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संविधान की मूल भावना - हिदायतें और हकीकत में फर्क क्यों?

संविधान की मूल भावना में पंथनिरपेक्ष, स्वतंत्रता, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय की बात की गई है.

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भारत
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(फोटो: The Quint)

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भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता. मूल ढांचा या संविधान की प्रस्तावना, जिसमें पंथनिरपेक्ष, स्वतंत्रता, समाजवादी, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की समता की बात की गई है. लेकिन देश में कुछ घटनाएं ऐसी हुईं, जिनको देखने के बाद सवाल उठता है कि क्या इस मूल ढांचे को कमजोर करने की कोशिशें हो रही हैं?

पंथनिरपेक्ष

पंथनिरपेक्ष का मतलब है राज्य के लिए सभी धर्म समान हैं. धर्म, पंथ और रीति के आधार पर राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगा. लेकिन पिछले साल 17 से 19 दिसंबर के बीच हरिद्वार में धर्म संसद हुई, जिसमें हिंदू राष्ट्र की मांग की गई. आनंद स्वरूप महाराज ने कहा था कि अगर सरकार हिंदू राष्ट्र की मांग नहीं सुनती है तो हम 1857 के विद्रोह की तुलना में कहीं अधिक भयानक युद्ध छेड़ेंगे. ऐसे बयान और उस पर सरकार का ढूलमूल रवैया क्या संविधान के मूल तत्व पंथनिरपेक्ष की भावना पर हमला नहीं करते हैं? क्या खुले मंचों से आम और सत्ता में बैठे खास लोगों द्वारा हिंदू राष्ट्र बनाने की अपील और योजनाओं का बखान क्या संविधान के पंथनिरपेक्षता पर हमला नहीं है?

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता का अर्थ है देश में अपने हिसाब से रहने की आजादी. कुछ भी खाने या पहनने की आजादी. लेकिन कुछ सालों में लव जिहाद को लेकर जो राजनीतिक बयान आए, वे डराते हैं. कई राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए. इतना ही नहीं, कई जगहों पर खाने की आजादी पर भी हमला हुआ. अहमदाबाद नगर निगम की टाउन प्लानिंग कमेटी ने नियम निकाला कि शहर में खुली जगहों पर नॉनवेज फूड आइटम नहीं बेचे जाएंगे. अहमदाबाद के अलावा वडोदरा और राजकोट में भी ये नियम लागू किया गया. क्या ये सब संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है?

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समाजवादी

आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ा गया था. मतलब जाति, रंग, पंथ, लिंग धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. लेकिन आए दिन खबरों में दलितों की पिटाई जैसी खबरें रहती हैं. आज भी महिलाओं के साथ भेदभाव हो रहा है. काले गोरे को लेकर समाज की सोच नहीं बदली है. अक्टूबर 2021 में गुजरात में मंदिर में प्रवेश को लेकर दलित परिवार को मारा गया था. इस केस में पुलिस ने 5 आरोपियों को गिरफ्तार किया था. ये इकलौता मामला नहीं है. ऐसे में संविधान की समाजवादी भावना को ठेस नहीं पहुंचाया जा रहा?

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में एससी के खिलाफ अपराध के करीब 40 हजार केस दर्ज किए गए. 2018 में ये बढ़कर 42 हजार से ज्यादा हो गया. साल 2017 में तो एससी के खिलाफ अपराधों की संख्या 43 हजार तक थी. संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक, 2018 से 2020 के बीच दलितों के खिलाफ अपराध के 1,38,045 मामले दर्ज किए गए.

सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय

प्रस्तावना में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय का मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को गरिमामय जीवन जीने का हक. समाज में सभी व्यक्तियों की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हों. लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 के मुताबिक, वैश्विक सूचकांक में भारत का स्कोर 27.2 है. दुनिया के 107 देशों में हुए सर्वे में भारत 94वें नंबर पर है. वहीं नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे भी चिंताजनक कहानी कहते हैं. भारत सरकार द्वारा 22 राज्यों में कराए गए इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी (NCSK) के आंकड़े बताते हैं कि 2019 के पहले छह महीनों में सीवर की सफाई में कम से कम 50 लोगों की मौत हो गई.

प्रतिष्ठा और अवसर की समता

इसका मतलब है कि समाज के किसी भी वर्ग के लिए बिना भेदभाव हर व्यक्ति को समान अवसर दिए जाए. DW की साल 2019 की एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने गैर खेतिहर कामगारों से संबंधित आंकड़े जारी किए, जिसके मुताबिक शीर्ष नौकरियों में ऐसे लोगों का कब्जा है जो एससी या एसटी श्रेणी में नहीं आते हैं. प्राइवेट सेक्टर में 93% शीर्ष नौकरियों में सवर्णों का कब्जा है. इसी तरह सरकारी से लेकर निजी सेक्टर तक में टॉप के पदों पर महिलाओं की संख्या कम है. गैर बराबरी का ये आलम क्या संविधान के हिदायतो के उलट नहीं है?

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