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Hindi Diwas Special: साहित्य, संस्कृति और समाज चिंतन के क्षेत्र में बिना किसी महत्वाकांक्षा के खामोशी से काम करते रहने को यदि रचनात्मक साधना माना जाए, तो ऐसे साधनारत व्यक्तियों के विरल नामों में एक नाम है राजेन्द्र कुमार. उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता के बल पर हिन्दी (Hindi) जगत में जो स्थान प्राप्त किया है, वह किसी भी साहित्य प्रेमी के लिए एक प्रेरणा है.
उनके तीनों काव्य संग्रह - ‘ऋण गुणा ऋण’, ‘हर कोशिश है एक बगावत’ और ‘लोहा -लक्कड़’ अपने समय के तमाम सवालों, समस्याओं और विसंगतियों के प्रति एक सचेत और संवेदनशील मानव की प्रतिक्रियाएं हैं. उनका कहानी संग्रह ‘अनन्तर’ समाज में उपेक्षित वर्ग की दास्तान है. आलोचना के क्षेत्र में भी राजेन्द्र कुमार की समर्थ पहचान है.
प्रस्तुत है सादगी, सहजता और मृदु मुस्कान के धनी साहित्यकार राजेन्द्र कुमार से मेरी बातचीत की मुख्य बातें.
आपकी पहली साहित्यिक पाठशाला क्या थी?
दरअसल हमारे बाबा जी अंग्रेजी और फारसी दोनों भाषाओं के जानकर थे. जब मैं बाबा जी का हुक्का तैयार कर देता, तो वह पहला कश लेते ही तरंग में आ जाते और फिर कभी शेख सादी की गुलिस्तां-बोस्तां से कुछ सुनाते तो कभी फिरदौसी, मीर या गालिब जैसे शायरों का शिक्षाप्रद कोई कलाम. कभी उन्हें तुलसीदास की चौपाइयां याद आ जातीं, तो कभी बिहारी के दोहे.
मुझे याद आता है कि दूसरी या तीसरी बार जब मैं उनको एक दिन पढ़कर सुना रहा था तो रामचंद्र जी के वनवास का मार्मिक वर्णन पढ़ते हुए मेरा गला रुंध आया और मैं अटक गया. बाबा जी को दिखाई देना बंद हो चुका था, लेकिन उन्होंने अंदाजा लगा लिया और बोले - “क्या हुआ रजुआ! रुक क्यों गया?”
फिर स्वयं ही बोले- “ अच्छा! अभी तक तो तू तोते की तरह पढ़ता रहा, अब लगता है तुलसीदास का जादू असर कर रहा है ” , तो इस प्रकार से मेरी तरबियत शुरू हुई.
फिर कक्षा 6 से जी.आई.सी कानपुर में कुछ अध्यापकों का बहुत प्यार और प्रोत्साहन मिला. हर शनिवार को खाने की छुट्टी के बाद हॉल में सब बच्चे इकट्ठे हो जाते थे और कोई न कोई पाठ्येत्तर कार्यक्रम जैसे कविता पाठ, वाद-विवाद, निबंध प्रतियोगिता आयोजित कराई जाती. बाकायदा एक पीरियड हम लोगों को पुस्तकालय में भी जाकर बैठना होता था. उस समय जो भी किताबें पढ़ने को मिलतीं, उसमें सबसे पहले हम कविता ही पढ़ते थे. इस तरह से विद्यालय में भी अनुकूल माहौल मिला.
लेकिन अंत में, मैं यही कहूंगा कि जिंदगी और जिंदगी के अनुभवों से बढ़कर कोई पाठशाला नहीं होती है.
इलाहाबाद आपकी कर्म-भूमि कैसे बनी ?
उन दिनों कानपुर मजदूरों का शहर था, हमने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली और हमको सबसे पहला कार्य कम्युनिस्ट-साहित्य बेचने का सौंपा गया. मजदूर आंदोलनों में जब हम हिस्सा लेते तो कभी-कभी पुलिस थाने में भी बिठा लेती. यह सब देखकर हमारे बाबूजी बहुत परेशान होते कि लड़का बिगड़ रहा है.
तब तक मैं बी.एस.सी. करने के बाद एम.एस. सी. कर रहा था और बहुत सारे ट्यूशन शुरू कर दिए थे, तभी जी.एम.के. कॉलेज कानपुर में बतौर विज्ञान अध्यापक भी नियुक्त हो गए. मां थीं नहीं और कोई कुछ कह देता तो बहुत अखरता. कुल मिला कर घर के समायोजन में दिक्कत आ रही थी.
