मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019जम्मू-कश्मीर में लगातार सरपंचों की हत्या, आतंकवादियों के निशाने पर पंचायती राज

जम्मू-कश्मीर में लगातार सरपंचों की हत्या, आतंकवादियों के निशाने पर पंचायती राज

परिसीमन और चुनावी चर्चा से पहले हमलों में तेजी ने पंचायत सदस्यों की चिंताएं बढ़ा दी हैं .

शाकिर मीर
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>कश्मीर में सरपंच की हत्या</p></div>
i

कश्मीर में सरपंच की हत्या

(प्रतीकात्मक फोटो:PTI)

advertisement

श्रीनगर के खोनमोह गांव में रहने वाले 43 साल के समीर भट्ट अपने घर के दरवाजे से बहुत जल्दबाजी में मुलाकातियों से मिलने बाहर अपने बरामदे में आए और वो जैसे ही सैंडल को लगाने के लिए झुके, मुलाकातियों में से एक शख्स ने हथियार निकालकर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा दीं. उनका भाई , फिरदौस भट्ट जो कि दूसरे साइड था, गोलियों की आवाज सुनकर समीर की तरफ दौड़े. अपने भाई को जमीन पर गिरा देख उन्होंने लाठी उठाई और हमलावरों को मारने की कोशिश की. हथियारबंद हमलावरों ने उन पर भी गोलियां चलाईं लेकिन निशाना चूक गया. गांव के प्रधान यानि सरपंच समीर भट्ट ने अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ दिया.

श्रीनगर के खोनमोह इलाके में निर्दलीय सरपंच समीर अहमद भट (43) का घर, जिनकी 9 मार्च को आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.

(फोटो: शाकिर मीर)

बढ़ते हमले

दो दिन बाद, 11 मार्च को हमलावरों ने फिर दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम के अवदूरा गांव में हमला किया और एक दूसरे सरपंच शब्बीर अहमद मीर की हत्या कर दी. ये मामले साफ बताते हैं कि किस तरह से आतंकवादियों को अपने टार्गेट की पुख्ता खुफिया जानकारी पहले से रहती है.

शब्बीर अहमद के 17 साल के बेटे जाहिद शब्बीर बताते हैं,

“मेरे पिता ने अपनी जिंदगी का ज्यादा वक्त तो श्रीनगर में रहते हुए गुजारा लेकिन उस दिन वो अपना सरपंच वाला कार्ड लेने घर गए थे. देरी हो जाने से उन्होंने रात घर पर ही ठहरने का फैसला किया, जैसे ही वो टॉयलेट के लिए बाहर निकले, उन्हें आतंकवादियों ने पेट में तीन गोलियां मार दीं.’’

पुलिस कहती है कि मीर साहब को श्रीनगर से 70 किलोमीटर दूर एक सुरक्षित क्लस्टर में रखा गया था और वो पुलिस को बिना कुछ बताए अचानक ही निकल गए. जब शब्बीर साहब पर हमले हुए तो पुलिस को ये भी पता नहीं था कि आखिर वो कहां थे.

अगले दिन, दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा के अरिहल गांव में एक सरपंच गुलाम नबी कुमार पर पिस्तौल से गोलियां दागी गईं. हालांकि सरपंच गुलाम नबी कुमार किसी तरह बच गए. लेकिन सभी किस्मतवाले नहीं होते, 3 मार्च को ही एक दूसरे पंचायत सदस्य मुहम्मद याकूब डार मारे गए. कुलगाम के कुलीपोरा गांव में आतंकवदियों ने उन पर हमला किया था.

गर्मियां जैसे-जैसे कश्मीर में नजदीक आ रही हैं, सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देकर आतंकवादी अपनी हरकतें बढ़ा रहे हैं. इससे पहले इसी महीने श्रीनगर के भीड़भाड़ वाले इलाके हरि सिंह हाई स्ट्रीट एरिया में ग्रैनेड फेंके गए और इसमें दो नागरिक की मौत हो गई. 10 मार्च को पुलवामा में आतंकवादियों ने एक बैंक के गार्ड से राइफल छीनने की नाकाम कोशिश की. इसमें बैंक गार्ड जख्मी हो गया. उससे पहले सेंट्र्ल कश्मीर के बडगाम जिले में पुलिस को समीर अहमद माला की बॉडी मिली थी. वो यहीं के रहने वाले थे और आर्मी में काम करते थे. जानकारी के मुताबिक उनका अपहरण लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकवादियों ने किया था.

