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हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए इसे रोजगार की भाषा बनाना जरूरी

Hindi Diwas: गांधी जी अच्छी तरह समझते थे कि प्रांतीय भाषाओं को साथ लेकर ही हिंदी का प्रचार प्रसार किया जा सकता है.

हिमांशु जोशी
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए इसे रोजगार की भाषा बनाना जरूरी</p></div>
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हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए इसे रोजगार की भाषा बनाना जरूरी

(फोटो- क्विंट)

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1918 में हिंदी (Hindi) साहित्य सम्मेलन के आठवें इंदौर अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने राष्ट्रभाषा की स्पष्ट व्याख्या की और हिंदी भाषी राज्यों में उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता का जोरदार शब्दों में समर्थन करते हुए कहा था 'हिंदुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता. प्रत्येक प्रांत में उस प्रांत की भाषा, सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिंदी और अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए अंग्रेजी का व्यवहार हो'.

देश आजाद होने के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिन्दी (Hindi) भारत की राजभाषा होगी.

इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर 1953 से देशभर में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा.

तमिलनाडु (Tamilnadu) के विरोध की वजह से हिंदी कभी राजभाषा से राष्ट्र भाषा नही बन सकी है. हिंदी को लेकर दक्षिणी राज्यों में समय-समय पर विरोध के स्वर उठते रहे हैं.

इसी विरोध को आगे बढ़ाते कर्नाटक (Karnataka) के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कर्नाटक सरकार को हिंदी दिवस (Hindi Diwas) के विरोध में पत्र लिखा है कि बिना किसी कारण राज्य के टैक्सपेयर्स के पैसों का इस्तेमाल करके हिंदी दिवस नहीं मनाना चाहिए.

एचडी कुमारस्वामी भी अपनी जगह कहीं न कहीं सही ही हैं.

उत्तर भारतीयों के लिए हिंदी पहली भाषा है तो बेंगलुरू मेट्रो में हिंदी न होना निश्चित रूप से उस हिंदी को लेकर उस क्षेत्र के प्रावधानों का उल्लंघन है.

महात्मा गांधी भी नही चाहते थे कि हिंदी की वजह से प्रांतीय भाषा दब जाएं

महात्मा गांधी भी इस बात को शायद अच्छी तरह समझते थे कि प्रांतीय भाषाओं को साथ लेकर ही हिंदी का प्रचार प्रसार किया जा सकता है. उन्होंने नवजीवन में दिनांक 23/08/1928 को यह लिखा था कि संसार में हिंदी भाषा का तीसरा स्थान है तथा उसमें प्रांतीय भाषाओं को महत्त्व देते हुए उसकी हिमाकत की थी 'जो बात मैंने अनेक बार कही है, उसे यहां फिर दोहराता हूँ कि मैं हिंदी के जरिए प्रांतीय भाषाओं को दबाना नहीं चाहता, किंतु उनके साथ हिंदी को भी मिला देना चाहता हूँ, जिससे एक प्रांत दूसरे के साथ अपना सजीव संबंध जोड़ सकें. इससे प्रांतीय भाषाओं के साथ हिंदी की भी श्री- वृद्धि होगी.'

महात्मा गांधी हिंदी भाषा को पूरे देश को एक साथ जोड़ने का बेहतरीन जरिया इसलिए समझते थे क्योंकि भारत में अगर किसी एक भाषा को सबसे ज्यादा समझने और बोलने वाले लोग हैं तो वह हिंदी ही है.

भारत की राष्ट्रभाषा न बन सकने वाली हिंदी अभी देश की राजभाषा है. राजभाषा होने के कारण सरकारी विभागों में हिंदी अनुभाग आवश्यक है और बहुत से सरकारी काम हिंदी में होते हैं. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि लोग हिंदी को ज्यादा समझें और इसकी तरफ आकर्षित हों. लेकिन उस कार्यालयी हिंदी को समझना अक्सर आम हिंदीभाषी के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो जाता है.

