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अमेरिकन बैंड कारपेंटर्स का गाना, ''येस्टरडे वन्स मोर...'' बहुतों के कानों में मिश्री सा घुलता है. लेकिन भारत के सामाजिक राजनैतिक इतिहास के संदर्भ में यह परेशान करने वाली स्मृति बन चुका है.
पिछले कई दिनों से वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Masjid) से जुड़ी घटनाएं दिसंबर 1949 और जनवरी 1950 के बीच अयोध्या में हुई घटनाओं की याद दिला रही हैं. उस समय न्यायपालिका और स्थानीय प्रशासन ने अपनी मर्जी से एक मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने में मदद की थी.
इस समय भी- न्यायपालिका- सिर्फ स्थानीय सिविल जज रवि कुमार दिवाकर ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट भी ज्ञानवापी मस्जिद के एक हिस्से का ‘धर्म बदलने के प्रॉजेक्ट’ में अपनी इच्छा से हिस्सा ले रहे हैं, भले ही यह प्रॉजेक्ट छोटा और ‘अस्थायी है’- ठीक अयोध्या की ही तरह.
हालांकि दिवाकर ने अपने लिए सक्रिय भूमिका चुनी है. इसके विपरीत, भारत के चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना और सुप्रीम कोर्ट के दो जज डी वाई चंद्रचूड़ और पीएस नरसिम्हा कानून के इस उल्लंघन को हाथ बांधे देखते रहे. उन्होंने समय रहते कार्रवाई नहीं की जिसकी वजह से उस कानून का साफ उल्लंघन हुआ, जोकि सेक्युलर देश के रूप में भारत के वजूद के लिए बहुत अहम है.
यह जगजाहिर है कि वाराणसी और मथुरा की मस्जिदों पर विवाद है. हालांकि इन दोनों जगहों पर इन मस्जिदों को तोड़ने और मंदिर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रदर्शन नहीं हुए लेकिन ज्ञानवापी मस्जिद और शाही ईदगाह पर बाबरी मस्जिद का अंधेरा छाया रहा. इन दोनों मस्जिदों को इस्लामिक इबादतगाहों की उस ‘फेहरिस्त’ में गिना जाता रहा, जिन्हें ‘फिर से पहले जैसा करना था.’
विडंबना है कि अयोध्या मामले में पांच जजों की बेंच, जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ शामिल थे, ने इस कानून को भारतीय संविधान की मूल संरचना का प्रतीक बताया था. इस कानून को "एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की बाध्यताओं से आंतरिक रूप से संबंधित" बताया था जो "सभी धर्मों की समानता के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है".
अयोध्या में विवादित स्थल को हिंदू पक्षों को सौंपते हुए, एपेक्स कोर्ट ने यह भी कहा था कि कानून ने "दो उद्देश्यों" को पूरा किया है. सबसे पहले, यह किसी भी पूजा स्थल का रूप बदलने पर रोक लगाता है. ऐसा करते हुए यह भविष्य में इस आशंका पर भी रोक लगाता है कि किसी भी सार्वजनिक पूजा स्थल के चरित्र को नहीं बदला जाएगा.
दूसरा, कानून इस "सकारात्मक दायित्व" को लागू करने की कोशिश करता है कि किसी सार्वजनिक पूजा स्थल का जो धार्मिक चरित्र 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में था, वह बरकरार रहेगा.
इस "सकारात्मक दायित्व" के जरिए यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी कि बाकी की इबादतगाहों को इस विवाद से बाहर रखा जाए, भले ही अयोध्या का मामला चलता रहे. और यह 'दायित्व' सभी का था, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल थी.
कोई हैरान हो सकता है कि क्या वाराणसी के सिविल जज की अदालत ने "अपराध दोहराया" है. ऐसा सवाल इसलिए उठता है क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 9 सितंबर 2021 को ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर भूमि विवाद मामले में कार्यवाही पर रोक लगा दी थी, और इसमें निचली अदालत का मस्जिद परिसर का 'सर्वेक्षण' करने का आदेश शामिल था. यह 'सर्वेक्षण' भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को करना था.
हालांकि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस प्रकाश पाडिया ने कहा कि तिवारी का आदेश "कानून के लिहाज से पहली नजर में बुरा" था, फिर भी दिवाकर ने अपने संदिग्ध फैसले में एक ऐसे व्यक्ति को सर्वेक्षण का आदेश दिया जो इस काम के लिए प्रशिक्षित नहीं था- वह एक वकील था. और जब ज्ञानवापी मस्जिद का प्रबंधन करने वाली अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद प्रबंधन समिति ने इस पर ऐतराज जताया तो अदालत ने दूसरे दो लोगों के नाम जोड़ दिए, और वे भी इस काबिल नहीं थे कि यह सर्वेक्षण करते.
अजय कुमार मिश्रा को सिविल जज ने कोर्ट कमीश्नर के पद से हटा दिया क्योंकि उन पर आरोप है कि वह मस्जिद में एक छोटे से निर्माण का वीडियो लीक कर रहे थे, जिसे अब “शिवलिंग” बताया जा रहा है. लेकिन उनको हटाने से नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती, और न ही कानून के उल्लंघन में उनकी भूमिका कमतर हो सकती है.
