मोदी सरकार (Modi Government) ने शादी के लिए लड़कियों की उम्र (Girls Marriage Age) 18 से बढ़ाकर 21 साल करने का फ़ैसला किया है. सरकार संसद (Parliament) के शीतकालीन सत्र में ही इसका विधेयक पारित कराना चाहती थी. लेकिन विपक्षी दलों के एतराज़ के चलते ऐसा नहीं हो सका और विधेयक संसदीय समिति को भेज दिया गया. सरकार के इस प्रस्ताव पर देशभर में राजनीतिक बहस छिड़ गई है. सरकार इसे महिला सशक्तिकरण की दिशा मे उठाया गया महत्वपूर्ण क़दम बता रही है तो विपक्ष इसे लेकर कई तरह के सवाल उठा रहा है. उधर मुस्लिम संगठनों और नेताओं ने इसे अलग रंग दे दिया है.
मोदी सरकार के इस फैसले की ख़बर आने के बाद कई मुस्लिम नेताओं ने बेतुके और बेहद आपत्तिजनक बयान दिए. सपा के सांसदों शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ और एसटी हसन ने तो ऐसी बातें कहीं जिनसे महिलाओं के प्रति उनकी घटिया सोच ही सामने आई. झारखंड के मुस्लिम मंत्री हफ़ीज़ुल हसन ने भी लगभग ऐसी ही बाते कहीं.
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी मोदी सरकार के इस फैसले पर और इसके पीछे सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठाए. इन तमाम नेताओं ने शादी के लिए लड़कियों की उम्र 18 से 21 साल करने की जगह उसे और कम 16 साल करने की मांग की. सभी का एक सुर में तर्क है कि इस्लाम और अन्य धर्मों ने शादी की कोई उम्र तय नहीं की है लिहाज़ा सरकार को भी इस चक्कर मे नहीं पड़ना चाहिए.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक क़दम और आगे बढ़ गया. उसने बाक़यदा बयान जारी करके इस फैसले पर गंभीर सवाल उठाए हैं. बोर्ड के इस क़दम के बाद ऐसा लगने लगा है मानो मोदी सरकार का ये फ़ैसला मुसलमानों के ख़िलाफ़ है. ग़ौरतलब है कि बोर्ड में तमाम मुस्लिम संगठन शामिल हैं. बोर्ड ख़ुद को देशभर के मुसलमानों का प्रतिनिधि मानता है.
लिहाज़ा ये माना जाना चाहिए कि तमाम मुस्लिम संगठन इसका विरोध कर रहे हैं. इन संगठनों का कहना है कि शादी की उम्र तय करना सरकार का काम नहीं है. इस बारे में फ़ैसला मां-बाप के विवेक पर ही छोड़ देना चाहिए. उन्हें जिस उम्र में बेहतर लगे, वो अपने बच्चों की शादी करें. ये तर्क बेहद अटपटा है. लिहाज़ा हमें देखना होगा कि शादी की उम्र को लेकर इस्लामी क़ानून यानि शरीयत क्या कहती है और मुस्लिम देशों में इसे लेकर क्या स्थिति है?
क्या है ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का एतराज़
बोर्ड ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने के प्रस्ताव को व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप क़रार दिया है. साथ ही बोर्ड ने शादी की उम्र तय करने से परहेज करने का आग्रह किया है. बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफ़ुल्लाह की तरफ़ से जारी किए गए बयान में कहा गया है कि शादी जीवन की बहुत महत्वपूर्ण आवश्यकता है लेकिन विवाह की कोई उम्र तय नहीं की जा सकती क्योंकि यह समाज के नैतिक मूल्यों के संरक्षण और नैतिक वंचना से समाज के संरक्षण से जुड़ा मामला भी है. बयान में आगे कहा गया है कि इस्लाम समेत विभिन्न धर्मों में शादी की कोई उम्र तय नहीं की गई है.
बोर्ड ने बाक़ायदा अपने आधिकारिक ट्वीटर हैंडल पर बयान जारी करके सरकार से इस फैसले पर आगे नहीं बढ़ने का आग्रह किया है.
