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देश में भीषण गर्मी और सूखे की मार के बीच खबर आई है कि पिछले दो दशकों में हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दो गुना हो गई है. यह खबर साइंस जर्नल “साइंस एडवांसेज” में छपे शोध से पता चलती है.
कई वैज्ञानिकों और कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा की गई रिसर्च बताती है कि तेजी से पिघल रहे हिमालयी ग्लेशियरों से हर साल 800 करोड़ टन बर्फ गायब हो रही है और पर्याप्त हिमपात न होने की वजह से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही.
वैज्ञानिकों ने यह शोध 40 साल के आधुनिक डेटा को जमा करके अमेरिकी खुफिया सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों के साथ उनका मिलान किया और पाया कि औसतन जिस रफ्तार से 1975 और 2000 के बीच ग्लेशियर पिघले हैं उसकी दोगुनी रफ्तार से 2003 और 2016 के बीच पिघल रहे हैं.
इस रिपोर्ट पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि कम ऊंचाई पर स्थित कुछ ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तो इस औसत रफ्तार की दस गुना है यानी सालाना करीब 5 मीटर का नुकसान. ऐसे हालात भारत में गंगोत्री, यमुनोत्री, सतोपंथ, चौराबरी और भगीरथ-खर्क जैसे महत्वपूर्ण ग्लेशियरों के लिये खतरा हैं. यह ग्लेशियर हिन्दुस्तान के वॉटर टावर (जल-स्तंभ) कहे जाते हैं. हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियां केवल पहाड़ी जनजीवन के लिये नहीं बल्कि देश की कम से कम 40% आबादी के लिये अति-महत्वपूर्ण हैं.
हिमालयी ग्लेशियरों को लेकर यह कोई पहली चेतावनी नहीं है. इस साल फरवरी में जानी मानी संस्था इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) की अगुवाई में की गई एक रिसर्च ने चेतावनी दी थी कि अगले कुछ सालों में हिन्दुकुश-हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के एक तिहाई हिस्से का पिघलना हर हाल में तय है और अगर सभी देशों ने ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिये IPCC द्वारा सुझाये गये कठोरतम कदम नहीं उठाये तो हिन्दुकुश-हिमालय क्षेत्र के दो तिहाई हिस्से में ग्लेशियर गायब हो सकते हैं.
पिछले साल संयुक्त राष्ट्र के तहत काम करने वाली वैज्ञानिकों की संस्था IPCC ने कहा कि सभी देशों को 2005 के स्तर पर होने वाले कार्बन उत्सर्जन को साल 2030 तक 45% कम करने की जरूरत है. लेकिन पेरिस समझौते के तहत किये गये वादे इस लक्ष्य को पाने के लिये काफी कम हैं.
आज दुनिया में हो रहे कुल 70 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिये मात्र 15 देश जिम्मेदार हैं. चार देश (अमेरिका, चीन, भारत और रूस) 50 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन अंतरिक्ष में छोड़ रहे हैं. अकेले चीन एक चौथाई से ज्यादा (27%) कार्बन इमीशन के लिये जिम्मेदार है. लेकिन भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और आने वाले दिनों की योजना को देखते हुये सबसे ज्यादा फिक्र हमारे लिये ही है.
पहाड़ी क्षेत्र से पलायन की वजह से ऊपरी इलाकों में वॉटर मैनेजमेंट का पारम्परिक तरीका नष्ट हो रहा है और निचले इलाकों में बेतहाशा निर्माण होने से जल स्रोत मर रहे हैं. जनगणना बताती है कि बीते दो दशकों में उत्तराखंड की शहरी आबादी दो गुना हो गई. 2001 में 16.3 लाख से 2011 में करीब 31 लाख. ऐसे में पानी की समस्या का विकराल होता जाना तय है.
यह भी महत्वपूर्ण है कि हिमालय के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में नदियों का उद्गम जलस्रोतों से ही है और वह जंगलों के बीच ही फलती फूलती हैं लेकिन नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और देश की लाखों जलधाराओं पर आज चौतरफा संकट है. दूसरी ओर तालाबों, कुओं और वेटलैंड्स के नष्ट होने से भूजल का संकट और तेजी से बढ़ा है. यही वजह है कि जहां एक ओर देश के करीब 100 रिजरवॉयर अभी सूखे पड़े हैं वहीं नीति आयोग साल भर के भीतर देश के दो दर्जन महानगरों में पानी खत्म होने की चेतावनी दे रहा है.
साफ है कि ग्लेशियरों पर आई रिपोर्ट जहां हिमालयी क्षेत्र में हो रही विनाशलीला की एक चेतावनी है वहीं एक महान संकट हमने मैदानी इलाकों में भी खड़ा कर दिया है जो पानी से लेकर खाद्यान्न संकट तक का रास्ता तैयार करता है.
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लंबे वक्त तक कवर किया है.)
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