Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: देश तोड़ती है सांप्रदायिकता, ओलंपिक से जुड़े मुद्दों की अनदेखी न करें

संडे व्यू: देश तोड़ती है सांप्रदायिकता, ओलंपिक से जुड़े मुद्दों की अनदेखी न करें

संडे व्यू में प्रताप भानु मेहता, दत्तात्रेय होसबले, टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, चेतन भगत के विचारों का सार

क्विंट हिंदी
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>नामचीन लेखकों के आर्टिकल का सार</p></div>
i

नामचीन लेखकों के आर्टिकल का सार

(फोटो: Altered by Quint)

advertisement

विभाजनकारी है सांप्रदायिकता

प्रताप भानु मेहता द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि 20 के दशक में जब उपनिवेशवाद चरम पर था, गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत पहुंचे और उन्होंने इसके खिलाफ जिन राजनीतिक शब्दों को गढ़ा उसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. कांग्रेस को जनता से जोड़ते हुए गांधी ऐसे नेता के रूप में उभरे जिन्होंने जनता के मन में डर को खत्म किया. अंबेडकर ने सामाजिक रूप से दबे-कुचले लोगों की बात उठायी और उच्च नैतिक आधार को सामने रखा. कई और विचारधाराएं भी थीं. मगर, मानवता का सवाल सबसे ऊपर रहा. कोई उदार था, कोई क्रांतिकारी, कोई रूढ़िवादी था, तो कोई कुछ और, लेकिन सबको एक साथ जुटाने की रचनात्मकता महात्मा गांधी ने दिखलायी.

मेहता लिखते हैं कि बंगाल उम्मीदों का प्रदेश बनकर उभरा. कवि से लेकर नोबेल विजेता वैज्ञानिक तक ने यहां जन्म लिया और ऐसा लगा कि नये भारत का उदय हो रहा है. उद्योग से लेकर नये विचार जन्म ले रहे हैं. मगर, इसी समय देश में सांप्रदायिकता का जहर भी मजबूत हो रहा था.

धर्मांतरण और घर वापसी, गौ-माता, सूअर जैसे मुद्दे नफरत को बढ़ाते हुए उठने लगे थे. सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर विभाजन गहरा होने लगा. दो राष्ट्र उभरे. विभाजन और आजादी का गवाह बना 1947. हमने लोकतंत्र की राह चुनी. नयी सदी में भारत के आर्थिक विकास को गति मिलती दिखी. मगर, एक बार फिर हम गौ-रक्षा, लव जिहाद जैसे नये नफरती ध्रुव की ओर 1930 के युग में लौटते दिख रहे हैं. यह सीख भी साफ है कि सांप्रदायिकता हमेशा राष्ट्र को तोड़ती है. सांप्रदायिकता के बीच इंसान का एक समूह खतरा बना दिखता है. दोनों अवसर होते हैं खुद को मजबूत करने के भी और एक बार फिर बंटवारे के भी, जिस दिशा में हम बढ़ रहे हैं वह निराशाजनक है.

ओलंपिक से जुड़े वास्तविक मुद्दों की अनदेखी न करें

चेतन भगत द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि 7 ओलंपिक मेडल विजेताओं को बधाई और उस ओलंपिक दल को भी जिसने खेल में हिस्सा लिया और कठिन मेहनत, अनुशासन व समर्पण दिखलाया. मगर, हम चर्चा करने जा रहे हैं ओलंपिक के स्याह पक्ष की. ओलंपिक में मेडल जीतने का मतलब दुनिया में चैंपियन होना जरूर होता है, लेकिन ओलंपिक का आयोजक कोई देश नहीं, एक संस्था है- इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी. यह इस आयोजन से 5 अरब डॉलर की कमाई करता है लेकिन खिलाड़ियो को इसका फायदा नहीं मिलता.

चेतन भगत बताते हैं कि हर मेजबान शहर को ओलंपिक की वजह से भारी नुकसान झेलना पड़ा है. 2004 में एथेंस ओलंपिक के कारण ग्रीस आर्थिक संकट में फंस गया और आज तक उबर नहीं पाया है. ओलंपिक के लिए रियो में बने स्टेडियम बर्बाद हो चुके हैं. टोक्यो को भी अरबों का नुकसान होगा.

लेखक सवाल उठाते हैं कि इतना बड़ा आयोजन कुछ हफ्तों में खत्म हो जाता है और फायदे में होता है केवल आईओसी. लेखक बताते हैं कि डोपिंग मामले में रूस पर प्रतिबंध लगा, लेकिन आरओसी के झंडे तले रूसी खिलाड़ियों को ओलंपिक में शामिल होने दिया गया. क्या यह उचित था?

