजी पलायन के तौर पर देखने को मिल सकता है. चिदंबरम ध्यान दिलाते हैं कि खनन एवं उत्खनन (2.4 फीसदी वृद्धि) और विनिर्माण (1.6 फीसदी वृद्धि) निराशाजनक हैं. निर्माण 9.1 फीसदी की दर से बढ़ेगा लेकिन यह 2021-22 में दर्ज 11.5 फीसदी की तुलना में गिरावट वाला रहेगा. रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्र कृषि, खनन और उत्खनन, विनिर्माण और व्यापार, होटल, परिवहन, संचार आदि हैं. बढ़ती बेरोजगारी के अतर्निहित कारण इन्हीं क्षेत्रों में हैं. उच्च मुद्रा स्फीति आर्थिक संकट को बढ़ाएगी. खाद्य वस्तुओं का थोक मूल्य सूचकांक 9.6 फीसद, विनिर्मित उत्पादों का 7.6 फीसद और सभी वस्तुओं का 12.3 फीसद रहेगा. ऐसे में अब 1 फरवरी का इंतजार है.

लड़ाई गैर बराबरी की

टीसीए राघवन ने टेलीग्राफ में लिखा है कि उन्होंने 2022 के अंतिम दिन श्रीरंगापट्टनम में बिताए जो टीपू सुल्तान का आखिरी पड़ाव था, जहां एक भारतीय राज्य और भारत में विस्तारित अंग्रेजी राज्य के बीच टक्कर हुई थी. रूस-यूक्रेन संघर्ष से अधिक लेखक को 1799 का श्रीरंगापट्टनम में लड़ा गया युद्ध रोचक लगा. दिल्ली आर्ट गैलरी में जो हालिया प्रदर्शनी लगायी गयी उसमें टीपू सुल्तान को बिल्कुल नये नजरिए से पेश किया गया. हालांकि पहले भी अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू को इंग्लैंड और फ्रांस के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदंविता के व्यापक कैनवास पर देखने की कोशिश की थी.

तीसरा आंग्ल मैसूर युद्ध 1792 में हुआ था और इसमें लार्ड कार्नवालिस को मिली जीत उस घाव पर मरहम के समान था जो उसके नेतृत्व में इंग्लैंड को 1781 में अमेरिकी उपनिवेशो में स्वातंत्र्य वीरों की ओर से मिली थी. यदुनाथ सरकार ने 1799 के युद्ध के बारे में लिखा था कि शेर के पंजे और दांत 1781 में ही तोड़ दिए गये थे. फ्रांस के खतरे को देखते हुए टीपू की पराजय इंग्लैंड के लिए कोई साधारण घटना नहीं थी. आज के दौर में पश्चिम के भविष्य को लेकर बेचैनी है. चीन की आक्रामकता और अमेरिकी निष्क्रियता अलग बेचैनी की वजह हैं. 2021 में पराजय के बाद डोनाल्ड ट्रंप समर्थकों का उत्पात या उनकी बगावत महत्वपूर्ण घटना थी. ‘वेस्ट बनाम रेस्ट’ की सोच भी आगे बढ़ायी जा रही थी. लेखक का मानना है कि किसी नये ‘म्यूनिख 1938’ को पैदा होने से रोकना होगा जिसने विस्तारवाद के सिद्धांत को आगे बढ़ाया.

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