बोर्ड को समाज में अपराध बढ़ने की आशंका
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का मानना है कि लड़के-लड़कियों की शादी का फैसला पूरी तरह से उनके अभिभावकों के विवेक पर निर्भर करता है. अगर किसी लड़की के अभिभावक यह महसूस करते हैं कि उनकी बेटी 21 साल की उम्र से पहले ही शादी के लायक़ है और वह शादी के बाद की अपनी तमाम जिम्मेदारियां निभा सकती है तो उसे शादी से रोकना क्रूरता है.
ये किसी वयस्क की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप भी है. इससे समाज में अपराध बढ़ने की भी आशंका है. बोर्ड का मानना है कि लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 18 साल से बढ़ाकर 21 साल किया जाना और निर्धारित उम्र से पहले विवाह करने को अवैध घोषित किया जाना ना तो लड़कियों के हित में है और ना ही समाज के. बल्कि इससे नैतिक मूल्यों को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है.
क्या कहता है इस्लामी क़ानून यानि शरीयत?
शरीयत यानि इस्लामी क़ानूनों का पहला और सबसे प्रामाणिक स्रोत क़ुरआन है. इसमें शादी के लायक लड़के और लड़कियों की फौरन उनकी शादी करने का हुक्म है. लेकिन ये नहीं बताया गया है कि किस उम्र में शादी की जाए. कई हदीसों में मुहम्मद साहब ने कहा है कि शादी लायक़ हो जाने पर लड़के और लड़कियों की शादी प्राथमिकता के तौर पर करनी चाहिए. उन्होंने भी किसी हदीस में ये साफ़ नहीं किया कि शादी की सही उम्र क्या होनी चाहिए.
उस ज़माने कम उम्र में ही शादियां हुआ करती थी. यह सही है कि मुहम्मद साहब और उनके बाद चार ख़लीफाओं ने भी शादी के लिए कोई उम्र तय नहीं की थी. मुहम्मद साहब के दुनिया से कूच कर जाने के क़रीब सौ साल बाद हुए चार इमामों ने शादी के लिए लड़के और लड़कियों की उम्र तय की है.
अलग-अलग है इमामों की राय
सुन्नी मुस्लिम समाज में चार इमामों की मान्यता है. इमाम शाफई और इमाम हंबली के मुताबिक़ लड़के और लड़कियों के लिए शादी की सही उम्र 15 साल है. इमाम मालिकी ने 17 साल की उम्र को शादी के लिए सही माना है. इमाम अबू हनीफ़ा ने लड़कों के लिए शादी की उम्र 12 से 18 साल तय की है और लड़कियों के लिए 9 से 17 साल. शरीयत यानि इस्लामी क़ानून में शादी की उम्र का आधार ल़ड़के और लड़की का शारीरिक और मानसिक रूप से बालिग़ होना माना गया है.
इमाम अबू हनीफ़ा के मुताबिक़ हर लड़के और लड़की के बालिग़ होने की उम्र अलग-अलग होती है. लिहाज़ा बालिग होने पर उनकी शादी कर दी जाए. इमाम जाफ़री ने लड़के की शादी की सही उम्र 15 साल और लड़की की 9 साल मानी है. इमाम जाफरी को शिया मुसलमान मानते हैं.
क्या अंतिम फैसला है इमामों की राय?
लेकिन सवाल पैदा होता है कि क्या हज़ार साल से ज़्यादा समय पहले तय की गई शादी की उम्र पत्थर की ऐसी लक़ीर है जिसे मिटाया न जा सके या फिर जिसे बदला न जा सके, ऐसा बिल्कुल नहीं है. 1917 में तुर्की की ख़िलाफ़त ने जब इस्लामी क़ानून बनाए तो सभी इमामों की राय को दरकिनार करते हुए लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों के लिए 17 साल तय की.
इससे कम उम्र में शादी की इजाज़त उसी सूरत में थी जब लड़के और लड़की का बालिग़ होना अदालत में साबित हो जाए. मिस्र ने भी काफी समय पहले लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों के लिए 16 साल कर दी थी. ज़्यादातर इस्लामी देशों में शादी की उम्र पर इमामों की राय को दरकिनार कर तातकालीन परिस्तथितियों के हासाब से फैसला किया गया.
इस्लामी दुनिया में क्या है स्थिति?
