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लाखों की भीड़, गलाकाट कंपीटिशन से पार पाकर देशभर से कुछ चुने हुए कैंडिडेट ही IIT पहुंचते हैं. IIT पहुंचना मतलब बेहतर 'भविष्य' की गारंटी लेकिन इसके बावजूद भी छात्र अपनी पढ़ाई बीच में क्यों छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले दो सालों में देश के 23 IITs के 2461 छात्रों ने अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी. इसमें अंडरग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट दोनों ही कोर्सेज के छात्र शामिल हैं.
क्विंट हिंदी ने इसकी वजह का पता लगाने के लिए अलग-अलग IITs में पढ़ चुके छात्रों और कुछ एक्सपर्ट्स से बात की. ज्यादातर का कहना है कि IITs बीच में छोड़ देने का केस सबसे ज्यादा पोस्ट ग्रेजुएशन यानी M.Techऔर पीएचडी जैसे कोर्सेज में देखे जाते हैं.
IIT रुड़की से पास आउट वीरेंद्र तिवारी जो फिलहाल, गुड़गांव की एक रियल एस्टेट कंपनी में काम करते हैं उनका कहना है.
इंडियन ऑयल में काम कर रहे हिमांशु पांडेय ने साल 2013 में GATE क्वॉलीफाई किया था. ऑल इंडिया रैंक थी-21. ऐसे में किसी भी IIT में उन्हें एडमिशन आसानी से मिल जाता. लेकिन उन्होंने IISc बेंगलुरु को चुना. फिर कुछ महीने बाद ही उन्हें घर की जिम्मेदारियों के कारण इंस्टीट्यूट छोड़ना पड़ा.
IIT खड़गपुर से पास आउट राजेश सोनी वेदांता ग्रुप में बतौर लीड जियोफिजिसिस्ट काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि कभी-कभी आईआईटी के स्टेटस को ध्यान में रखते हुए छात्र अच्छे संस्थान से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए आईआईटी आ जाता हैं.
यहां एक और बात बता दें कि सिर्फ पोस्ट ग्रेजुएशन वाले छात्र ही नहीं IIT से Btech कर रहे छात्र भी कॉलेज छोड़कर गए हैं. IIT कानपुर से पासआउट अमेंद्र का कहना है कि सिलेबस का प्रेशर भी एक फैक्टर है. कुछ स्टूडेंट्स इसे झेल नहीं पाते हैं.
एक बड़ा फैक्टर ये भी है किअंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में 12वीं तक की पढ़ाई करने वाले छात्रों को IIT में आकर सबसे पहली लड़ाई ‘अंग्रेजी’ से ही लड़नी पड़ती है. सिलेबस का तनाव तो अलग है, पहले भाषा की बाधा से पार पाने में उन्हें दो चार होना पड़ता है. हालांकि, IIT दिल्ली जैसे संस्थानों में इसके लिए उपाय किए जा रहे हैं. इंग्लिश सुधारने की दिशा में भी छात्रों की मदद की जा रही है.
पिछले 2 साल में जितने छात्रों ने IITs छोड़ा है उनमें से 47 फीसदी रिजर्व्ड कैटेगरी से हैं. IIT रुड़की के एक छात्र जो खुद रिजर्व्ड कैटेगरी से हैं, नाम नहीं बताने की शर्त पर कहते हैं,
वो ये भी कहते हैं कि इसका मतलब ये नहीं है कि जातिगत भेदभाव नहीं है. 'भेदभाव हर जगह है' वो अपने साथ हुई एक घटना का जिक्र करते हैं.
IIT से ही पढ़े एक और छात्र कहते हैं फर्स्ट ईयर और फाइनल ईयर में जाति का प्रेशर तो झेलना ही पड़ता है.
फर्स्ट ईयर में कभी-कभार कोई न कोई बोल ही देता है कि 'कैटेगरी' से हो, तो बुरा लगता है. फाइनल ईयर में जब प्लेसमेंट का दौर होता है ,उस वक्त कंपीटिशन ज्यादा होता है, रिजर्व्ड कैटेगरी के किसी ऐसे कैंडिडेट को नौकरी पहले मिल गई, जिसकी इमेज पढ़ाई को लेकर कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी, तो भले ही उसके मुंह पर न कहा जाए, लेकिन बात तो शुरू हो ही जाती है-जनरल-रिजर्व्ड कैटेगरी की.
हालांकि, इन सबके बावजूद वो ये कहते हैं कि जाति की वजह से कॉलेज से छोड़कर चले जाना वाली बात समझ नहीं आती.
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