हिंदी भाषा के प्रसिद्ध विशेषज्ञ डॉ सुरेश पंत भी कार्यालय हिंदी पर कहते हैं कि कार्यालयी हिंदी तो आसान होने ही चाहिए.

कार्यालयी हिंदी को छोड़ दें तो प्राइवेट संस्थानों में मेल व अन्य पत्राचार अंग्रेजी में ही होते हैं.

अंग्रेजी के बिना काम नहीं तो उसका विकल्प क्या हो सकता है, इस जवाब को ढूंढने के लिए हम महाराष्ट्र में रहते हुए तकनीक के क्षेत्र में सालों से काम कर रहे कपिल जोशी से सम्पर्क करते हैं.

कपिल कई तकनीकी संस्थानों में कैंपस सिलेक्शन के लिए जाते रहते हैं, कपिल कहते हैं कि वह कम्पनी में आने के लिए किसी के द्वारा दिए जा रहे साक्षात्कार के समय यह ध्यान रखते हैं कि उसे कंपनी में आने के बाद कम से कम संचार के साधनों का प्रयोग करने लायक अंग्रेजी तो आती ही हो क्योंकि मेल आदि जैसे कार्यों को समझने के लिए अंग्रेजी तो आवश्यक ही है बाकी का काम हिंदी में चल सकता है.

प्राइवेट संस्थानों की इस परंपरा को तोड़ने के लिए वरिष्ठ पत्रकार नीलेश मिश्रा ट्वीट करते हैं कि क्या मार्केटिंग की ईमेल हिंदी में आना आपको मंज़ूर है? क्या कॉरपोरेट मीटिंग में हिंदी बोला जाना आपको अखरता है?

फिर से हिंदी दिवस आ रहा है. एक नई शुरुआत करिए. जो साथी सिर्फ हिंदी जानते हैं वो कमतर महसूस किए बिना आपको ईमेल हिंदी में कर पाएं, इसकी शुरुआत करिए.

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हिंदी आसान होगी तभी लोकप्रिय होगी पर बेतुके अनुवाद से तो यह सम्भव नही.

हिंदी के लोकप्रिय लेखक अनुराग शर्मा कार्यालयी हिंदी के मुश्किल लगने के सवाल पर कहते हैं कि

'वह मुश्किल इसलिये लगती है क्योंकि कार्यालयी हिंदी का मतलब किताबी अंग्रेजी का बेतुका हिंदी अनुवाद रह गया है.'

इसी विषय पर पॉडकास्ट की दुनिया में अपना परचम लहराने वाले समीर गोस्वामी कहते हैं- 'भाषा संवाद का एक माध्यम है न कि अहम दिखाने का, आवश्यक यह नहीं कि आप किस भाषा में संवाद कर रहे हैं आवश्यक यह है कि जो संदेश आप पहुँचाना चाह रहे हैं ,वह भाव सहित दूसरे तक पहुँचना चाहिए.

भारत बहुभाषी देश है इसलिये यह थोड़ा आवश्यक हो जाता है कि सर्वमान्य एक भाषा हो ताकि संवाद सहजता से हो सके और उसके लिये हिंदी उपयुक्त भाषा प्रतीत होती है. बाकी हर भाषा में इतने कठिन शब्द हैं कि उनके प्रयोग से हम उस भाषा में सहज किसी भी व्यक्ति को असहज कर सकते हैं. एक उन्नत भाषा वही होती है जो सहज संवाद करने में सक्षम हो. अंग्रेजी विश्व स्तर पर स्वीकार्य हो रही है क्योंकि उसने अपने को सहज रखा है और लचीला भी.

अंग्रेजी ने अपने को विश्व स्तर पर स्थापित करने के लिये उन शब्दों को अपनाने में कोई कोताही नहीं बरती जो स्थानीय या वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य थे.

