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संडे व्यू: बीबीसी पर बैन से किसको नुकसान? बनी नहीं बिगड़ गयी मोदी की छवि

Sunday View: पढ़ें आज एके भट्टाचार्य, मार्क टुली, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, करन थापर के विचारों का सार.

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भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे  आर्टिकल का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे आर्टिकल का सार

(फोटो: क्विंट)

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आम बजट: राज्यों ने केंद्र का काम आसान बनाया

बिजनेस स्टैंडर्ड में एके भट्टाचार्य ने लिखा है कि पहली बार 2012-13 में केंद्र सरकार का बजट सभी राज्यों के संयुक्त व्यय से अधिक हुआ था. तब से सरकार के कुल व्यय में राज्यों का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है. 2019-20 तक यह 55 फीसदी हो गया. कोरोना काल में 2020-21 में यह क्रम टूटा था, जब राज्यों का व्यय 34 लाख करोड़ रुपये के करीब था. जबकि केंद्र का बजट 35 लाख करोड़ से थोड़ा कम था. दोबारा राज्यों ने बढ़त ले ली है. कुल सरकारी व्यय में राज्यों की हिस्सेदारी 51 फीसदी हो चुकी है. 2022-23 में इसके बढ़कर 53 से 55 फीसदी हो जाने की उम्मीद है.

एके भट्टाचार्य लिखते हैं कि राजकोषीय मोर्चे पर राज्यों ने केंद्र से बेहतर प्रदर्शन किया है. 2019-20 में केंद्र का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.6 फीसदी था, जबकि राज्यों का घाटा 2.6 फीसदी. इस तरह कुल सरकारी घाटा 7.2 फीसदी के बराबर था. 2020-21 में यह बढ़कर 13.3 फीसदी हो गया. इसमें राज्यों की हिस्सेदारी 4.1 फीसदी थी. 2021-22 में सरकारी घाटा घटा. यह 9.5 फीसदी रह गया, जिसमें राज्यों की हिस्सेदारी 2.8 फीसदी थी. जाहिर है राज्यों ने अपने घाटे को 3 फीसदी के लक्ष्य के दायरे में ला दिया है.

अनुमानों के मुताबिक चालू वर्ष में भी राज्यों का घाटा जीडीपी का 2.3 से 2.5 फीसदी के बीच रह सकता है. जीएसटी के कलेक्शन में सुधार और इसमें राज्यों की बढ़ी हिस्सेदारी भी एक वजह है. राजकोषीय घाटा कम होने से राज्य सरकारें बाजार से कम उधारी लेंगे, बॉन्ड बाजार अपेक्षाकृत स्थिर रहेगा और केंद्र के लिए भी उधारी योजना बनाने में सहूलियत होगी. केंद्र के लिए सरकारी घाटे के प्रबंधन में सहूलियत होगी.

बीबीसी पर प्रतिबंध से नुकसान किसको?

मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि दो हिस्सों में दिखायी गयी डॉक्यूमेंट्री के कारण बीबीसी इन दिनों मुसीबत में है. मगर, विवाद पहले भी होते रहे हैं, जिनका हिस्सा स्वयं लेखक मार्क टुली रहे थे. 1969 में फ्रेंच फिल्म डायरेक्टर लुईस माले की सीरीज ओआरटीएफ को लेकर भारतीय अधिकारियों ने समझा कि इससे भारत की छवि खराब होगी क्योंकि इसमें गरीबी का चित्रण है. सीरीज रोकने को कहा गया. बीबीसी तैयार नहीं हुआ. नतीजा यह हुआ कि 1971 के भारत-बांग्लादेश युद्ध के दौरान बीबीसी भारत में बगैर दफ्तर के रहा. यह भारत के लिए आदर्श स्थिति कतई नहीं थी.