तो उनको मैंने एक चिट्ठी लिखी कि मैं इलाहाबाद आना चाहता हूं. उनकी संस्तुति पर मैं एक रुपये का बस टिकट लेकर इलाहाबाद के लिए निकल पड़ा.
अमृत राय जी के यहां प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन साहब (उर्दू विभागाध्यक्ष, इ.वि.वि.) भी आते थे. उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि मियां सिर्फ अदब (साहित्य) से पेट नहीं भरता, इसके लिए कुछ बेअदबी भी करो. अगले दिन वह हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू तीनों विषयों के एम.ए में प्रवेश के फार्म ले आये और बोले जिस लिस्ट में नाम पहले आ जाये उसमें दाखिला ले लेना. इस प्रकार से एम.ए- हिन्दी में मेरा एडमिशन हुआ.
एम.ए. करने के तुरंत बाद सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति हो गयी और फिर 1969 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गया. तो इस प्रकार कानपुरी से इलाहाबादी होने का सिलसिला बना.
आप अपनी रचनाओं को पाठक तक पहुंचाने से पहले किन कसौटियों पर रखते हैं?
पहली बात यह कि मुझे अच्छी तरह पता होना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है. दूसरी बात यह कि जब कोई रचना बन जाती है, तो उसे मैं तुरंत पाठक तक पहुंचाने की हड़बड़ी नहीं करता.
अन्तिम कसौटी यह कि जो हम लिख रहे हैं, वह कहीं किसी घटना की क्षणिक प्रतिक्रिया भर तो नहीं है?
‘जिंदगी अब भी लिए बैठी है सांसों की सुई,
उम्र काम आएगी धागे की तरह सीने में अब’
यह शेर भले ही मैंने अपनी पत्नी के न रहने पर लिखा हो, लेकिन मैं जानता हूं कि न जाने कितने लोग ऐसे होंगे जो इस बात को भविष्य में भी महसूस करेंगे और इस शेर के साथ जुड़ सकेंगे.
किसी भी समाज में साहित्य का क्या महत्त्व है और वर्तमान परिदृश्य में आम तौर पर लोगों की साहित्य से दूरी को आप किस प्रकार देखते हैं?
ऐसा लोग कहते रहे हैं कि अदब अथवा साहित्य किसी भी समाज को देखने का सबसे अच्छा आइना होता है लेकिन अदब को सिर्फ आइना मान कर भरोसा कर लेना भी पूरी तरह उचित नहीं है.
हां लैम्प की यह विशेषता होती है कि वह चीजों को दिखाता भी है और राह भी सुझाता है. इसी प्रकार से साहित्य भी यह दोनों जिम्मेदारियां निभाता है- हमको अपने समाज से परिचित कराता है, साथ ही यह भी बताता है कि चीजें वास्तव में कैसी होनी चाहिए.
अफसोस! अब यह एहसास धीरे- धीरे जाता रहा. पूंजीवादी व्यवस्था में आदमी के अस्तित्व का ही संकट है, तो फिर साहित्य पर संकट के बादल क्यों न हो?
पाठक यह जानना चाहेंगे कि उनके प्रिय राजेंद्र कुमार क्या और किसको पढ़ते हैं ? नए साहित्यकारों को इस बाबत आप कुछ मश्वरा देना चाहेंगे ?
मैं यह मान कर चलता हूं कि मैं हिंदी का लेखक जरूर हूं, पर यह भी सच है कि हिंदी मैंने बनाई नहीं. मुझे तो एक प्रकार से यह विरासत में मिली है. तो अगर हमने कोई चीज विरासत में ली है तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसको पढ़ें और जानें और फिर उसमें कुछ जोड़कर नयी पीढ़ी को सौपें.
इसलिए पहली बात तो यह कि जो पीछे काम हुआ है उसके महत्व को स्वीकार करना, उससे जुड़ना और जुड़ने के लिए जाहिर है कि उसको पढ़ना. कोशिश करनी चाहिए कि क्लासिकल साहित्य पढ़ें.
