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संडे व्यू: अब नेता बन गये राहुल,आर्थिक विकास पर आशावाद ही रास्ता

पढ़ें तवलीन सिंह, टीएन नाइनन, मुकुल केसवान, पी चिदंबरम, चैती नरूला के विचारों का सार.

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भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल

(फोटो: Altered by Quint)

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अब राजनेता बन गये हैं राहुल गांधी!

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नये साल में नयी चीज देखने को मिली कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को लेकर बीजेपी के प्रवक्ता परेशान से दिखे. राहुल को ‘52 साल का बच्चा’ और ‘पप्पू’ बुलाने वाले ये नेता राहुल की यात्रा को लेकर गंभीर नजर आने लगे हैं. वे कहने लगे हैं कि राहुल की यात्रा में दिख रहे लोग क्या राहुल गांधी को वोट भी देंगे? इसका मतलब यह है कि अब राहुल गांधी उनके लिए सिर्फ ‘पप्पू’ नहीं रहे. वे राजनेता बन गये हैं और 2024 में नरेंद्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी बन सकते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि कांग्रेस ही एक ऐसा राजनीतिक दल है विपक्ष में, जिसमें परिवारवाद के रोग के बावजूद पार्टी के राजनीतिक ढांचे को कायम रखा गया है. अगर कांग्रेसे की जमीनी संस्था थोड़ी-बहुत जीवित न होती तो इस यात्रा को इतनी दूर तक लाना मुश्किल होता. जब भारत जोड़ो यात्रा शुरू हुई थी तब मोदी भक्तों ने खूब मजाक उड़ाया था कि राहुल गांधी बीच में निकल कर विदेश भाग जाएंगे. मगर, राहुल गांधी लगातार देश में बने रहे. देश में दरार की बात लगातार कहते रहे.

तवलीन लिखती हैं कि बीते हफ्ते बजरंग दल के सदस्यों ने सिनेमा घरों में जाकर शाहरुख खान की फिल्म पठान के पस्टर फाड़े. शाहरुख खान अगर हिंदू अभिनेता होते तो क्या इस तरह हमेशा निशाने पर रहते? यूपी में गोरक्षकों ने ऐसा आतंक फैलाया है कि यहां  न पशुपालन संभव है और न मांस व्यापार. इन क्षेत्रों में मुसलमान काम करते आए हैं. ऊपर से जब कभी दंगा-फसाद हुआ है तो सारा दोष मुस्लिम समाज पर थोपा गया है और इस बहाने बुलडोजर न्याय की प्रक्रिया शुरू की गयी है. तवलीन सिंह लिखती हैं कि राहुल गांधी का राजनीतिक संदेश जितना सही है उतना सही आर्थिक संदश सही नहीं है. वे केवल अंबानी-अडानी को गालियां देते आए हैं जो बचकाना है.

 

आशावाद ही रास्ता

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि आर्थिक वृद्धि दर (Indian Growth Rate) के सरकारी दावे लगातार गलत साबित हुए हैं. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही दो अंकों की वृद्धि के दावे किए गये थे. यहां तक कि 2019-20 में भी तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार ने 7 फीसदी की वृद्धि दर का अनुमान लगाया था लेकिन वर्ष का समापन 4 फीसदी की वृद्धि दर के साथ हुआ. भारतीय अर्थव्यवस्था 5 लाख करोड़ डॉलर का आंकड़ा भी नहीं छू सकी. लक्ष्य 2022-23 से आगे बढ़कर 2026-27 हो चुका है. फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 3.47 लाख करोड़ डॉलर है.

नाइनन लिखते हैं कि 2022 में अमेरिकी मुद्रा स्फीति की दर 7 फीसदी थी और इसकी तुलना में रुपये में 11 फीसदी की गिरवट आयी. ऐसे में इस वर्ष भारत की आर्थिक वृद्धि दर 7 फीसदी से कम रह सकती है. वर्तमान मुख्य आर्थिक सलाहकार ने दशक के बाकी वर्षों के लिए 6.5 फीसदी की सतत वृद्धि दर का अनुमान लगाया है. यह हकीकत के करीब है. 1992-93 से 2019-20 तक 28 साल में 6.5 फीसदी की वृद्धि दर भारत हासल कर चुका है.

बचत और निवेश दरों में आयी कमी चिंता का विषय है. अगर इसमें सुधार होता तो भारत निरंतर 7 फीसदी की विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा होता. शिक्षा दूसरी बाधा है. वियतनाम जैसे देश ज्ञान और कौशल में भारत से आगे है. वहां टैरिफ कम और कारोबारी माहौल बेहतर है. भारत में टैरिफ दरें ज्यादा हैं और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों से भी भारत बाहर है. इस कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार से मिलने वाली अपेक्षित गति से भारत वंचित है.

नोटबंदी फेल पर अदालत में सरकार पास

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नोटबंदी (Note Ban) के मामले में केंद्र सरकार कानूनी लड़ाई जीत गयी है. छह सवालों के आईने में चिदंबरम ने कहा है कि नोटबंदी के मकसद पर चर्चा जारी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस सवाल की गहराई में जाने के लिए उसके पास विशेषज्ञता नहीं है कि नोटबंदी के लक्ष्यों को हासिल कर लिया गया है या नहीं. इसके अलावा कुछ नागरिकों को हुई परेशानी इस बात का आधार नहीं हो सकता कि निर्णय कानूनन बुरा था.