चेतन भगत का मानना है कि खेल के दौरान बुरे बर्ताव के मामले भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते. मेडल के लिए तरस रहे भारत जैसे देशों को यह भी सोचने की जरूरत है कि इसके लिए हम बच्चों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव नहीं कर सकते. 13 साल के बच्चे को 6-6 घंटे मेहनत कराकर जिम्नास्ट बनाना जुल्म है. अमेरिका ने सबसे ज्यादा मेडल जरूरत जीत लिए, लेकिन ये मेडल देश की फिटनेस क्षमता को नहीं दर्शाती. ओलंपिक का आयोजन यह सवाल भी उठाता है कि क्या खेल सबको समान अवसर देता है? ओलंपिक का आनंद जरूर लीजिए मगर वास्तविक मुद्दों से नजरें भी ना फेरें.

आर्थिक मोर्चे पर चिंता में देश

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि आजादी का 75वां साल इस चिंता के साथ शुरू हुआ है कि महामारी से पहले जो जीडीपी थी उस स्तर पर हम कब पहुंचेंगे. 1991 से 2004 के बीच देश की जीडीपी चार गुणा बढ़ गयी थी. मगर, 2014 के बाद से यह हिचकोले खा रही है. आरबीआई खरी बात नहीं कर रहा. 6 अगस्त 2021 को आरबीआई की समीक्षा से वास्तविक आर्थिक हालात का पता नहीं चलता. 2021-22 में चार तिमाहियों के आंकड़ों से साफ है कि अर्थव्यवस्था में सुधार का स्वरूप वी आकार रहने वाला नहीं है.

पी चिदंबरम लिखते हैं कि महंगाई के आंकड़ों से भी पता चलता है कि खाद्य महंगाई बढ़ी है, इंधन महंगी हुई है. पेट्रोल और डीजल पर करों में कटौती की जरूरत आ पड़ी है.

सीएमआइई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि शहरों में बेरोजगारी दर 8.79 फीसदी और ग्रामीण बेरोजगारी की दर 6.86 फीसदी है. गांवों में अस्थायी रोजगार बढ़ने और शहरों में पक्की नौकरी छूटने की खबर चिंताजनक है. इकॉनोमिस्ट पत्रिका ने आशंका जतायी है कि कोविड-19 के कारण बढ़ता संरक्षणवाद देश में विकास में वृद्धि की दर को लंबे समय के लिए धीमी कर सकता है. भारत के प्रबंधक चुनौती भरे हालात की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं और हम दोनों मोर्चों पर पीछे जा रहे हैं. आखिर में लेखक चिंता जताते हुए स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं सामने रखते हैं.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

स्वतंत्रता दिवस पर क्या प्रधानमंत्री गलती मानेंगे?

तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में 15 अगस्त के दिन बीते वर्षों का जायजा लेती हुई लिखती हैं कि जितना बुरा साल बीता वर्ष रहा है, उतना बुरा पहले कोई और नहीं था. वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में प्रधानमंत्री ने कहा था कि दुनिया भारत से सीख ले सकती है, जिसने कोविड को हराया है. ऐसा लगा जैसे आत्मनिर्भरता का भूत उन पर सवार था जिस वजह से टीकों के लिए ‘वोकल फॉर लोकल’ का इंतजार किया गया.

टीकों का अभाव हुआ तो खरीदारी मुख्यमंत्रियों के हवाले कर दी. इतने में कोविड की दूसरी लहर आ पहुंची. तब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बंगाल जीतने में लगे हुए थे. जल्द ही पता लगा कि ऑक्सीजन की कमी से भी मौत हो रही है. जब लहर थोड़ी शांत हुई तो वर्चुअल रूप में आंसू पोंछते हुए दिखे प्रधामंत्री. मगर, जल्द ही आंकड़े छिपाए जाने लगे.

तवलीन सिंह ने लिखा है ‘धन्यवाद मोदीजी’ के पोस्टर भी दिखने लगे. वाराणसी में कह बैठे कि उत्तर प्रदेश ने कोविड पर काबू पाने में सबसे अच्छा काम किया है. गंगाजी में लाशें, रेतीली कब्रों मे लाशें... सब झूठ थे? कोविड की बात करते-करते प्रधानमंत्री राष्ट्रवाद की बात करने लगे. इससे बीजेपी के कार्यकर्ताओं को हिम्मत मिली और जंतर-मंतर पर वे मुसमलानों को ‘काटने’ की बात करने लगे.

अर्थव्यवस्था में ऐसी मंदी छाई हुई है कि 2022 तक बदलने के आसार नहीं दिखते. अब बीमारी नहीं बेरोजगारी बड़ी समस्या दिख रही है. शहरों में काम नहीं हैं और लोग गांवों की ओर बढ़ चुके हैं. लेखिका ने पूछा है कि लाल किले से प्रधानमंत्री क्या अपनी गलतियां स्वीकार करेंगे? जनता के जख्मों पर मलहम लगाने की कोशिश करेंगे? हालांकि लेखिका को ऐसी कोई उम्मीद नहीं है. वह लिखती हैं कि प्रधानमंत्री यही साबित करेगे कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चल रहा है.

