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2019 में मदुरै में हॉरर किलिंग के पीड़ितों को लेकर एक वर्कशॉप हुई थी, इसे तमिलनाडु की कुछ यूनिवर्सिटीज ने कुछ गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर किया था.
वर्कशॉप में आपबीतियों के जरिए यह पता चला था कि हॉरर किलिंग के ज्यादातर शिकार अनुसूचित जाति, जनजातियों के लोग होते हैं. भले ही कानून अपराधियों को सजा दे दे लेकिन सामाजिक दमन खत्म नहीं होता, जिन्हें 100 करोड़ से ज्यादा कमाई करने वाली मराठी फिल्म सैराट या करण जौहर की हिंदी फिल्म धड़क का रोमांटिज्म बहुत पसंद आया था, उन्हें इसका क्लाइमेक्स भी याद ही होगा.
इस बकझक की जरूरत इसलिए है क्योंकि सरकारी संशोधन बिल बाल विवाह निषेध बिल, 2021 लोकसभा में पास हो चुका है और स्टैंडिंग कमिटी उस पर विचार कर रही है. बिल लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करता है.
सबसे पहले तो कम उम्र में शादियां कोई सामाजिक समस्या नहीं है. यह सामाजिक समस्या का लक्षण है.
समस्या समाज की संरचना में है- ये समस्या गरीबी है, अशिक्षा है. सरकार के खुद के आंकड़े, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-4) के आंकड़े बताते हैं कि 12 साल या उससे ज्यादा स्कूली पढ़ाई करने वाली लड़कियां देर से शादी करती हैं और आंकड़े यह भी कहते हैं कि अनुसूचित जाति, जनजातियों की लड़कियां गरीबी और अन्य दिक्कतों के चलते शिक्षा से महरूम रह जाती हैं.
15-49 साल की महिलाओं और स्कूली शिक्षा पर एनएफएचएस-4 के आंकड़े कहते हैं कि अनुसूचित जनजातियों की 42 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों की 33 प्रतिशत महिलाएं कभी स्कूल गई ही नहीं.
कम उम्र में शादी और मातृ मृत्यु दर की एक बड़ी वजह गरीबी ही है. खुद एनएफएचएस-4 के आंकड़े कहते हैं कि अगर गरीबी है तो 21 साल की उम्र में शादी के बावजूद मातृ और शिशु मृत्यु को रोकना मुश्किल होता है. देश में सबसे गरीब हाशिए पर मौजूद लोग ही हैं. यूएनडीपी और ऑक्सफोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव का पावर्टी इंडेक्स बताता है कि भारत में हर दूसरा आदिवासी और तीसरा दलित गरीब है.
सरकार के पास पर्याप्त आंकड़े हैं जो बताते हैं कि अगर 18 साल से उम्र तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया जाए तो कम उम्र में शादी की समस्या से निपटा जा सकता है. लेकिन 14-18 साल के बच्चे शिक्षा का अधिकार एक्ट के तहत नहीं आते और उनके स्कूल छोड़ने का सबसे ज्यादा खतरा होता है.
ऐसे में समस्याओं को हल करने के बजाय कानूनी फेरबदल किए जाएं तो इसका नुकसान उन्हें ही होगा, जिनकी हिफाजत करने के लिए कानून बनाए जाते हैं.
2006 के बाल विवाह निषेध एक्ट के तहत शादियां खत्म कराई जाती हैं. आईपीसी और पॉक्सो के तहत रेप और अपहरण के मामले दर्ज होते हैं. पॉक्सो जैसे कानूनों में तो स्वास्थ्यकर्मियों को पुलिस को उन मामलों की रिपोर्ट देनी पड़ती है कि जिनमें 18 साल की उम्र का कोई व्यक्ति अपने से बड़ी उम्र के किसी व्यक्ति के साथ सेक्सुअली एक्टिव है.
इसके अलावा कई राज्यों में धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों की मदद से इंटरफेथ शादियों को रोका जा रहा है.
इससे यह समझा जा सकता है कि शादी की न्यूनतम आयु 21 साल करने से ग्रामीण इलाकों में दलित और आदिवासी समुदायों को अपराधी साबित करना और आसान होगा. उन्हें शिकार बनाना, उनका नुकसान करना पहले से ज्यादा आसान होगा.
जैसा कि 2019 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के डेटा बताते हैं कि देश की जेलों में अंडरट्रायल कैदियों में बहुत बड़ी तादाद हाशिए पर पड़े समुदायों की है.
यानी इन समुदायों के धरे जाने की आशंका भी सबसे ज्यादा है, सजा तो बाद में मिलेगी.
दलित-आदिवासियों को नुकसान इसलिए भी ज्यादा होगा क्योंकि हमारे यहां शादियां कास्ट इश्यू ही हैं. जहां शादियां अरेंज की जाती हैं, वहां ज्यादातर स्टेटस क्यू बनाने की कोशिश की जाती है. शादियों के विज्ञापनों में यह खूब नजर आता है.
विज्ञापनों में जातियों के नाम होने के साथ एक जैसी पृष्ठभूमि, एक सी वैल्यू,एक सी कम्यूनिटी का इस्तेमाल करके, भी जाति के इश्यू को अदृश्य करने की कोशिश की जाती है. इससे प्रभुत्वशाली जातियां अपनी ताकत को सुरक्षित रखती हैं.
यही वजह है कि इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे में साफ था, इंटरकास्ट शादियां करने वाले परिवार देश में सिर्फ साढ़े पांच प्रतिशत ही हैं. चूंकि जन्म के समय मिली जाति और उपजातियां सोशल परामिड में ऊपर-नीचे मौजूद हैं और हेरारकी उसी से तय होती है.
अब चूंकि शादियां कास्ट इश्यू हैं, लड़कियों की न्यूनतम उम्र को 18 से बढ़ाकर 21 साल करने से किसी को अपराधी साबित करने का दायरा बढ़ जाता है. यानी दलित और आदिवासी लड़के लड़कियों और परिवारों को पुलिस थानों, और अदालतों के फेर में फंसने का और खतरा है.
वैसे स्टैंडिंग कमेटी बिल पर विचार करेगी, फिर लोकसभा में सिफारिशों पर काम होगा और वह राज्यसभा में पास होगा.
राष्ट्रपति की सहमति मिलने और अधिसूचित होने की तारीख के दो साल बाद इसके प्रावधान लागू होंगे. तब तक आलोचक चिल्लाते रहेंगे और सरकार लोगों को इस भुलावे में रखेगी कि उसने महिला सशक्तीकरण का एक और तमगा हासिल कर लिया है.
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