बडगाम के एक अधिकारी ने इस रिपोर्टर को बताया कि जहां माल्ला की बॉडी पर गोलियों से जख्म के निशान नहीं हैं, इसकी आशंका है कि उन्हें पीट-पीट कर मारा गया था. “बडगाम जिले में बहुत ज्यादा आतंकवादी हरकतें नहीं होती थी, लेकिन फिर ये हैरानी भरा है कि माल्ला जो कि छुट्टी पर घर आए थे, उसकी पूरी जानकारी आतंकवादियों को थी.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

चुनाव के समय आतंकवादी क्यों करते हैं हमले

लगातार हमले तब बढ़े हैं जब ये चर्चा है कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का एलान हो सकता है. यहां साल 2018 के बाद से कोई विधानसभा चुनाव नहीं हुए हैं. तब से राज्य राजनीति, प्रशासन और केंद्र के साथ इसके रिश्ते लगभग बदल चुके हैं. एक नया सियासी दल जैसे जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी ने दस्तक दी है और शासन के नए तरीके भी स्थापित किए गए हैं.

साल 2020 में, केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर पंचायती राज्य में संशोधन किया और जिला विकास काउंसिल (DDC ) बनाए जो कि केंद्र शासित प्रदेश में शासन की नई ईकाई बनी.

क्षेत्रीय प्रशासन ने जम्मू-कश्मीर पंचायती कानून 1996 में भी संशोधन किया और DDC को प्रशासकीय कामकाज सौंपा. इस तरह से संविधान के 73वें संशोधन को पूरी तरह से लागू किया गया.

पंचायती राज संस्थाओं PRI की मजबूती पर जोर केंद्र सरकार के हाथ में प्रभावशाली राजनीतिक हथियार है. इसकी मदद से सरकार ने ग्रासरूट लेवल पर लोकतंत्र के नए विमर्श को बढ़ाने की कोशिश की है. ताकि वो पहले से स्थापित पार्टियां मसलन नेशनल कॉन्फ्रेंस- NC और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को साइडलाइन कर सकें, जो कि आर्टिकल 370 की फिर से बहाली के लिए एक बड़ा ब्लॉक बन गई हैं.

जम्मू-कश्मीर पंचायत सम्मेलन के अध्यक्ष शफीक मीर बताते हैं कि, जहां तक शासन का संबंध है, PRI के सदस्य संस्थागत प्रतिनिधित्व की पहली सीढ़ी हैं. "हम पहली लाइन के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और अगर कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी से उतारना चाहता है, तो वे हमें निशाना बनाकर बहुत आसानी से कर सकते हैं."

चुनावों का बहिष्कार कैसे किया गया?

कश्मीर में पंचायत के 20,000 से ज्यादा चुने हुए सदस्य हैं. 307 ब्लॉक काउंसिल के सदस्य और करीब 240 जिला काउंसिल सदस्य. साल 2018 में 9 फेज में हुए पंचायत चुनाव जो कि 6 साल के गैप के बाद कराए गए थे, उनका बहिष्कार प्रमुख सियासी पार्टियों ने आर्टिकल 35 (A) को खत्म किए जाने को लेकर अपनी चिंता के कारण किया था. इस आर्टिकल से उन लोगों को जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने पर पाबंदी लगाई गई है जो यहां के स्थायी निवासी नहीं हैं.

बहिष्कार इतना प्रभावी था कि ज्यादातर उम्मीदवार तो बिना किसी मुकाबले के ही चुनाव जीत गए. खोनमोह, जहां से समीर भट्ट ने चुनाव लड़ा 45 में से 37 पंच उम्मीदवारों के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं था. वहीं पांच में से 4 सरपंच हल्का में बिना किसी विरोध के चुन लिए गए.