सउदी अरब दुनिया का एक मात्र देश है जो क़ुरआन को ही अपना संविधान मानता है. वो पूरी दुनिया में इस्लामी हुकूमत का प्रतीक है. सऊदी अरब में हाल के ही कुछ साल पहले तक लड़कियों के लिए शादी की उम्र 15 साल थी. लेकिन 2019 में सऊदी सरकार ने इसे बढ़ाकर 18 साल कर दिया. पिछले साल 2020 में सऊदी अरब ने 18 साल से कम उम्र में लड़कियों की शादी पर पूरी तरह पाबंदी लगी दी और इसे ग़ैर कानूनी क़रार दे दिया.
वहां की सरकार ने यह कदम बाल विहाह की ग़लत परंपरा को रोकने के लिए उठाया है. हाल के बरसों में अन्य मुस्लिम और इस्लामी हुकूमत वाले देशों में भी बाल विवाह रोकने के लिए लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाई गई है. इस मामले में दुनियाभर में मुसलमान खुले दिल और दिमाग़ से सोच रहे हैं.
पाकिस्तान की शीर्ष इस्लामी अदालत बनी मिसाल
दो महीने पहले पाकिस्तान की शीर्ष इस्लामी अदालत ने फैसला सुनाया है कि लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित करना इस्लाम की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ नहीं है. अदालत ने एक याचिका को ख़ारिज कर दिया. इसमें बाल विवाह निरोधक कानून की कुछ धाराओं को चुनौती दी गई थी.
इस फैसले से बाल विवाह पर सदियों से जारी विवाद सुलझ सकता है. दरअसल ये विदाद कट्टरपंथी मुसलमानों के इस तर्क से उपजा है कि इस्लाम ने शादी के लिए कोई उम्र तय करने की अनुमति नहीं दी है. मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद नूर मिस्कनजई की अध्यक्षता वाली संघीय शरीयत न्यायालय (एफएससी) की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम (सीएमआरए) 1929 की कुछ धाराओं को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की थी. इस पीठ ने साफ कहा कि इस्लामी राज्य में लड़कियों की शादी के लिए कोई न्यूनतम आयु तय करना इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं है.
भारतीय मुस्लिम संगठन क्यों नहीं दिखाते उदार रवैया
सवाल पैदा होता है कि आख़िर भारतीय मुस्लिम संगठन इस मसले पर उदारत से क्यों नहीं सोचते. क्यों वो सदियों पहले तय गई उम्र की सीमाओं में ही बंधे रहना चाहते हैं. मुस्लिम सांसदों और नेताओं के बेतुके बयानों से तो ऐसा लगता है कि मुसलमानों को अपनी लड़कियों की जल्द शादी करने के लिए बस उनके बालिग़ होने का इंतेज़ार रहता है.
सच्चाई ये है कि पढ़े-लिखे मुसलमनों में आमतौर पर लड़के और लड़कियों की शादियां 25 साल से ज़्यादा की उम्र में ही होती हैं. अगर मुस्लिम समाज में पहले से ही शादी की उम्र को लेकर खुलापन आ गया है तो फिर मुस्लिम संगठनों के सरकार के फैसले पर एतराज़ का क्या औचित्य रह जाता है? ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का ये कहना एकदम ग़लत है कि शादी की उम्र तय करन इस्लाम के ख़िलाफ़ है. ये एक बेतुका और बेमतलब का तर्क है.
दुनिया भर में बाल विवाह रोकने के लिए समय-समय पर शादी की उम्र बढ़ाने का फैसला हुआ है. इस्लामी हुकूमत वाले देश भी शादी की उम्र तय करने और समय-समय पर इसमें बदलाव करते रहे हैं. सवाल पैदा होता है कि भारत में भी सरकार बाल विवाह रोकने के लिए लड़कियों की शादी उम्र 18 से बढ़ा कर 21 साल करना चाहती है तो इसमें क्या हर्ज है.
अगर सौ साल पहले मुस्लिम हुकूमतें उस दौर के सामाजिक हालात और ज़रूरतों के हिसाब से शादी की उम्र बढ़ा सकती थीं तो आज मुस्लिम समाज मौजूदा हालात के हिसाब से इसमें बदलाव को क्यों तैयार नहीं है. जब मुस्लिम लड़कियां सरकार के इस फैसले पर ख़ुशी जता रही हैं तो फिर मौलवी और मुस्लिम नेता और धार्मिक संगठन इस पर एतराज़ करने वाले कौन होते हैं?
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