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पिछले साल जब नरेंद्र मोदी सरकार ने दो कृषि कानूनों को असंवैधानिक रूप से पारित किया और एक में संशोधन किया तब किसानों में व्यापक आक्रोश पैदा हुआ. यह आक्रोश ज्यादातर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों के किसानों में देखने मिला.पंजाब में किसान संघ इन नियमों के पारित होने के तुरंत बाद लामबंद हुए और विरोध करना शुरू कर दिया. इसके बाद अन्य राज्यों के कई किसान संघ उनके साथ जुड़ते चले गए.
पंजाब के किसानों ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के नेताओं के घरों पर कई विरोध प्रदर्शन, रेल रोको कार्यक्रम किए और धरना दिया. किसानों ने पिछले साल नवंबर में दिल्ली की सीमाओं की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था. पंजाब के प्रदर्शनकारियों को हरियाणा के शंभू बॉर्डर पर रोका गया, लेकिन हरियाणा पुलिस के साथ हुए संघर्ष के बाद वे सिंघु में दिल्ली की सीमा पर पहुंच गए.
उन्होंने 26 नवंबर को दिल्ली-सोनीपत-चंडीगढ़ हाईवे पर सिंघु बॉर्डर पर डेरा डालना शुरू किया. पंजाब के मालवा जिले और हरियाणा के कुछ हिस्सों से किसानों ने दो दिन बाद आकर टिकरी बॉर्डर (पंजाब की ओर दिल्ली-रोहतक हाईवे) पर कब्जा कर लिया.कुछ ही समय में, शाहजहाँपुर-खेड़ा, पलवल, ढांसा, गाजीपुर और चिल्ला सहित कई अन्य मोर्चे (बॉर्डर्स) उभरे. अपनी समस्याओं के बावजूद इन मोर्चों ने किसान आंदोलन में उदारता से योगदान दिया है.
भारत में किसान आंदोलन के लिए धरना देना कोई नई बात नहीं है. बाबा महेंद्र सिंह टिकैत, अजमेर सिंह लखोवाल, प्रोफेसर नंजुंदास्वामी, एन रंगा रेड्डी और शरद जोशी जैसे किसान नेताओं ने इस रणनीति को बहुत प्रभावी ढंग से अपनाया है. शरद जोशी ने यहां तक कहा कि जब तक भारत [अर्थात ग्रामीण भारत] की समस्याओं को इंडिया [शहरी क्षेत्रों] के ध्यान में नहीं लाया जाएगा, तब तक किसानों के लिए न्याय की कोई उम्मीद नहीं होगी. शहरी जीवन पर प्रभाव डालने के इरादे से उन्होंने हमेशा शहरों में रैलियां कीं.
इस लेख में हम बड़े किसान आंदोलन में चार छोटे धरना स्थलों के योगदान को भी देखेंगे. सिंघु, टिकरी और गाजीपुर में मोर्चा के अलावा मुख्यधारा की मीडिया ने इन छोटे धरना-प्रदर्शनों पर बहुत कम ध्यान दिया.
वैकल्पिक मीडिया ने उन प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया जिन्होंने गांवों में आंदोलन को 'सजीव' और 'जिंदा' रखा. वहीं सोशल मीडिया ने इन मोर्चों की उपस्थिति को प्रचारित करने में एक बड़ी भूमिका निभाई.
चिल्ला बॉर्डर दिल्ली को नोएडा से जोड़ता है. इस मोर्चा में भारतीय किसान संघ (भानु) और भारतीय किसान संघ (लोकशक्ति) शामिल थे. दोनों संगठनों का एक अलग मंच (प्लेटफॉर्म) था.
दलित प्रेरणा स्थल पर बीकेयू (लोकशक्ति) ने अपना मंच स्थापित किया था.
बीकेयू (भानु) का नेतृत्व ठाकुर भानु प्रताप सिंह कर रहे हैं. इस संगठन का कई उत्तरी भारतीय राज्यों में बोलबाला है, हालांकि इसके प्रमुख समर्थक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मध्य और निचले दोआब जिलों में हैं. 2013 तक भानु प्रताप बीकेयू (टिकैत) के सदस्य थे. जब उन्होंने टिकैत छोड़ दिया और अपना संघ बनाया, तो वे संघ के प्रदेश अध्यक्ष थे.
मास्टर श्योराज सिंह भाटी ने 2018 में बीकेयू (लोकशक्ति) की स्थापना की थी. वह भी, बीकेयू (टिकैट) के सदस्य थे, लेकिन उन्होंने 2013 में भानु प्रताप का साथ छोड़ दिया और बाद के संघ में शामिल हो गए. वह समूह के राष्ट्रीय प्रवक्ता थे, लेकिन उन्होंने जल्द ही बीकेयू (लोकशक्ति) में शामिल होने के लिए छोड़ दिया. वे कहते हैं, "लोकतंत्र में लोग ही देश को जीवंत करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं. इसलिए हम 'लोकशक्ति' (लोगों की शक्ति) को चुनते हैं."
ये दोनों संगठन 2 दिसंबर को कृषि संघर्ष में शामिल हुए. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों समूह 26 जनवरी के बाद आंदोलन से हट गए और कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर से मुलाकात की.
मास्टर श्योराज भाटी 27 जनवरी को आंदोलन से हट गए और नरेंद्र तोमर से मिले और मांग की कि अगर कानून निरस्त नहीं किया जा सकता तो कम से कम कानूनों को बदल दिया जाए. लेकिन वह भी राकेश टिकैत की अपील से प्रभावित हुए और उनके साथ गाजीपुर मोर्चा में शामिल हो गए. नतीजतन, चिल्ला बॉर्डर पर धरना समाप्त हो गया.