तिवारी और दिवाकर ने जानबूझकर कानून के बारे में अपनी अज्ञानता को प्रदर्शित किया जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि इसके लागू होने के बाद, 15 अगस्त, 1947 से पहले पूजा स्थलों की स्थिति बदलने के लिए दायर सभी मामले “खत्म हो जाएंगे.”
कानून में यह भी कहा गया है कि इसके जैसी प्रकृति का "कोई भी मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही" "इस कानून के लागू होने के बाद किसी भी अदालत, ट्रिब्यूनल या अन्य अथॉरिटी में रखा नहीं जाएगा." लेकिन दो सिविल जजों ने बमुश्किल एक साल के अंदर इस कानून की अनदेखी की.
यहां तक कि भारत के चीफ जस्टिस, जस्टिस एनवी रमन्ना ने भी अंजुमन समिति की इस याचिका को ठुकरा दिया कि सर्वेक्षण पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया जाए. उनकी बेंच में एपेक्स कोर्ट के दो जज शामिल थे, और फिर भी, सामूहिक न्यायिक पांडित्य को अब तक "इस मामले के बारे में कोई जानकारी नहीं थी".
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की भी परख नहीं की कि इसका मुसलमानों पर क्या असर होगा या वजूखाने तक न पहुंचने की वजह से क्या उनकी नमाज में कुछ हद तक रुकावट आएगी.
दिसंबर 1949 में रामलला की मूर्तियों को बाबरी मस्जिद के अंदर चुपचाप रखे जाने के बाद किसी भी अदालत या प्रशासक ने मुसलमानों को यह कहते हुए मस्जिद नहीं सौंपी कि उन्हें किसी अप्रिय हादसे का खौफ है.
यहां तक कि राज्य सरकार ने भी स्थानीय प्रशासन से "यथास्थिति बनाए रखने" को कहा और उसने मुसलमानों के साथ इन्साफ नहीं किया. फिर भी यह कहना जरूरी था कि बाबरी मस्जिद की प्रकृति को बदलने और उसे एक मंदिर में तब्दील करने में किस-किसका हाथ था.
आखिर राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निर्देश पर मूर्तियों को हटाने के निर्देश जारी किए. लेकिन डेप्युटी कमीश्नर और जिला मजिस्ट्रेट केकेके नायर ने तब तक यह पक्का कर लिया था कि भगवान राम के 'दिव्य रूप में प्रकट होने' की 'खबर' सुनकर हजारों हिंदू भक्त वहां जमा हो जाएं.
फिर उन्होंने दलील दी कि "मूर्ति को हटाने और मस्जिद को बहाल करने से स्थिति बेकाबू हो जाएगी और इसीलिए ऐसा नहीं किया जा सकता".
इसी तरह इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि वजूखाने को खोला जाएगा, और मुसलमानों को उस निर्माण के इस्तेमाल की इजाजत दी जाएगी, जिसके लिए वे जोर देकर कह रहे हैं कि वह फव्वारा है.
इसमें कितना ही समय लगेगा, जब वाराणसी की मस्जिद के सील किए गए हिस्से में ‘पूजा पाठ’ करने के लिए लोगों का तांता लगने लगे. ज्ञानवापी मस्जिद पर फिलहाल मुसलमानों का कब्जा है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर कब तक?
संघ परिवार के लिए आखिरी धक्का देने का सही समय क्या होगा? क्या यह 2024 में संसदीय चुनाव से ऐन पहले होगा या उससे भी पहले? एक और अहम सवाल है- इन बढ़ते कदमों की क्या सामाजिक कीमत हमें चुकानी होगी?
इससे जुड़े कुछ दूसरे सवाल भी हैं. क्या मथुरा में शाही ईदगाह को भी ऐसे ही हमले झेलने पड़ेंगे? क्या बीजेपी पूजा स्थल कानून को निरस्त करने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान चलाएगी? आखिरकार, पार्टी ने 1991 में इस कानून का विरोध किया था, जब पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने इसे सदन के पटल पर रखा था. तब बीजेपी ने इसके पारित होने के दौरान सदन से वाकआउट किया था.
फिर पुरस्कारों का भी एक लंबा इतिहास है. केकेके नायर और उनकी बीवी हिंदू महासभा और जनसंघ के टिकट पर लोकसभा सदस्य चुने गए थे. जिन दूसरे लोगों ने नायर के साथ रामलला प्रॉजेक्ट के लिए ‘काम’ किया, वे विभिन्न स्तरों पर कानून निर्माता बने. कोई म्युनिसिपल बोर्ड में पहुंचा तो कोई संसद में. अभी कुछ महीने पहले जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा में मनोनीत किए गए हैं.
‘यस्टरडे वन्स मोर’ गुनगुनाने का एक अनचाहा मौका आ गया है.
(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वह @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 19 May 2022,09:19 AM IST