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वाराणसी की एक अदालत में पांच हिंदू महिलाओं ने ज्ञानवापी मस्जिद के कुछ हिस्सों में पूजा की इजाजत मांगने के लिए जो याचिका दायर की थी, वह शुरू से ही विवादास्पद (Gyanvapi Mosque Row) रही है. वहां कथित शिवलिंग मिलने से पहले भी.
अब सुप्रीम कोर्ट को इस बात की जांच करनी है कि क्या वाराणसी की अदालत का आदेश वैध है. वाराणसी की अदालत ने ही ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने और उस जगह को सील करने का आदेश दिया था जहां शिवलिंग मिलने की बात कही जा रही है. यह भी कि क्या जिला अदालत को ऐसे किसी मामले पर विचार करना चाहिए.
इस कानून के तहत किसी एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के पूजा स्थल में तब्दील नहीं किया जाएगा (सेक्शन 3).
यह कानून 15 अगस्त 1947 के पहले से मौजूद किसी पूजा स्थल के स्वामित्व या स्थिति को लेकर कोई भी मामला दायर करने पर भी रोक लगाता है (सेक्शन 4). हां, अयोध्या में विवादित स्थल को स्पष्ट रूप से कानून के दायरे से बाहर रखा गया था. बीजेपी नेता इस कानून को निरस्त करने की अपील कर रहे हैं. हालांकि खुद सुप्रीम कोर्ट इस कानून को "भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं का रक्षक" बता चुका है.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, एक सीनियर बीजेपी नेता ने मस्जिद में कथित शिवलिंग मिलने के बाद कहा कि
एक दूसरे बीजेपी नेता ने अखबार को बताया कि कथित शिवलिंग मिलने से हालात बदल गए हैं और अयोध्या मामले में पार्टी ने जो रुख अपनाया था, वह बदल सकता था. तब पार्टी ने कहा था कि वह यह नहीं दोहराएगी कि मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाई गई थीं.
सिर्फ वाराणसी ही नहीं, मथुरा का मामला भी उठ रहा है. वहां इस बात का दावा किया जा रहा है कि कथित कृष्ण जन्मभूमि वाली जगह पर शाही ईदगाह मस्जिद मौजूद है. मथुरा की अदालतों में ऐसे मामले दायर किए गए हैं जिनमें हिंदुओं को जमीन का स्वामित्व देने की अपील की गई है. इसके संबंध में भी कई बीजेपी नेता 1991 के कानून को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं.
अयोध्या में बाबरी मस्जिद को तोड़ने के 29 साल पूरे होने पर 6 दिसंबर, 2021 को बीजेपी सांसद रवींद्र कुशवाहा ने प्रेस से कहा था कि मथुरा वाले मामले में शुरुआत से उनकी पार्टी का नजरिया साफ था. इसलिए केंद्र सरकार पूजा स्थल कानून को निरस्त कर सकती है.
कुशवाहा ने मीडिया से कहा था, “किसानों के विरोध को देखते हुए कृषि कानूनों को वापस लिया गया था. इसी तरह मोदी सरकार इस कानून को भी वापस ले सकती है.”
वैसे 9 दिसंबर, 2021 को संसद में शून्यकाल के दौरान बीजेपी के राज्यसभा सांसद हरनाथ यादव इस कानून को निरस्त करने का विचार रख चुके हैं-
हालांकि 1991 के कानून को कमजोर करने के लिए सिर्फ अपील ही नहीं की जा रही, बीजेपी के नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इस साल मार्च में पूजा स्थल कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने के लिए एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नोटिस जारी किया है. हालांकि इनमें से हर दांव का एक ही जवाब है, अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का 2019 का फैसला.
चूंकि 1991 के एक्ट से राम जन्मभूमि मामले को अलग रखा गया था, यह अयोध्या मामले में कोई मुद्दा नहीं था, जहां यह तय किया जाना था कि विवादित स्थल का लीगल टाइटिल किसके पास है.
हालांकि मामला तकनीकी रूप से इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील का था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को 1991 के कानून के बारे में हाई कोर्ट के जस्टिस डीवी शर्मा की टिप्पणियों का जवाब देना पड़ा. जस्टिस शर्मा ने कहा था कि कानून उन मामलों पर लागू नहीं होता जहां एक विवाद 1991 से पहले शुरू हो गया था.