हालाँकि, यह मोर्चा आंदोलन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने ठाकुर जाति के कई लोगों को संघर्ष में लाया. इसके बाद यह आंदोलन तब केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट किसानों का विरोध नहीं रहा था.
इस बीच मोर्चा के कई लोगों का यह मानना रहा है कि बीजेपी ने ठाकुर भानु प्रताप को विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए भेजा था ताकि उन्हें इस आंदोलन की आंतरिक जानकारी मिल सके. इस संघर्ष से हटने के बाद ठाकुर भानु प्रताप अब सामान्य तौर पर चल रहे किसान आंदोलन और विशेष रूप से राकेश टिकैत के खिलाफ बोलते हुए देखे जा सकते हैं.
पलवल मोर्चा दिल्ली-फरीदाबाद हाईवे पर देखने को मिला. यह लामबंदी की तीन चरणों के माध्यम से बनाया गया था. इसमें मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के निचले दोआब (आगरा, अलीगढ़) के किसान शामिल थे. सबसे पहले मध्य प्रदेश के किसान लामबंद हुए थे, जिनके मोर्च या जुलूस को उत्तर प्रदेश पुलिस ने धौलपुर के बाद रोक दिया था. लेकिन किसान तीन दिनों तक वहीं रुके रहे. इसने अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) और नर्मदा बचाओ आंदोलन के जत्थे (समर्पित समूह) को अपने मोर्च में शामिल किया था. इसके तीन दिन बाद वे धौलपुर (राजस्थान का एक जिला) यानी यूपी बॉर्डर से लौट आए.
डबरा और भितरवार (ग्वालियर के कस्बे) से सिख किसानों का एक जत्था 5 दिसंबर को यूपी और हरियाणा पुलिस के सभी बैरिकेड्स तोड़कर पलवल पहुंचा. एआईकेएस, बुंदेलखंड किसान सभा, परालकोट किसान संघ-बस्तर, किसान कल्याण संगठन-पश्चिम बंगाल और मेवात किसान संघ उन संगठनों में शामिल थे जिन्होंने मोर्चा में हिस्सा लिया था.
स्थानीय लामबंदी के लिए एक अभियान शुरू किया गया था. जिसे स्थानीय गांवों में किसानों द्वारा चलाया गया था. इस दौरान चंबल के जिले लामबंदी का केंद्र थे.
यह समूह का तीसरा पुनर्जीवन चरण था, जिसमें स्थानीय खाप (भवन पाल) ने आगे बढ़कर एक समिति बनाई. 3 फरवरी को पलवल में एक जनसभा हुई और मोर्चा फिर से जीवित होकर खड़ा हो गया. मोर्चा अभी भी जिंदा और अड़िग है.
ढांसा बॉर्डर दिल्ली और हरियाणा के झज्जर को जोड़ता है. हरियाणा के लोक गायकों और कलाकारों का सांस्कृतिक जुड़ाव इस स्थान की विशेषता है. यह मोर्चा ढांसा टोल प्लाजा के पास स्थित है, जो अभी भी किसानों द्वारा चलाया जा रहा है और उनके द्वारा टोल-फ्री बना दिया गया है.
दिल्ली और हरियाणा के स्थानीय गांवों के किसान ही इसके सदस्य हैं. यह 7 दिसंबर को शुरू हुआ और खाप पंचायतों द्वारा संचालित एकमात्र मोर्चा है.
किसान आंदोलन में खापों की सक्रिय भागीदारी थी, इसलिए यह भी एक वजह हो सकती है जिसके कारण सरकार सावधान और सतर्क रही. पुलिस ने कभी भी इस समूह को तोड़ने या नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं की. गुलिया खाप तीशा और बीकेयू (टिकैत) की दिल्ली इकाई द्वारा संचालित मोर्चा टिकरी सीमा समूह के पास है. युवा प्रदर्शनकारियों ने कई गांवों से गुजरते हुए टिकरी से ढांसा सीमा तक बाइक रैली निकालकर अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया था.
यह समूह दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर स्थित है और दिल्ली सीमा के बजाय हरियाणा-राजस्थान सीमा पर स्थित कुछ मोर्चों में से एक है. राजस्थान में जिला परिषद चुनाव के कारण 12 दिसंबर को देर से मोर्चा का गठन किया गया. इसका नेतृत्व अखिल भारतीय किसान सभा, जाट महासभा, जय किसान आंदोलन, गंगा नगर किसान सभा और मेवात किसान संघ द्वारा किया गया है. इस समूह में उत्तरी राजस्थान के जिलों, विशेष रूप से श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ के किसानों का भारी प्रतिनिधित्व था. दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों जिलों की सीमा पंजाब से लगती है.
जब नागौर से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के सांसद हनुमान बेनीवाल ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के लिए अपना समर्थन छोड़ दिया और यहां विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गए, तो मोर्चा राजस्थान की राजनीति में राजनीतिक केंद्र बन गया. जाट नेताओं और राज्य में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे एआईकेएस द्वारा लगातार दबाव बनाए जाने के कारण वापसी शुरू हुई. इस मोर्चा की खास बात यह है कि तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए लगभग 20 राज्यों के किसान इसमें शामिल हुए और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि AIKS एक राष्ट्रव्यापी संगठन है.
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