चार साल बाद आपातकाल के दौरान विदेशी पत्रकारों ने सरकारी नियमों को मानने से इनकार किया तो उन्हें बैरंग वापस जाना पड़ा. तब लंदन में भारतीय मूल के स्वराज पाल ने इंदिरा गांधी को विदेशी मीडिया की अहमियत समझायी तो भारत के सूचना मंत्री लंदन गये. वे इतने आक्रामक थे कि बीबीसी ने प्रतिनिधिमंडल वापस बुला लिया. हालांकि जल्द ही आपातकाल वापस ले लिया गया जिसके बाद लेखक भारत लौट सके.

मार्क टुली लिखते हैं कि एससी और एसटी के लिए फिल्म बनाने को लेकर भी बमुश्किल अनुमति मिल पायी थी. हिन्दी अखबारों ने इस बारे में कुप्रचार किया. फिर गंगा की सफाई को लेकर भी फिल्म बनी. आपत्तियों के बीच इसका नाम थेम्सवाला रखा गया. ‘द पायलट प्राइम मिनिस्टर’ के नाम से राजीव गांधी पर बनी फिल्म को लेकर भी विवाद हुआ. माफी मांगने को राजी होने पर बीबीसी के चेयरमैन मारमदुके हसी का भारत दौरा हुआ. ताजा मामले में भारत को समझने की जरूरत है कि बीबीसी उपनिवेशवादी नहीं, पत्रकारों का संगठन है और करोड़ों भारतीय बीबीसी देखते और सुनते हैं.

बनी नहीं बिगड़ गयी मोदी की छवि

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वक्त आ गया है जब प्रधानमंत्री अपना मीडिया प्रबंधन संभाल रहे लोगों को तत्काल बर्खास्त करें. बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाने से वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इतना बड़ा नुकसान हुआ है, जितना नुकसान उनके विरोधी भी नहीं कर सके थे. जेएनयू, जामिया, जादवपुर तक छात्रों ने इंटरनेट से डाउनलोड कर इस डॉक्यूमेंट्री को देखा है और प्रतिबंध का विरोध किया है.

डॉक्यूमेंट्री के दोनों हिस्से देखने के बाद तवलीन सिंह लिखती हैं कि इसमें एक इंटरव्यू में नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हें तकलीफ इसलिए हुई क्योंकि उन्होंने मीडिया को मैनेज नहीं किया. लगभग यही बात पीएम मोदी ने लेखिका से भी 2016 में तब कही थी जब वह अपनी एक किताब लेकर उनके पास गयी थीं.

तब लेखिका ने प्रधानमंत्री को सुझाव दिया था कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रवक्ता की तरह रोज खुलकर पत्रकार वार्ता हो. अगर इस पर अमल किया जाता तो बीबीसी डॉक्यूमेंट्री को लेकर जो तमाशा हुआ है वह नहीं होता. मीडिया को मैनेज करना भी मुश्किल नहीं होता. सिर्फ भक्तों को प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने जैसे कदमों से मीडिया ‘मैनेज’ नहीं होता. मीडिया से इतनी दूरी है कि नरेंद्र मोदी कि उन्होंने कभी प्रेस वार्ता तक नहीं बुलाई. 2002 दंगे के बाद जो दाग नरेंद्र मोदी पर चस्पां हुआ था और जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से धुल गया था, वह फिर से दिखने लगा है.

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संदेश देने में राहुल सफल

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि इस बात पर यकीन करना मुश्किल होगा कि एक राजनीतिक नेता बिना किसी राजनीतिक मकसद के मार्च भी कर सकता है. आदि शंकराचार्य (700 ईस्वी, विवादित), माओत्से तुंग (1934-35, सैन्य), महात्मा गांधी (1930, सविनय अवज्ञा) और मार्टिन लूथर किंग (1963, 1965, नागरिक अधिकार) उदाहरण हैं. 29 जनवरी 2023 को यह यात्रा चार हजार किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी है. राजनीतिक धारणा चाहे जो हो लेकिन इस बात पर विवाद नहीं हो सकता कि यह यात्रा धैर्य, दृढ़ संकल्प और शारीरिक सहनशक्ति का अद्वितीय प्रदर्शन रही है.