लेकिन 5 अगस्त 2019 से घाटी में सरकारी सख्ती जहां एक तरफ बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ आतंकवादियों की गतिविधि भी. पंचायत सदस्यों को निशाना बनाया जाना पहले से ही कश्मीर में काफी भावनात्मक मुद्दा रहा है.

बंदीगृह: क्लस्टर होम में सदस्य

पंचायती राज संस्था के अधिकतर सदस्य जबसे उनको धमकियां मिली हैं, उन्हें क्लस्टर होम में रखा गया है. दरअसल DDC चुनाव 2020 में ज्यादातर उम्मीदवारों ने कहा कि उन्हें कड़ी निगरानी में रखा गया है और इससे उन्हें चुनाव के लिए कैंपेन करने में भी परेशानी हुई. पर अभी हमलों में तेजी और विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन और चुनाव की चर्चा ने उनकी सुरक्षा की चिंता बढ़ा दी है.

उनमें से अधिकतर तो फिर से क्लस्टर होम में चले गए हैं. ये एक तरह से जिन्हें सदस्य ‘जेल’ कहते हैं, में चले जाने जैसा है. इससे उनका चुनावी या संसदीय क्षेत्र से संपर्क कट जाता और साथ ही ग्रामीण विकास पर भी असर पड़ता है .

शफीक मीर बताते हैं, “साल 2012 से 2022 में करीब 24 पंच और सरपंचों को आतंकवादियों ने मार दिया. और सभी हत्या उस वक्त हुई जब किसी किस्म की सियासी या चुनावी प्रक्रिया शुरू होने वाली थी."

मीर इस बात से काफी परेशान हैं कि पंचों और सरपंचों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस प्लान नहीं है. “उन्हें सुरक्षा के लिए ऐसी जगह पर रखा जा रहा है जहां से उनका कहीं आना जाना मुश्किल है."

कश्मीर के सभी सरपंच ये मानते हैं कि इलाके से उनकी गैरमौजूदगी से भ्रष्टाचार और खराब प्रबंधन बढ़ रहा है.

‘हम शायद ही बाहर निकल पाते हैं'

दक्षिणी कश्मीर के कोकरनाग के सागाम गांव से पंच अनीस उल इस्लाम कहते हैं, “ग्रासरूट यानि सबसे निचले स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हम अपनी जान जोखिम में रखते हैं ताकि कश्मीर सुरक्षित रहे. इस्लाम पर भी पिछले साल हमले हुए थे जब वो DDC चुनाव के लिए कैंपेन कर रहे थे. दो आतंकवादियों ने उनके सामने खडे होकर अपने कपड़े के भीतर से हथियार निकालकर उनपर फायरिंग की थी. उनके हिप, हाथ और कलाई पर गोलियां लगी. उन्होंने बताया कि ‘अभी तक उनकी रिकवरी पूरी नहीं हुई है’ इस्लाम शिकायत करते हैं कि कश्मीर में सरपंचों को 3,000 रुपए मिलते हैं जबकि पंचों को 1000 रुपए. इस्लाम कहते हैं, ‘हम जो कुर्बानी दे रहे हैं इसके एवज में हमें यही मिलता है. हम कैसे रोजी-रोटी चलाएंगे.'

इस्लाम अपने दूसरे सहयोगियों की तरह ही हाई सिक्योरिटी जोन में रहते हैं. उन्होंने बताया, “मैं फिलहाल अनंतनाग के खानबल हाउसिंग कॉलोनी में एक जगह रहता हूं..“ हमें बहुत कम बाहर जाने की इजाजत है. हफ्ते में हम मुश्किल से एक बार या दो बार अपने इलाके में जा पाते हैं. हमें 11 बजे सुबह जाने के लिए कहा जाता है और दोपहर दो बजे वापस आने के लिए. पुलिस कंट्रोल रूम से हमें हजारों फोन आने लगते हैं वापस आने के लिए. वो पूछते हैं 'ऐसे हालात में कोई कैसे लोगों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध रह सकता है?'