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने 1991 के कानून के मूलपाठ, इसके उद्देश्यों और कारणों, संसद में इस पर हुई चर्चाओं और संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक- धर्मनिरपेक्षता पर सोच-विचार किया.
फिर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने कहा कि पूजा स्थल एक्ट, 1991 "संविधान के मौलिक मूल्यों की रक्षा और सुरक्षा करता है."
जजों ने गौर किया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है. इससे पहले एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने इसकी पुष्टि की थी. और सरकार ने "भारतीय राज्य व्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा" करने के लिए 1991 का कानून बनाकर एक अहम कदम उठाया था.
1991 के एक्ट में 15 अगस्त, 1947 की तारीख क्यों रखी गई थी- इसकी आलोचना हिंदू दक्षिणपंथी समूह कहते रहते हैं, और अश्विनी उपाध्याय ने अपनी पीआईएल में इस तारीख को खास तौर से चुनौती दी है. जजों ने इसे भी खास तौर से स्पष्ट किया था और इस संबंध में उस चर्चा का हवाला भी दिया था जो कानून बनाते वक्त संसद में की गई थी.
एक बात और अहम है. अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि 1991 का कानून नॉन रेट्रोग्रेशन को सुनिश्चित करने वाला एक विधायी कदम था. यह इस कानून को निरस्त करने की किसी भी कोशिश के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. अब यह भी जान लें कि नॉन रेट्रोग्रेशन क्या होता- सरकार संविधान में जितना जरूरी है, उससे परे जाकर भी संरक्षण बढ़ा सकती है लेकिन एक बार संरक्षण बढ़ाने के बाद वापस नहीं पलट सकती.
भारत के पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने सेक्शन 377 मामले में अपने फैसले में नॉन रेट्रोग्रेशन की अवधारणा को समझाया था: "नॉन रेट्रोग्रेशन का सिद्धांत बताता है कि राज्य को ऐसे उपाय नहीं करने चाहिए या कदम नहीं उठाने चाहिए जो संविधान के जरिए या किसी अन्य प्रकार से दिए गए अधिकारों को इस्तेमाल करने पर जानबूझकर रोक लगाते हैं."
नवतेज सिंह जौहर मामले में पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के फैसले का पैरा 189, पेज 117 यह सिद्धांत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में प्रगतिशील तरीके से अधिकार मिलने चाहिए क्योंकि हमारा संविधान स्थिर नहीं, गतिशील है. इसका मतलब है कि अधिकारों को छीना नहीं जा सकता, और समाज को पिछड़ने के बजाय आगे बढ़ना चाहिए.
इसके अलावा अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि पूजा स्थल कानून “हमारे इतिहास और देश के भविष्य से संवाद करता है.”
पूजा स्थल कानून, 1991 को निरस्त करने की कोई भी कोशिश नॉन रेट्रोग्रेशन के सिद्धांत का उल्लंघन करना होगा क्योंकि यह पूजा स्थलों को दिए गए संरक्षण से पीछे हटना होगा. ऐसे पूजा स्थल जो लंबे समय से मौजूद हैं और जहां (सदियों से न सही लेकिन) पिछले कई दशकों से लोग इबादत कर रहे हैं.
संरक्षण न देने का मतलब है, किसी समुदाय, चाहे वह अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, के पूजा करने के अधिकार को निरंतर खतरा. यह किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रतिकूल है, जहां सभी नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने का अधिकार है.
इसी समय यह दलील भी दी जा सकती है कि किसी ऐसे कानून को निरस्त करना, न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं हो सकता, जो संविधान के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करता. क्योंकि यह मौलिक अधिकारों की बात नहीं कर रहा है, संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है. इसलिए 1991 के पूजा स्थल एक्ट को निरस्त करने के खिलाफ अयोध्या फैसले का तर्क नहीं दिया जा सकता.
लेकिन सामाजिक आर्थिक और कानूनी आधार पर इस फैसले से नजीर ली जा सकती है. यह सिर्फ वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद ही नहीं, देश के दूसरे इबादतगाहों की हिफाजत के लिए भी महत्वपूर्ण है.
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