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आजादी से पहले भारत की विविधता, जातिवाद और दूसरे पहलुओं को लेकर लगातार यह कहा जा रहा था कि एक स्वाधीन भारतीय राष्ट्र का जन्म असंभव है. इस विचार को प्रमुखता से आगे रखने वालों में से एक शख्स थे- सर जॉन स्ट्रेची. स्ट्रेची ने भारतीय उपमहाद्वीप में कई साल बिताए थे और वह आखिर में गवर्नर-जनरल के काउंसिल के सदस्य तक बने थे.
स्ट्रेची के मुताबिक, यूरोप के देशों के बीच भी आपसी अंतर उतना ज्यादा नहीं था, जितना हिंदुस्तान के ‘इलाकों’ के बीच था. अपने इस विचार के तहत एक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था, ''पंजाब और बंगाल की तुलना में स्कॉटलैंड और स्पेन ज्यादा नजदीक हैं.''
रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में बताया है कि स्ट्रेची जब अपनी इस राय पर जोर दे रहे थे, उसी वक्त इस राय को कुछ भारतीय अपने काम से चुनौती दे रहे थे. इन भारतीयों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नाम के एक प्रतिनिधि संगठन की स्थापना की और प्रशासन के मामलों में भारतीयों को ज्यादा अधिकार देने की मांग की.
इस दौरान कुछ ऐसे ब्रिटिश राजनीतिज्ञ और विचारक भी थे जिन्होंने भारतीयों के अपने शासन का समर्थन किया था. (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई योजनाकारों में से एक एओ ह्यूम ऐसे ही अंग्रेज थे जो स्कॉट माता-पिता की संतान थे.)
उधर, स्ट्रेची की राय का समर्थन करने वाले भी कम लोग नहीं थे. रुडयार्ड किपलिंग जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में ही अपना होश संभाला था और बाद में इसके बारे में कुछ बेहतरीन कहानियां भी लिखीं, वह भी स्ट्राचियन विचारधारा के खेमे में शामिल थे.
1891 में किपलिंग ने ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की थी, जहां एक पत्रकार ने उनसे भारत में ‘स्वशासन की संभावनाओं’ के बारे में पूछा था. इसके जवाब में किपलिंग ने कहा था, ‘ओह नहीं... वे चार हजार साल पुराने लोग हैं. वे इतने पुराने हैं कि इस प्रणाली को सीख नहीं सकते. उन्हें कानून और व्यवस्था ही चाहिए न... हम उन्हें ये देने को तैयार हैं और हम उन्हें ये सीधे तौर पर दे रहे हैं.’
राजनेताओं की बात करें तो यूके के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का नाम भी इस विचारधारा के खेमे में लिया जाता है.
चर्चिल के इस भाषण के करीब डेढ़ दशक बाद भारत को आजादी मिल गई और अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब में लिखा है कि खास बात यह थी कि सिर्फ मौसमी पर्यवेक्षकों या सामान्य बुद्धि वाले पत्रकारों के लिए ही भारत का वजूद एक पहेली नहीं था, बल्कि अकादमिक राजनीति विज्ञानियों के लिए भी यह एक पहेली जैसा था. मशहूर राजनीति विज्ञानी रॉबर्ट डल ने लिखा था कि ''हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए ये कहना बिल्कुल असंभव लगता है कि यह देश लोकतांत्रिक संस्थाओं को आगे बढ़ा पाएगा. यहां किसी तरह की अनुकूल परिस्थितियां नहीं हैं.''
हालांकि, ये सारे लोग बाद में काफी हद तक गलत साबित हुए. मगर, ऐसा भी नहीं था कि आजादी के वक्त भारत के सामने चुनौतियां नहीं थीं.
14 अगस्त की शाम जब बंगाल में महात्मा गांधी से पूछा गया कि अगले दिन आजादी के समारोह को किस तरह मनाया जाए, तो इस पर गांधीजी ने कहा कि ''चारों तरफ लोग भूख से मर रहे हैं. फिर भी आप चाहते हैं कि इस तरह के विनाश की घटना के बीच भी कोई समारोह मनाया जाए?''
जब देश के एक प्रमुख अखबार के संवाददाता ने गांधीजी से स्वतंत्रता दिवस पर कोई संदेश देने को कहा तो गांधीजी ने जवाब दिया - ‘वे अंदर से खालीपन महसूस करते हैं.''
गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को चौबीस घंटे का उपवास करके मनाया. दरअसल जिस आजादी के लिए उन्होंने इतना लंबा संघर्ष किया था, वो बड़ी महंगी नसीब हुई थी.
मगर भारत ने इन चुनौतियों का मुकाबला कैसे किया, इसकी एक झलक 15 अगस्त को ही देखने को मिली, जब दोपहर होते-होते गांधीजी को यह खबर मिली कि कलकत्ता के कुछ भयानक दंगाग्रस्त इलाकों में अमन और भाईचारे का माहौल कायम होने लगा है. इस दिन खुली गाड़ियों में हिंदू और मुसलमान सड़कों पर निकल पड़े और उन्होंने ‘जय हिंद’ का नारा लगाया.
इसके बाद महात्मा गांधी ने तय किया कि वे स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लोगों को अपना संदेश देंगे. अपने संदेश में गांधीजी ने कहा कि वह चाहेंगे कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ‘भाईचारे की भावना क्षणिक साबित न हो, बल्कि यह स्थायी रूप से दिल में कायम रहे.’
ऐसे में आज भी जब देश, जातिवाद, साम्प्रदायिक तनाव और अराजकता के माहौल से गुजरता है तो उस वक्त की ही मिसाल दी जाती है, जब तमाम चुनौतियों को पीछे छोड़ते हुए भारत एकजुट होकर एक राष्ट्र के रूप में खड़ा हुआ था.
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