महत्वाकांक्षी हो रहा है टाटा समूह

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि टाटा समूह की गतिविधियां महत्वाकांक्षी होती दिख रही है. बीते एक साल में कार बाजार में टाटा मोटर्स की भागीदारी दुगुनी हो चुकी है. स्टील की कीमतों में उछाल से भी टाटा को लाभ हुआ है. टाटा समूह में टाटा कंसल्टेंसी पर निर्भरता घटी है और यह 90 फीसदी से घटकर दो तिहाई रह गयी है. हाल के दिनों में टाटा ने सबको चौंकाया है और चार-पांच नये क्षेत्रों में पहल की है. रक्षा और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी इसमें शामिल है. इसके अंतर्गत मालवाहक विमान, लडाकू विमानों के पंख, हेलीकाप्टरों का ढांचा, विभिन्न प्रकार के हथियारबंद और रक्षा उपकरणों से लैस वाहन, तोप, ड्रोन और विभिन्न प्रकार के हथियार बनाना आदि शामिल हैं.

टाटा स्टील ‘सुपर ऐप’ के माध्यम से डिजिटल जगत में उपभोक्ताओं से जुड़े कारोबारों को सेवा देने की तैयारी में भी जुटा है. उसकी ताजा घोषणा चिप निर्माण में प्रवेश की है. टाटा समूह इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में आगे बढ़ने के अलावा एअर इंडिया के अधिग्रहण का प्रयास भी करने वाला है.

इन सबका अर्थ है कि टाटा समूह विभिन्न वैश्विक कारोबारियों- एमेजॉन, वॉलमार्ट, इंटेल, सैमसग- की तरह दूसरे के दबदबे वाले क्षेत्रों में समांतर पहल कर रहा है. यह आश्चर्यजनक है क्योंकि टाटा समूह ध्यान केंद्रित करने की बात करता रहा है. यह बदलाव संभवत: इसलिए हो रहा हो क्योंकि पूंजी की जरूरत वाले कारोबारों में जोखिम बढ़ता जा रहा है. टाटा एलेक्सी के शेयर की कीमत चार गुना हो गयी है. सरकार नकदी और टैरिफ संरक्षण दे रही है लेकिन अवसर की तरह दिख रहा कारोबार जरूरी नहीं कि इसलिए फायदेमंद हो कि सरकार बढ़ावा दे रही है. टाटा समूह को इस बात पर भी ध्यान देना होगा.

उपनिवेशवाद से आजादी का उत्सव

दत्तात्रेय होसबले हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि भारत उपनिवेशवाद से आजादी का उत्सव मना रहा है. इस दौरान 75 साल की यात्रा की समीक्षा भी होगी. स्वधर्म, स्वराज और स्वदेशी के रूप में स्व की भावना के साथ उपनिवेशवादी दासता के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन परवान चढ़ा था. सदियों से ‘स्व’ की भावना हमारी ताकत और प्रेरणा रही है. विदेशी शक्तियों को इसी ताकत से कदम-कदम पर जूझना पड़ा. विदेशी शक्तियों ने भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक व्यवस्था को रौंद डाला और गांवों की आत्मनिर्भरता खत्म कर दी.

होसबले लिखते हैं कि विश्व इतिहास में भारत का यूरोपीय ताकतों के खिलाफ प्रतिरोध उल्लेखनीय है. सशस्त्र संघर्ष और सामाजिक रचनात्मकता दोनों रूपों में यह लड़ाई जारी रही. 1857 का देशव्यापी स्वतंत्रता संघर्ष भुलाया नहीं जा सकता.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, शांति निकेतन, गुजरात विद्यापीठ, एमडीटी हिन्दू कॉलेज तिरुनेलवेल्ली, कार्वे शिक्षण संस्था, डेक्कन एजुकेशन सोसायटी और गुरुकुल कांगड़ी जैसी संस्थाओं ने छात्रों और युवाओं के बीच देशभक्ति की भावना का संचार किया. विज्ञान, कला, पत्रकारिता के क्षेत्र में देश प्रगति की ओर बढ़ा. वहीं, आध्यात्मिक सीख महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरबिन्दो ने दी. गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव भी जारी रहे. सामाजिक समानता के लिए बीआर अंबेडकर ने संघर्ष की राह दिखलायी.

भारतीय सामाजिक जीवन का कोई भी क्षेत्र महात्मा गांधी के प्रभाव से अछूता नहीं रहा. आजादी की लड़ाई में 400 भूमिगत संगठनों ने हिस्सा लिया. लेखक ने केशव बलिराम हेडगेवार का भी जिक्र किया है जिन्होंने कांग्रेस से जुड़कर संघर्ष आरंभ किया. 1920 में पूर्ण स्वराज की आवाज 1929 में लाहौर अधिवेशन में स्वीकार की गयी.सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज और पहली भारत सरकार का उल्लेख भी लेखक ने किया है. आजादी का फूल तो खिला लेकिन विभाजन का ग्रहण भी हम पर लग गया.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT