advertisement
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 21 अप्रैल को 2002 गोधरा ट्रेन अग्निकांड (Godhra train burning case) मामले में आठ दोषियों को जमानत दे दी है. हालांकि, चार अन्य दोषियों की जमानत अर्जी उनकी भूमिका को देखते हुए खारिज कर दी गई.
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने आठ दोषियों को इस आधार पर जमानत दे दी कि उन्होंने 17 साल से अधिक समय जेल में बिताया है. बता दें कि सभी दोषियों को निचली अदालत और हाई कोर्ट से आजीवन कारावास की मिली थी.
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उन दोषियों की जमानत अर्जी खारिज कर दी, जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने फांसी सजा सुनाई थी, लेकिन गुजरात हाई कोर्ट ने इसे उम्रकैद में बदल दिया था.
27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की S-6 बोगी में पथराव के बाद आग लगा दी गई थी. इस घटना में 59 यात्रियों की जलकर मौत हो गई थी. पीड़ितों में 27 महिलाएं और 10 बच्चे शामिल थे. वहीं ट्रेन सवार 48 अन्य यात्री घायल हुए थे.
तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक जांच आयोग का गठन किया गया था. आयोग में न्यायमूर्ति जी टी नानावती और न्यायमूर्ति केजी शाह शामिल थे. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मारे गए 59 लोगों में से अधिकांश कारसेवक थे जो उत्तर प्रदेश के अयोध्या से लौट रहे थे.
मुजफ्फरपुर से साबरमती एक्सप्रेस खुली थी और अहमदाबाद जा रही थी. विश्व हिंदू परिषद के आह्वान पर पूर्णाहुति महायज्ञ में शामिल होने गए कम से कम 2,000 कारसेवक अयोध्या से ट्रेन में सवार हुए थे. यज्ञ राम मंदिर निर्माण कार्यक्रम का हिस्सा था.
ट्रेन जलाने की घटना के कुछ ही घंटों बार पूरे राज्य में देंगे भड़क गए थे. दंगे 27 फरवरी की शाम को भड़के और राज्य भर में 2-3 महीने तक जारी रहे. 2005 में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में बताया कि दंगों ने 254 हिंदुओं और 790 मुसलमानों की मौत हुई थी. कुल 223 लोगों के लापता होने की सूचना मिली थी. हजारों लोग बेघर भी हो गए थे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफारिश के बाद ये जानकारी प्रकाशित की गई थी.
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने न्यायमूर्ति यूसी बनर्जी की अध्यक्षता में एक अलग जांच आयोग का गठन किया थी. आयोग ने मार्च 2006 में पेश अपनी रिपोर्ट में इसे एक दुर्घटना बताया था. सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट को असंवैधानिक और अमान्य बताते हुए खारिज कर दिया था.
बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष जांच दल का गठन किया. आयोग की जांच पूरी होने से पहले मार्च 2008 में न्यायमूर्ति केजी शाह की मृत्यु हो गई. उनका पद न्यायमूर्ति अक्षय एच मेहता ने संभाला. न्यायमूर्ति नानावती और न्यायमूर्ति अक्षय मेहता ने उसी वर्ष नानावती-शाह आयोग की अंतिम रिपोर्ट पेश की, जिसमें ट्रेन को जलाने को एक साजिश बताया गया था.
1 जून, 2009 को घटना के आठ साल बाद इस मामले में सुनवाई शुरू हुई. एक विशेष SIT कोर्ट ने 1 मार्च, 2011 को 31 लोगों को दोषी ठहराया, जिनमें से 11 को मौत की सजा और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. अदालत ने मामले में 63 लोगों को बरी भी कर दिया था.
SIT कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के आरोपों से सहमति जताई कि यह अनियोजित भीड़ के आक्रोश की घटना नहीं थी, बल्कि इसमें साजिश शामिल थी. 31 दोषियों को आपराधिक साजिश, हत्या और हत्या के प्रयास से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था.
2017 में गुजरात हाई कोर्ट ने 31 अभियुक्तों को दोषी ठहराने के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन 11 दोषियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया.
इसके बाद दोषियों ने गुजरात हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)