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Chandrayaan-3: अमेरिका, रूस और चीन से सस्ता क्यों होता है भारत का ISRO प्रोजेक्ट?

Chandrayaan-3: चीन, रूस, अमेरिका सभी अपने अंतरिक्ष यान के मिशन के लिए जंबो रॉकेट का इस्तेमाल करते हैं.

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<div class="paragraphs"><p>Chandrayaan-3: अमेरिका, रशिया और चीन से सस्ता क्यों होता है भारत का इसरो प्रोजेक्ट? </p></div>
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Chandrayaan-3: अमेरिका, रशिया और चीन से सस्ता क्यों होता है भारत का इसरो प्रोजेक्ट?

(फोटो: PTI)

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भारत सहित दुनियाभर की नजरें इस वक्त चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) पर टिकी हैं. 14 जुलाई को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से रवाना हुआ चंद्रयान 3 अपने लक्ष्य के बेहद करीब पहुंच चुका है. कुछ ही घंटों में चंद्रयान-3 की चांद पर लैंडिंग होगी. इस बीच चंद्रयान-3 मिशन के बजट को लेकर खूब बातें हो रही हैं. भारत के चंद्रयान मिशन के लागत की तुलना रूस (Russia) के लूना-25, अमेरिका के आर्टेमिस और चीन के चांगई मिशन से की जा रही है.

भारत का इसरो प्रोजेक्ट सस्ता क्यों होता है? 

जानकारी के अनुसार, जहां भारत के चंद्रयान-3 मिशन पर करीब 615 करोड़ रूपये खर्च हुआ है. वहीं, लूना-25 पर रूस ने करीब 16.6 अरब रुपये खर्च किया था.

आइए जानते हैं कि रोस्कॉसमॉस (रूसी अंतरिक्ष एजेंसी), नासा (अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी) और चाइना नेशनल स्पेस एडमिनिसट्रेशन (चीन की अंतरिक्ष एजेंसी) से भारत का इसरो का प्रोजेक्ट सस्ता क्यों होता है?

दरअसल, धरती के गुरूत्वाकर्षण से बाहर निकलने के लिए बूस्टर या यूं कह लें शक्तिशाली रॉकेट यान की जरूरत होती है. ये शक्तिशाली रॉकेट भारी मात्रा में ईंधन की खपत करते हैं, जिसका सीधा असर प्रोजेक्ट की बजट पर पड़ता है.

स्पेसएक्स के फॉल्कन-9 रॉकेट की लॉन्चिंग की कीमत 550 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ तक होती है. जबकि इसरो के रॉकेट की लॉन्चिंग कीमत 150 से 450 करोड़ तक ही होती है.

अगर चंद्रमा की दूरी सीधे पृथ्वी से तय की जाए, तो इससे ज्यादा पैसा खर्च होता है. नासा चांद पर जाने के लिए इसी प्रक्रिया को अपनाता है. चीन, रूस, अमेरिका सभी अपने अंतरिक्ष यान के मिशन के लिए जंबो रॉकेट का इस्तेमाल करते हैं, जो भारी मात्रा में ईंधन की खपत करते हैं. ऐसे रॉकेट को बनाने में हजारों करोड़ रूपये भी लगते हैं.

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चंद्रयान को सीधे चंद्रमा की सीधी कक्षा में भेजने के लिए शक्तिशाली रॉकेट की आवश्यकता होती है, जिसे बनाने में हजारों करोड़ रुपये लगते हैं.

चंद्रयान को कक्षा बदलने में समय क्यो लगा?

भारत यान को सीधे चांद पर नहीं भेजता है. एक निश्चित दूरी पर भेजे जाने के बाद भारत के यान अकेले चांद तक की दूरी तय करते हैं. उदाहरण के तौर पर चंद्रयान-3 ने पहले 5 चक्‍कर धरती में लगाए, फिर लंबी दूरी की लूनर ट्रांजिट ऑर्बिट में यात्रा की.

ऐसा करने से यान द्वारा बेहद कम मात्रा में ईंधन की खपत हुई. इसके बाद चंद्रमा के चारों तरफ की कक्षाओं को बदला. कक्षाओं को बदलने में समय लगता है. लेकिन यह प्रक्रिया सस्ती पड़ती है. यही कारण है कि इसरो के प्रोजेक्‍ट्स नासा की तुलना में काफी सस्‍ते होते हैं.

चंद्रयान 3 को चंद्रमा पर क्यों भेजा गया है?

अगर ये परीक्षण सफल हो जाता है तो रॉकेट लॉन्च, अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी, स्किल्ड मैनपावर की दिशा में बेहतरीन काम किए जा सकेंगे. इससे भारत को दुनिया के सामने अपनी क्षमता दिखाने का मंच मिल जाएगा. भारत चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश बन जाएगा.

चांद धरती का सबसे निकटतम खगोलीय पिंड है. इस पर अंतरिक्ष खोज का प्रयास किया जा सकता है. चंद्रमा का निर्माण और विकास जिस तरह से हुआ है, उसे समझने से धरती सहित सौरमंडल के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी. चंद्रमा पर कई मूल्यवान खनिजों की खोज हो सकती है या इस पर पहुंच कर इंसान एक स्त्रोत खोज सकता है.

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