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इस लिंक पर अगर आप ये सोचकर आए हैं कि यहां आपको कुछ ऐसे सुझाव या सामान मिलेंगे जो समय रहते आपको मदर्स डे पर मां को खुश करने के इंस्टैंट तरीके बता दें तो हो सकता है आपको थोड़ी निराशा हाथ लगे. वो क्या है ना कि सालों के धैर्य से हमें सींचकर बड़ा करने वाली मां के लिए कुछ भी इंस्टैंट करना ज्यादती होती है. और वैसे भी तोहफे खरीदना कौन सी बड़ी बात है.
चारों ओर मॉल, दुकान, बाजार सजे हुए हैं, डिस्काउंट के ऑफरों की भी कमी नहीं. सोशल मीडिया हो या कोई वेबसाइट, हर मिनट मां के लिए किसी गिफ्ट का पॉप अप सामने खुल ही जाता है, एक क्लिक, ऑनलाइन पेमेंट और मां की आंखों में खुशी और कृतज्ञता के आंसू, हो गई छुट्टी अगले साल तक के लिए.
ऐसा ही तो सिखाया है हमें विज्ञापनों के बाजार ने बिल्कुल उन निबंधों के तर्ज पर जो हमें बचपन में दस-बारह पंक्तियों में रटा दिए गए. त्याग की प्रतीक, ममता की मूर्ति मां. हमारे जगने से पहले जगने वाली, हमारी हर जरूरत का ख्याल रखने वाली, हमारे लिए रच-रचकर खाना बनाने वाली मां. मानों मांएं ना हुई ऊपरवाले की मशीन से निकली जेरॉक्स कॉपी हो गई, सब की सब एक समान. क्या सचमुच ऐसी होती है मां? क्या सचमुच इतनी ही होती है मां? मेरी और आपकी मां? नहीं ना.
अपनी मां की नजर में तो हम दुनिया के सबसे अद्वितीय, सबसे अनूठे बच्चे होते हैं. फिर हम अपनी मां को विज्ञापनों की स्टीरियोटाइपिंग की नजर से क्यों देखते जा रहे हैं? विज्ञापन फिल्मों की सीमित संभावनाओं में सिमटी नहीं होती मां, जो या तो अपने बच्चे की सेहत और रिजल्ट की चिंता में घुलती नजर आए या उम्रदराज हुई तो इस उम्मीद में दवाइयां लेती रहे कि घुटनों का दर्द कुछ कम हो तो अपने बच्चों के बच्चों के साथ खेल सकें.
फिर वो कौन सा सपना था जो पलता रहा मां की आंखों में इतने साल? वो कौन सी ख्वाहिश थी जिसे मां ने चुपचाप छुपा दिया जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं के ढेर के पीछे? अगर परिवार की जिम्मेदारी नहीं आई होती तो कहां पहुंची होती मां?
याद कीजिए, मां की आलमारी आखिरी बार कब टटोली थी आपने? एक बार फिर कोशिश कीजिए. आपके पुराने सामानों, आपके बचपन की यादों और आपके लाए उपहारों के पीछे छुपी होगी कहीं मां के सपनों, उनकी महत्वाकांक्षाओं की पोटली भी. एक बार टटोल कर देखिए. हो सकता है कुछ सपने अभी भी जिंदा हों. हो सकता है कुछ उम्मीदों के लिए अभी भी देर नहीं हुई हो और आपके एक जरा सा हाथ लगा देने से वो अभी भी हरकत में आ जाएं.
मदर्स डे के ग्रीटिंग कार्ड के साथ मां को एक सपना भी गिफ्ट कीजिए. उनका देखा एक सपना, जो वक्त की मारामारी के बीच हाथों से जाने कब फिसल गया. वो चाहे अधूरी पढ़ाई हो या छूट गई नौकरी. हो सकता है वो बात इतनी मामूली सी हो जिसका जिक्र करने में भी मां को झिझक हो. लेकिन पूरा होना तो हर सपने का हक होता है. फिर यहां तो बात मां की हो रही है.
तो बस सपने देना काफी नही होगा, क्योंकि ज्यादा उम्मीद है उसे पूरा कर पाने का हौसला मां समय के साथ खो बैठी हों. इसके पहले कि वो हमेशा के लिए एक कसक बन जाए उनके जीवन की, उन्हें वो हौसला भी देना होगा कि वो अब भी उसे हासिल कर सकती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारे बार-बार गिरने पर उठा देती थी मां हमें और हमारी आंखों में आंखे डालकर कहती थी ‘तुम कर सकते हो, तुम्हें करना ही होगा, चाहे जितनी चोट लगे, चाहे जितना वक्त लगे’.
मां भोली नहीं होती, वैसे भी हमें दुनियादारी की पगडंडी पर संभलकर चलना और जीना सिखाने वाली मां से बेहतर दुनियादारी का ककहरा और कौन समझ सकता है. लेकिन नए जमाने के चलन से मां अनजान जरूर हो सकती है. सपने और हौसलों के साथ मां को वो विश्वास भी चाहिए कि अगर इस नए रास्ते में उनके कदमों को कभी झिझक हुई, कभी सब छोड़कर जाने-पहचाने से पुरानेपन में वापस जाने का दिल किया तो बच्चे बड़ी मजबूती से थामे रहेंगे उनका हाथ.
बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन के बचपन की एक कहानी तो हम सबने सुनी है, जब उनके स्कूल वालों ने उन्हें ये कहकर स्कूल से निकाल दिया कि उनकी मानसिक स्थिति पढ़ाई के अनुकूल नहीं है. उस चिट्ठी को पढ़कर उनकी मां ने बेटे से ये झूठ कहा कि स्कूल वालों का कहना है कि वो इतने कुशाग्र हैं कि स्कूल की टीचर उन्हें पढ़ा पाने के क़ाबिल ही नहीं, इसलिए उन्हें घर पर ही पढ़ाया जाए. एडिसन को उनकी मां ने घर पर ही तब तक पढ़ाया जबतक काम की तलाश में उन्होंने घर नहीं छोड़ा. जरूरत पड़ी तो इस बार अपनी मां और उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए हमारा भी एक छोटा झूठ सही.
मां को सच में कुछ देना है तो दुकान, बाजार, बेवसाइटों के पन्ने मत टटोलिए. एक बार मां का हाथ थाम उसके दिल में झांक लेने की कोशिश कीजिए. अपनी मां के लिए दुनिया के सबसे नायाब तोहफे का आइडिया वहीं मिलेगा.
और हां, हो सके तो मां को महानता के उस घिसे-पिटे बोझ से मुक्त कर दीजिए जिसे जबरदस्ती उनके ऊपर लादकर बदले में हम बहुत बड़ी कीमत वसूलते आ रहे हैं. मां को हमेशा अपनी जरूरतों के लिए उपल्बध और फॉर ग्रैंटेड लेना भी बंद कर दीजिए. जिन माओं ने पढ़े-लिखे जिम्मेदार नागरिक बनाए वो अब भी अपने दम पर समाज को काफी कुछ दे सकती हैं. बशर्ते हम उन्हें उनके परिवार और चारदीवारी के बाहर झांक सकने का मौका दें.
वरना हजारों करोड़ रुपये के गिफ्ट मार्केट में हमारी जेब से चंद रुपये और एक रविवार और सही, एक और मदर्स डे भी यूं ही बीत जाने देते हैं.
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