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देश लॉकडाउन से आजाद हो रहा है. सीबीएसई ने 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं घोषित कर दीं. वहीं 12 मई के बाद से पूरे हफ्ते कोरोना पैकेज की घोषणाएं होती रहीं जो अर्थव्यवस्था के खुलने, फिर से खड़ा होने और लॉकडाउन की ‘काली छाया’ से निकलने का एलान अधिक लगीं. लॉकडाउन से आज़ादी का अहसास तो उसी दिन करा दिया गया था जब केंद्र सरकार ने मई महीने की शुरुआत में ही शराब की बिक्री को हरी झंडी दे दी थी और प्रवासी मजदूरों को लेकर ‘जो जहां है वही रहें’ की नीति को पलट दिया.
डेढ़ महीने बाद बच्चों की परीक्षाएं ली जा सकती हैं. इतना आश्वस्त सरकार तब दिख रही है जब कोरोना मरीजों की संख्या में सबसे बड़ा 5 हजार से ज्यादा का उछाल सामने है. 571 कोरोना मरीज होने पर लॉकडाउन हो चुका देश आज एक लाख के आंकड़े के करीब पहुंच कर भी निडर कैसे हो गया है? क्या देश को लॉकडाउन में डालते समय कोरोना का डर गलत था या कि आज कोरोना के डर को नकारने वाली निडरता गलत है! दो में से कोई एक तो जरूर गलत है!
मजदूर वर्ग ने कोरोना काल में सबसे बड़ी कुर्बानी दी है. ट्रेन से कटे, सड़क पर मरे, लाठियों से पिटे, सीमेंट क्रशर गाडियों में बंद हुए, मगर वे अपनी सोच पर अडिग रहे. गाजियाबाद के रामलीला मैदान में 18 मई को ट्रेन टिकट के लिए खड़ी हजारों की भीड़ बताती है कि उसे कोरोना से डर नहीं लगता. सोशल डिस्टेंसिंग मजदूर वर्ग की जरूरत नहीं है. उसकी जरूरत है पेट! इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है.
‘जान है तो जहान है’ का नारा तो मजदूरों ने पहले ही ‘जान भी जहान भी’ में बदलवा लिया था. फिर भी यह वर्ग अपने लिए अभिजात्य सोच के अभिशाप से आजाद नहीं हो सका. ओडिशा हाईकोर्ट ने तो बगैर टेस्टिंग के मजदूरों को घर लौटने देने से ही मना कर दिया. सुप्रीम कोर्ट भी पैदल घिसटते मजदूरों को रोकने के लिए कोई निर्देश नहीं दे पाया. मगर, मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब तलब कर मजदूर वर्ग को नाउम्मीद होने से जरूर बचाया. आखिरकार 12 मई आते-आते कोरोना को लेकर केंद्र सरकार की सोच बदल गयी.
पहले लॉकडाउन के समय 18 दिन के महाभारत के बजाए 21 दिन के लॉकडाउन से कोरोना को परास्त कर देने वाला स्वर अब बदलचुका है. पीएम मोदी को यह कहना पड़ा है, “सभी एक्सपर्ट्स बताते हैं, साइंटिस्ट बताते हैं कि कोरोना लंबे समय तक हमारे जीवन का हिस्सा बना रहेगा.”
स्वास्थ्य मंत्रालय का रोजाना कोरोना बुलेटिन बंद हो चुका है. कन्फर्म केस वाले मोटे और तगड़ी हेडलाइन ब्रेकिंग न्यूज चैनलों से गायब हो चुकी हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय समेत भारत सरकार की तमाम वेबसाइट पर कोरोना की जानकारी देने वाले आंकड़ों में अब सिर्फ एक्टिव केस, रिकवरी, डेथ के कॉलम रह गये हैं. सरकारी मंसूबे पढ़ने और उसे आगे बढ़ाने में माहिर हो चुकी टीवी मीडिया की स्क्रीन पर भी उसी हिसाब से बदलाव दिख रहे हैं.
18 मई को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने टेस्टिंग के लिए नयी गाइडलाइन्स जारी की है. इसके अनुसार 7 किस्म के लोगों की ही टेस्टिंग की जाएगी. बगैर लक्षण वाले लोगों की टेस्टिंग तभी होगी जब वह किसी कोरोना पॉजिटिव मरीज से जुड़ी चेन में होगा. ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया गया है जब खुद आईसीएमआर के मुताबिक देश के कुल कोरोना मरीजों में 80 फीसदी बगैर लक्षण वाले मरीज हैं. टेस्टिंग के इस नये गाइडलाइन्स के बाद टेस्टिंग की संख्या में कमी आएगी. यह ख़तरनाक बात है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन से ठीक एक दिन पहले वैज्ञानिकों के हवाले से ही यह बात कही थी कि ऐसा भी हो सकता है कि कोरोना खत्म हो ही नहीं. मगर, डब्ल्यूएचओ ने अपनी टेस्टिंग, टेस्टिंग, टेस्टिंग वाली नीति में कोई बदलाव नहीं किया है. दुनिया में कोरोना से लड़ने का अब तक यही तरीका मान्य है कि अधिक से अधिक टेस्टिंग हो और इसके जरिए कोरोना मरीजों की पहचान की जाए. उनसे जरूरी दूरी बनायी जाए और संक्रमण के चेन को तोड़ा जाए.
कोरोना अगर हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर रहने वाला है तो क्या हम कोरोना से लड़ाई छोड़ देंगे? इस सवाल का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन में भी मिलता है, “हम ऐसा भी नहीं होने दे सकते कि हमारी जिंदगी सिर्फ कोरोना के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह जाए. हम मास्क पहनेंगे, दो गज की दूरी का पालन करेंगे लेकिन अपने लक्ष्यों को दूर नहीं होने देंगे.”
लॉकडाउन की राह पर चलते वक्त भी प्रातीय सरकारों से नहीं पूछा गया था और एक बार फिर देशव्यापी लॉकडाउन की राह से हटते हुए भी प्रांतीय सरकारों से राय नहीं ली गयी है. प्रांतीय
सरकारें बॉर्डर पर मजदूरों की आवाजाही को लेकर लड़ने में व्यस्त हैं. समन्वय की कमी साफ दिख रही है. ऐसे में अगर कोरोना को लेकर टेस्टिंग नीति में बदलाव और उसके बाद हवाई जहाज आदि खोलने का एकतरफा फैसला लिया जाता है तो इसके नतीजों की जिम्मेदारी किसकी होगी?
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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