दूसरी बात यह कि अपने समय के रचनाकारों को भी न पढ़ें तो यह भी गुस्ताखी है. जब आप अपने समय से वाकिफ हैं, तभी आप अपने समय के हो सकते हैं. इसलिए पुराना पढ़ो और इसका एहसास भी रहे कि तुम्हारे सिवा भी लोग लिख रहे हैं.
आप जब 60 के दशक में इलाहाबाद आये, उस समय यहां की अदबी सरगर्मियां पूरे देश में गूंजती थीं. शायद अब ऐसा नहीं रहा , इसकी क्या वजह हो सकती है?
भई! इलाहाबाद भी तो देश और दुनिया के नक्शे पर ही है न? जो हमारे अधिकार थे, आज उन पर ही आंच है. हालांकि साहित्य फिर भी लिखा जाएगा, पर अनुकूल माहौल नहीं बन पाएगा, जिसमें अदब में कशिश पैदा करने की ताकत हो.
दूसरी बात यह कि अब आप और हम जरुरत से ज्यादा व्यस्त हो गए हैं. इस पूंजीवादी व्यवस्था में सबसे बड़ी चीज पैसा है. इस निजाम ने हमको घेरने के लिए ऐसी- ऐसी चीजें पैदा कर दी हैं कि आदमी उस से जब आजाद हो, तब साहित्य की तरफ जाए.
एक बात और, इलाहाबाद की पहचान थी यहां के साहित्यकार. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पूरब का ऑक्सफोर्ड कही जाती थी. अब हालात दूसरे हैं, कहने का आशय यह कि शहर सिर्फ इससे नहीं पहचाना जाता कि वहां की सड़कें कितनी चौड़ी हो गयीं हैं? पहले सड़कें भले ही चौड़ी न रही हों, दिल बड़े होते थे. अकबर इलाहाबादी का शेर भी है -
‘रक़बा तुम्हारे बाग़ का मीलों सही लेकिन
रक़बा तुम्हारे दिल का दो इंच भी नहीं’
हिंदुस्तानी एकेडेमी, साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाएं थीं. धर्मवीर भारती (धर्म युग), कमलेश्वर (सारिका) जैसे साहित्यकारों ने इलाहाबाद से बाहर रहते हुए भी यहां के अदीबों को खूब छापा और प्रोत्साहित किया. इस तरह के माहौल में वाकई साहित्य के लिए गुंजाईश थी, अवसर थे.
इसके बावजूद हम यह कहेंगे कि निराश नहीं होना चाहिए. पहले जैसा माहौल नहीं रह गया, ठीक है लेकिन जो माहौल है उस अनुपात में जो, जो कुछ कर सकता है वह कर रहा है. अभी भी लोगों के मन में एक संवेदना है कि इलाहाबाद के नाम के पीछे की जो सभ्यता है उसको खत्म न होने दें.
आप ने खुद को सिर्फ हिंदी भाषा तक ही सीमित नहीं रखा, इस बारे में पाठकों को कुछ बताएं.
कई जबानों में मेरी रसाई का सबसे पहला श्रेय तो मेरे बाबा हुजूर को जाता है, फिर उसके बाद अच्छी सोहबत - सुल्तान नियाजी, संत सिंह यूसुफ जैसों का साथ. बांग्ला हमने ‘दिनमान’ पत्रिका में प्रकाशित होने वाले नियमित पाठों से सीखी और रशन डिप्लोमा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से किया.
यह सब शायद उस एहसास के चलते कि हम हिंदुस्तानी हैं. भारतीयता को अगर अच्छी तरह समझना है तो एक हिंदुस्तानी को चाहे वह हिंदी भाषा का ही व्यक्ति क्यों न हो, उसको थोड़ा संस्कृत, और अगर फारसी न भी आए, तो उर्दू तो आनी ही चाहिए.
यदि हम हिंदी साहित्य से भी जुड़े हैं तब भी हमको टॉलस्टॉय, शेक्सपीअर, हेमिंग्वे सभी को पढ़ना है. अपने अध्ययन का दायरा बढ़ाना है, तो सिर्फ एक जबान के आने से काम नहीं चलेगा. मैं तो कहता हूं कि एक हिन्दी के अध्यापक को भी कम से कम ये तीन भाषाएं तो आनी ही चाहिए.
(वार्ताकार हैदराबाद स्थित एक आई.टी व इंजीनियरिंग सर्विसेज कम्पनी में निदेशक व स्तंभकार हैं)
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