गुरु, चीता, कर्म, पैजामा, योगा, रायता, रोटी जैसे तमाम ऐसे शब्द हैं जो अंग्रेजी ने स्वीकार किए हैं. रेल या ट्रेन अंग्रेजी भाषा का शब्द है और उद्गम भी, हिंदी चाहती तो इसे ऐसे ही स्वीकार कर सकती थी लेकिन अपने को अलग और उन्नत दिखाने कि लिये किसी विद्वान द्वारा लोहपथगामिनी को हिंदी शब्दकोश में जोड़ दिया. इस ब्रह्माण्ड में किसी भी विकासोन्मुखी द्रव्य का आस्तित्व जब ही कायम रह सकता है जब वो लचीला हो, ये बात सभी पर लागू होती है चाहे वो मनुष्य हो, पेड़ और चाहे भाषा.

हम "मार्क टेलर" को मार्क टेलर के नाम से पुकारेंगे तो उचित होगा बेवजह हिंदी को उन्नत दिखाने के चक्कर में अगर हम उसे "निशान दर्जी" के नाम से पुकारेंगे तो हमारी भाषा और हम ही हंसी के पात्र बनेंगे मार्क टेलर नही.'

कार्यालयी हिंदी हो या अन्य जगह प्रयोग होने वाली हिंदी, हिंदी के बेतुके अनुवाद पर रोक लगने के बाद उसे लचीला बना कर ही इसका प्रचार प्रसार किया जा सकता है.

फिलहाल तो अपनों में ही बेगानी हिंदी

हिंदी की स्थिति ऐसी हो गई है कि सिविल सेवा परीक्षा और एनटीए नेट जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा में हिंदी माध्यम में परीक्षा दे रहे छात्रों से यह कह दिया जाता है कि हिंदी अनुवाद गलत होने की स्थिति में अंग्रेजी में लिखे को सही माना जाएगा.

हिंदी को इस तरह लगातार नजरअंदाज करते रहने का नतीजा हमें दिखने लगा है. सिविल सेवा परीक्षा परीक्षा में वर्ष 2010 तक, हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों में कम से कम तीन या चार उम्मीदवारों द्वारा शीर्ष 10 रैंकिंग प्राप्त की जाती थी. अब यह आंकड़ा शीर्ष 300 में भी नहीं है.

हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए इसे रोजगार की भाषा बनाना जरूरी है

कार्यालयों और शिक्षा क्षेत्र में बढ़ावा देने के साथ ही हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए उसे रोजगार की भाषा बनाना भी जरूरी है.

विज्ञान ,मेडिकल और कानून की पढ़ाई हिंदी में की जाएगी, तभी रोजगार की संभावनाएं बढ़ेंगी.

लोगों को अपनी पढ़ाई का विषय एमए हिंदी बताने में शर्म महसूस होती है इसलिए एमए साहित्य कह दिया जाता है. कुछ इसी तरह की हीन भावना कई बार हिंदी के शिक्षकों के अंदर भी घर कर जाती है.

वहीं आजकल विदेशी छात्र हिंदी को अधिक जिम्मेदारी से सीख रहे हैं.

हैदराबाद की रहने वाली और हिंदी विषय में शोध कर रही उषा यादव हिंदी अखबारों और फिल्मों को बढ़ावा देने की आवश्यकता महसूस करती हैं. वह तो यहां तक कहती हैं कि वैकल्पिक हटा कर हिंदी को अनिवार्य विषय बना देना चाहिए.

हिंदी प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यूट्यूब ,व्हाट्सएप कई जगह लोगों को रोजगार दे रही है. कोरोना काल में इंटरनेट का प्रयोग कर हिंदी से रोजगार प्राप्त करने वालों की संख्या बढ़ी है.

मीडिया के साथ-साथ अध्यापन ,विज्ञापन ,अनुवादक और पर्यटन के क्षेत्र में हिंदी में रोजगार की अथाह संभावना हैं.

विदेशी साहित्य के साथ-साथ देशी साहित्य का भी हिंदी अनुवाद उपलब्ध नहीं है, जिस कारण हम अपने ही साहित्य से अपरिचित हैं. हिंदी किताब 'रेत समाधि' के अनुवाद को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिलना भी तो हिंदी में अपार संभावनाओं की तरफ संकेत करता है.

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