चिदंबरम लिखते हैं कि करीने से ‘राजनीतिक’ या ‘चुनावी’ बताकर राहुल की यात्रा को प्रचारित करने की कोशिश की गयी. यहां तक कि इस यात्रा को कोरोना वायरस के प्रसार में खतरा के तौर पर भी प्रचारित किया गया. मगर, राहुल गांधी विचलित नहीं हुए. व्यापक गरीबी और बेरोजगारी, महंगाई के बोझ से कराहती जनता, सक्रिय नफरती तत्व और विभाजित भारतीय समाज को लेकर राहुल गांधी का विश्वास मजबूत हुआ है.

यात्रा में गरीबों की उपस्थिति ने लेखक को सबसे ज्यादा प्रभावित किया. वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2022 के अनुसार भारत में 16 प्रतिशत आबादी गरीब है. मतलब यह कि 22.4 करोड़ लोग गरीब हैं. 1286 रुपये प्रति माह शहरो में और 1089 रुपये प्रति माह गांवों में आमदनी के दयनीय आधारों पर यह संख्या है. लेखक बताते हैं कि ‘सबका साथ सबका विकास’ के बावजूद बीजेपी ने सुनियोजित तरीके से अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा से बाहर कर दिया है. अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं. ऐसे में राहुल गांधी का मिशन निश्चित रूप से संदेश देने में सफल है.

मैकाले की अंग्रेजी ने बनाया भारत को लीडर

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि क्रिसमस और नये साल की छुट्टियों में पुस्तकें पढ़ने के शौक को उन्होंने जगाया. कोरोना काल में जमा हो गयी किताबों को पढ़ना शुरू किया. उन्हीं में से तीन का जिक्र करना उन्होंने जरूरी समझा. इनमें से एक है जरीन मसानी की पुस्तक थॉमस मैकाले. वह लिखती हैं कि इस पुस्तक को आप पढ़ रहे हैं क्योंकि इसका नाम थॉमस मैकाले है.

मैकाले के शब्दों में उन्होंने तैयार किया, “लोगों का एक ऐसा वर्ग जो खून और रंग में तो भारतीय है लेकिन स्वाद, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज.” मैकाले ने इंडियन पीनल कोड हमें दिया. पेशेवर भारतीय सिविल सेवाओं का यही आधार बना. मैकाले निश्चित रूप से आधुनिक भारत के पायोनियर हैं जिनके कारण आज भारत दुनिया भर में अंग्रेजी की ताकत से लैस होकर आईटी और दूसरे क्षेत्रों में नेतृत्वकर्ता बना हुआ है.

करन थापर ने दूसरी जिस किताब का जिक्र किया है वह आर्थर हरमन की ‘गांधी और चर्चिल’ है. पढ़कर हैरानी हुई कि दोनों ने एक-दूसरे को कितना प्रभावित किया. पता चलता है कि लेखक ने दोनों हस्तियों को कितनी गहराई से समझा. रिसर्च की भूमिका भी स्पष्ट दिखती है. तीसरी किताब थोड़ी अलग है. इसकी तस्वीरों के साथ आप घंटों बिता सकते हैं. पुस्तक का नाम है- ‘डाइनिंग विद महाराजाज’. शाही व्यंजन की यह किताब है जो आपको एक कुक बनने को प्रेरित करती है. महाराजा और उनकी रानियों के भोजन के शौक को समझने और उस हिसाब से व्यंजन तैयार करने के रहस्य का खुलासा करती है यह पुस्तक. लेखक ने इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद तय किया है कि वह आगे भी पुस्तक जमा करने और पढ़ने का यह सिलसिला जारी रखेंगे.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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