1946 और 1978 में अध्यादेश के जरिए नोटबंदी के उदाहरणों से पी चिदंबरम ने कहा है कि तब रिजर्व बैंक के गवर्नर की असहमति के बीच संसद ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया था. यही बात 8 नवंबर 2016 में भी संभव हो सकती थी. नोटबंदी में संसद की कोई भूमिका नहीं रही. इसलिए नोटबंदी के दुष्परिणामों के लिए जनप्रतिनिधियों को दोष नहीं दिया जा सकता. 2016 में नकदी का चलन सत्र लाख बीस हजार करोड़ रुपये थी, जो 2022 में बढ़कर बत्तीस लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गयी.

कालाधन, जाली नोट, आतंकवाद जैसी समस्याएं जस की तस बरकरार हैं. नोटबंदी के बाद से देश की आर्थिक विकास दर लगातार गिरती चली गयी है. कानूनी बहस में सरकार की व्यापक रूप से जीत हुई है. राजनीतिक तौर पर बहस खत्म नहीं हुई है और संसद को यह बहस करनी चाहिए. आर्थिक दलीलों पर देखें तो सरकार काफी पहले हार चुकी है लेकिन इसे वह मानेगी नहीं.

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हवा में असुरक्षित यात्री

चैती नरूला ने इंडिया टुडे में लिखा है कि एअर इंडिया फ्लाइट (Air India Flight Urine Incident) में साथी पैसेंजर पर पेशाब करने की घटना ने चौंका दिया है. 6 दिसंबर को घटी घटना पर जनवरी में प्रतिक्रिया हो रही है. इस दौरान लिखित शिकायतों पर एअर इंडिया का रुख हैरान करनेवाला है. एक अन्य घटना 26 नवंबर को न्यूयॉर्क-दिल्ली फ्लाइट के दौरान हुई थी. पेरिस-दिल्ली फ्लाइट में भी मारपीट की घटना का वीडियो सामने आया था. ये तमाम घटनाएं हफ्तों बाद दुनिया के सामने आयी और तब तक एअरलाइन्स के अधिकारी कोई कार्रवाई करने में असमर्थ रहे. इससे पता चलता है कि हजारों फीट की ऊंचाई पर यात्री कितने असुरक्षित हैं. ऐसी घटनाओं से निबटने के लिए क्रू मेम्बर्स के पास कोई तरीका नहीं है और प्रशासन इस पर पर्याप्त रूप से सक्रिय नहीं है.

चैती नरूला सवाल उठी हैं कि एअर इंडिया केबिन क्रू कुनाल कामरा को साथी पैसेंजेर के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए 6 महीने तक प्रतिबंध लगा देता है लेकिन 70 साल की साथी पैसेंजर पर पेशान करने वाले यात्री पर कार्रवाई करने से बचता रहता है. ऐस् क्यों? केबिन क्रू के मेम्बर सिर्फ सैंडविच और अल्कोहल परोसने के लिए नहीं होते.

डीजीसीए की भूमिका भी नोटिस जारी करने तक सिमट कर रह गयी है. कई घटनाओं के माध्यम से चैती लिखती हैं कि केबिन क्रू के सदस्य घटनाओं पर प्रतिक्रियाविहीन बने रहते हैं. ऐसी कई धारणा है कि भारतीय पैसेंजर बुरे होते हैं या फिर भारती क्रू मेंबर. मगर, ऐसा नहीं है. विदेशी एअरलाइन्स के क्रू मेंबर पैसेंजरों के प्रति लापरवाह अधिक नजर आते हैं और विदेशी पैसेंजेर भी भारतीयों के मुकाबले अधिक असभ्य व्यवहार करते दिखते हैं. इन घटनाओं का वास्तव में राष्ट्रीयता से कोई संबंध नहीं होता. यह समय है जब एअरलाइंस इस बात को समझे कि क्रू ड्यूटी बेसिक सुरक्षा से कहीं अधिक व्यापक है.

ट्विटराती टाइम्स

टेलीग्राफ में मुकुल केसवान ने ट्विटर को अपने तरीके से एलन मस्क के हांकने से जुड़ी बातों को लेकर पूरे सोशल मीडिया की मीमांसा कर दी है. ट्विटर पर ब्लू टिक होने की अहमियत का पता भी चला है. अपने ही नाम के अनेकानेक ट्विटर हैंडल के बीच ब्लू टिक ही पहचान दिलाता है. फेसबुक से पहले फेसबुक फ्रैंड और फॉलोअर्स के बारे में पता नहीं था. मी टू के दौर वाले रहस्योद्घाटनों ने भी इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की जरूरत को रेखांकित किया है.

ऑनलाइन संसाधनों के उपयोग को लेकर पीढ़ियों का अंतर साफ नजर आता है. लेखक याद करते हैं जब वे 1996 में वीएसएनएल की ओर से उपलब्ध कराए गये ई-मेल से चौंके थे. बाद में ई मेल उन्हें तथ्यों को संग्रह करने का अच्छा माध्यम लगने लगा. आज इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म नयी पीढ़ी के लोगों की दिनचर्या में शुमार हैं. हम आज भी मोबाइल पर परंपरागत तरीके से खेल पन्ना और फिर खबरें और वक्त मिला तो लेख पढ़ने की दिनचर्या में व्यस्त हैं.

जबकि वहीं वे सारे लिंक मौजूद हैं जो हमें सोशल मीडिया की ओर खींचकर ले जा सकते हैं. जब कभी भी लेखक ट्विटर पर दिलचस्प थ्रेड पढ़ते हैं तो उन्हें यह अधूरा लगता है. मगर, आधुनिक युग में ऐसा नहीं है. इन सब कारणों से ही ट्विटर का एलन मस्क के हाथों टेक ओवर करने को स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है.

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