पंचायत सदस्य और ठेकेदारों में साठगांठ

इसी तरह आफताब बेग, जो उत्तरी कश्मीर के तानमार्ग टूरिस्ट इलाके वाले एक गांव कुंजेर के ब्लॉक डेवलपमेंट प्रमुख हैं, वो बताते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्र से 4 किलोमीटर दूर एक सेफ ठिकाने पर रखा गया है. आफताब आगे कहते हैं, "करीब 4 महीने पहले मैं श्रीनगर के एक सुरक्षित ठिकाने पर था. लेकिन सरकार ने हमें जगह खाली करने को कहा. अब जब हमले फिर से होने लगे हैं तो हमें एक बार फिर से सेफ जगह पर रखा जा रहा है."

बेग ने कहा कि बंद जगहों पर रखे जाने से उनका ग्राउंड वर्क बहुत प्रभावित होता है, नतीजा ये होता है कि लोगों के साथ उनका संपर्क बुरी तरह प्रभावित होता है. ये लंबे समय में उनकी सियासी संभावना को खत्म करता है.

शोपियां इलाके के DDC सदस्य एजाज अहमद मीर, बहुत तकलीफ के साथ बताते हैं कि किस तरह से अपने चुनावी क्षेत्र से अलग रहने से उनका लोगों के साथ रिश्तों में दरार बढ़ता है.

एजाज अहमद मीर जो PDP- BJP सरकार में विधायक भी थे, कहते हैं, यहां कश्मीर में शायद ही कोई सरपंच और DDC सदस्य हो जो आजादी से कहीं आता जाता है और यहां तक कि ग्राम सभा की मीटिंग में शामिल होता हो. शोपियां जिले में करीब 70 फीसदी PRI सदस्य बिना किसी ठिकाने और सुरक्षा के रहते हैं. उनमें से कई लोग तो हमले से बचने के लिए रिश्तेदारों के यहां रहते हैं."

मीर खुद श्रीनगर में एक निजी आवास में रहते हैं जो कि उनके चुनाव क्षेत्र जैनपोरा से 57 किलोमीटर दूर है. वो पूछते हैं, “पुलिस हमें हमेशा अपने चुनाव क्षेत्र जाने से बचने की सलाह देती है. लेकिन हम लोग श्रीनगर में रहकर अपने इलाके के लिए क्या कर सकते हैं. सरकार पंचायती राज संस्था के सशक्तिकरण की बात तो बहुत करती है लेकिन हम ग्राउंड पर हकीकत कुछ और ही है.”

मीर का आरोप है कि ग्राम प्रधान और DDC की निगरानी की कमी से पंचायत सचिव और निजी ठेकेदारों का एक गठजोड़ बन गया है.

वो कहते हैं, “अक्सर, ठेकेदार और सचिव एक दूसरे से डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में मिलीभगत करते हैं. उदाहरण के लिए अगर किसी निश्चित जगह पर कोई सड़क बननी है तो, फिर ठेकदार उसी जगह पर मरम्मत का काम करता है जहां पर उन्हें लगता है कि पैसे कम लगेंगे, पूरी तरह से रीडेवलपमेंट का काम बहुत कम होता है. जहां पर लोगों को लगता है कि काम उम्मीद के मुताबिक नहीं किया गया है, वो इसका दोष ठेकेदारों और सचिवों पर नहीं बल्कि हम पर मढ़ते हैं. इसका नतीजा हमें झेलना पड़ता है."

खोनमोह में सरपंच समीर की हत्या पर उनके पिता अब्दुल रशीद भट्ट जो कि BSNL से रिटायर हुए हैं , कहते हैं – कोई नहीं समझेगा कि हमने क्या खोया है. वो बताते हैं - “ये उसकी मौत के बाद ही हम लोग भी समझ पाए हैं कि उसकी लोकप्रियता कितने लोगों में और कितनी दूर तक थी.

भट्ट की मौत को याद करते हुए बताते हैं कि घूमंतू गुज्जर कम्यूनिटी के लोग भी समीर की मौत पर मातम मनाने आए थे. “उन्होंने हमें बताया कि समीर, उनकी आर्थिक तौर पर मदद कर रहा था और अब उन लोगों के सामने रोजी रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल हो गया है."

(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया और द वायर सहित अन्य प्रकाशनों के लिए रिपोर्ट किया है. उनका ट्विटर हैंडल है @shakirmir.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT