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विश्व पर्यावरण दिवस पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी “वी आर वॉकिंग ऑन” यकीनन एक सुनने लायक कम्पोजिशन है. न सिर्फ इसके संगीत और बोलों के कारण बल्कि इस रचना के निर्माता और गीतकार सदाहारू यगी की अपनी निजी कहानी की वजह से भी. संयुक्त राष्ट्र ने खुद कहा है कि सदाहारू के बचपन से जुड़ी यादें इस गीत के पीछे एक प्रेरणा रही है.
सदाहारू का बचपन जापान के किटाक्याशू में बीता जो कि 1960 के दशक में देश का सबसे प्रदूषित शहर था और वहां हवा सांस लेने लायक नहीं थी, लेकिन 1990 का दशक आते-आते जापानी सरकार के उठाए कदमों के साथ निजी कंपनियों, स्वयंसेवी संगठनों और जापानी नागरिकों की कोशिश से यहां की हवा काफी साफ हो गई और किटाक्याशू को स्वच्छ पर्यावरण के लिये संयुक्त राष्ट्र का ग्लोबल -500 अवॉर्ड मिला.
साल में ज्यादातर दिन भारत के शहरों में वायु प्रदूषण बेहद हानिकारक स्तर पर रहता है. देश के 80% लोगों को साफ हवा नसीब नहीं है, लेकिन जितनी बदहाल देश की हवा है उससे कहीं अधिक लचर इस मामले में सरकार की सोच और कार्यशैली है, और वह शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाकर सच्चाई को देखने को तैयार नहीं दिखती.
इसी साल अप्रैल में जारी हुई स्टेट ऑफ ग्लोबल हेल्थ (SoGA) रिपोर्ट कहती है कि भारत में हर साल 12 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों से मर रहे हैं. जहां दुनिया में औसत उम्र वायु प्रदूषण से 20 महीने कम होती है, वहीं भारत में यह 30 महीने तक घट रही है.
पूरे विश्व में वायु प्रदूषण की वजह से सालाना कुल 50 लाख लोग मर रहे हैं और इनमें से आधे भारत और चीन के हैं, लेकिन अंतर यह है कि जहां चीन ने वायु प्रदूषण से लड़ने में काफी हद तक कामयाबी हासिल की है वहीं भारत का प्रदर्शन बहुत फिसड्डी है.
इसके बाद स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत की सबसे प्रतिष्ठित रिसर्च बॉडी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने भी सालाना 12 लाख मौतों की बात कही, लेकिन चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन ने प्रदूषण को एक ‘हौव्वा’ बताया. हैरत की बात नहीं कि भारत ने वर्षों के इंतजार के बाद इस साल जनवरी में जो नेशनल क्लीन एयर प्लान (NCAP) जारी किया वह बहुत ही ढुलमुल और निराश करने वाला है.
जाहिर है कि अगर भारत के बच्चे और युवा पीढ़ी इतने जहरीले वातावरण में सांस लेंगे तो देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता, लेकिन पर्यावरण दिवस पर भारत की चिंता सिर्फ वायु प्रदूषण के खतरों तक सीमित नहीं है. उसके सामने जो एक और बड़ा खतरा मंडरा रहा है, वह जलवायु परिवर्तन के उन खतरनाक प्रभावों का है जो अब खुलकर दिख रहे हैं.
मौसम में आ रहे इन असामान्य और आश्चर्यजनक बदलावों की एक मिसाल इस साल की शुरुआत में पंजाब में दिखी जब संगरूर और उसके आसपास करीब 3000 एकड़ जमीन पर अत्यधिक ओलावृष्टि ने किसानों की करोड़ों रुपये की फसल तबाह कर दी. इसी तरह समुद्री इलाकों में एक के बाद एक चक्रवाती तूफानों ने मछुआरों से लेकर किसानों तक का जीवन दुश्वार कर दिया है.
भारत की 25 करोड़ से अधिक आबादी तटीय इलाकों में है और सरकार की अपनी रिपोर्ट्स बताती रही हैं कि 40% से 60% समुद्र तट रेखा खतरे में है. गज, तितली, ओखी और फानी जैसे तूफानों ने जानमाल का नुकसान करने के साथ आने वाले दिनों के लिये खतरे की घंटी बजा दी है.
ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए बिजलीघरों, कारखानों और वाहनों से होने वाला कार्बन उत्सर्जन जिम्मेदार है और भारत इस खतरे से लड़ने के लिए सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के साथ बैटरी वाहनों के इस्तेमाल पर जोर दे रहा है और जंगल लगाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन पिछले साल जारी हुई IPCC की रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों के सामने जितना बड़ा संकट है, उस हिसाब से उसे कई मोर्चों पर व्यापक जंग लड़नी होगी.
एक प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रिका में छपी रिसर्च में 1961 से लेकर 2010 तक के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन गरीब और विकासशील देशों को पीछे धकेल रहा है. उनकी आमदनी में 17 से 30 प्रतिशत तक की कमी हो रही है.
आइल लॉबी के पक्षधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भले ही जलवायु परिवर्तन के खतरे को न मानते हों, लेकिन दुनिया भर में फैल रही चेतना और यूरोपीय देशों में ग्रीन पार्टियों की बढ़ रही सीटें एक उम्मीद जरूर बंधाती हैं. इस साल की शुरुआत से ही अमेरिका और यूरोप समेत दुनिया के कई देशों में क्लाइमेट चेंज के खतरे के खिलाफ जबरदस्त चेतना दिखाई दी है.
विश्व के सैकड़ों शहरों में नागरिकों और छात्रों ने स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर शांतिपूर्ण और उग्र प्रदर्शन किए हैं. इससे जहां एक ओर ग्रेटा थुनबर्ग जैसी किशोरी ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ चर्चित चेहरा बन गई, वहीं ब्रिटेन की संसद ने क्लाइमेट और इन्वायरन्मेंट आपातकाल घोषित कर दिया है. ब्रिटिश पार्लियामेंट क्लाइमेट इमरजेंसी घोषित करने वाली दुनिया की पहली संसद है.
पूरे विश्व की तरह ही भारत में जनता की चेतना और मीडिया के रोल के बिना प्रदूषित हवा और ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों से नहीं लड़ा जा सकता. जहां हमारे देश में मीडिया खासतौर पर टीवी चैनलों पर पर्यावरण की रिपोर्टिंग हाशिए पर ही रहती है, वहीं दुनिया भर के अखबार इसे एक मिशन बना रहे हैं.
लंदन से निकलने वाले द गार्डियन ने तो अब जलवायु परिवर्तन की खबरों को लिखने के लिए वैज्ञानिक रूप से अधिक पैनी शब्दावली के इस्तेमाल का फैसला किया है. द गार्डियन की नई स्टाइल शीट के तहत अखबार अब वैज्ञानिकों, पर्यावरण के जानकारों और कुशल नेताओं की तरह नई ‘प्रभावी शब्दावली’ का इस्तेमाल करेंगे और पुराने ‘प्रभावहीन’ हो चुके शब्दों से बचने की कोशिश करेगा.
दुनिया के सामने मंडराते खतरे को देखते हुए यह एक ऐसी पहल है जिससे भारत में मीडिया और पर्यावरण कार्यकर्ता बहुत कुछ सीख सकते हैं, ताकि साफ हवा को मौलिक अधिकार बनाने और जंगल, झरनों और नदियों को बचाने के लिए लड़ा जा सके.
यह वक्त खबरों को सदाहरू यगी के पर्यावरण गीत की तरह नये सुरों में ढालने का है, ताकि भावी पीढ़ी को बचाने और सरकार को झकझोरने की प्रभावी कोशिश हो सके.
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लंबे वक्त तक कवर किया है.)
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Published: 04 Jun 2019,08:39 PM IST