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पंडित जवाहरलाल नेहरू - इस नाम का सिर्फ उल्लेख करने से क्या पता चलता है? क्या ये शख्स भारत की स्वतंत्रता पर केवल स्कूली किताबों तक ही सीमित है? या क्या वो उस कुर्सी पर बैठने वाले पहले व्यक्ति से भी कहीं ज्यादा है, जिसने उस भारत के लिए मंच तैयार किया है, जिसे हम आज देखते हैं? इससे भी जरूरी बात ये है कि क्या वो आज के भारत में प्रासंगिक हैं?
क्विंट तीन विचारकों के माध्यम से आज के भारत में उनकी विरासत - या इसकी कमी, जैसा कि कुछ सुझाव देते हैं - को समझने की कोशिश कर रहा है: कांग्रेस सांसद डॉ. शशि थरूर, बीजेपी सांसद प्रोफेसर राकेश सिन्हा, और भारतीय इतिहासकार प्रोफेसर माधवन पलटन.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब Verdicts on Nehru: The Rise and Fall of a Reputation में लिखा है, नेहरू ने अपने प्रधानमंत्री काल के शुरुआती दिनों में जो सम्मान हासिल किया था - और उनके पद की "चुनौतियों", जिसका आधुनिक भारत में किसी दूसरे राजनेता द्वारा शायद ही कभी सामना किया गया था - 1950 मध्य से उस प्रतिष्ठा में धीरे-धीरे गिरावट आई है.
जनता पार्टी - जो हिंदू कट्टरवादी जनसंघ, गैर-कम्युनिस्ट समाजवादियों और गांधीवादी कांग्रेसियों के एक साथ आने से बनी थी - आज अतीत की बात है, और इन तीन अलग-अलग समूहों में से हर एक अपनी-अपनी राजनीति में आगे बढ़ चुके हैं.
लेकिन ये जनसंघ है, जिसने आधुनिक भारतीय जनता पार्टी का रास्ता तैयार किया, जो आज भी नेहरू की सबसे बड़ी आलोचक बनी हुई है.
नेहरू का "नियति से साक्षात्कार" याद है - वो ऐतिहासिक भाषण जो भारत के पहले प्रधानमंत्री ने संविधान सभा के सामने दिया था, जो स्वतंत्रता पाने की कगार पर था?
भारत में लोकतंत्र और शुरुआती दिनों में इसे मजबूत करने वाली विभिन्न संस्थाओं का भाग्य नेहरू के बिना क्या होता?
नेहरू का ऐतिहासिक भाषण, ब्रिटिश और स्वतंत्र भारत के बीच खुद को पाता है, पहले प्रधानमंत्री को अक्सर नव-निर्मित राष्ट्र को एक अलग मोड़ की ओर ले जाने के लिए जाना जाता है, जहां ये संसदीय लोकतंत्र बना.
हालांकि, ब्रिटिश संसद की तर्ज पर भारत को एक लोकतंत्र बनाने की उनकी कोशिशों को कोई चुनौती नहीं दी गई. जहां सरदार पटेल ने संसदीय लोकतंत्र का एक अलग वर्जन तैयार किया, वहीं, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. बीआर अंबेडकर सरकार के राष्ट्रपति स्वरूप के पक्ष में थे - एक ऐसा रुख जिसे उन्होंने बाद में बदल दिया.
जहां हर भारतीय वयस्क का चुनाव में अपनी पसंद का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार लोकतंत्र में केवल बुनियादी लग सकता है, ब्रिटिश शासन में रहने वाले भारतीय इतने किस्मती नहीं थे.
उदाहरण के लिए: 1935 में, किसी व्यक्ति को वोट देने का अधिकार तभी था, अगर वो संपत्ति का टैक्स भुगतान करने वाला मालिक है या उसके पास सरकारी नौकरी और शिक्षा है. इस तरह के मानदंड, जैसा कि डब्ल्यूएच मॉरिस जोन्स ने अपने 1952 के आर्टिकल The Indian Elections में लिखा है, का मतलब था कि ब्रिटिश भारत की लगभग 80 प्रतिशत वयस्क आबादी को वोट देने का मूल अधिकार भी नहीं दिया गया था.
आजादी के बाद ये हालात बदल गए, जब 1952 के चुनावों में 21 साल से ऊपर का हर भारतीय वोट कर सकता था. वोट देने का हर भारतीय को अधिकार, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बुनियाद में था. रामचंद्र गुहा ने Democracy's Biggest Gamble: India's First Free Elections in 1952 में लिखा था, "नेहरू ने आशा व्यक्त की थी कि आम चुनाव 1951 तक होंगे."
गुहा Verdicts on Nehru: The Rise and Fall of a Reputation में लिखते हैं, नेहरू भारत को प्रमुख धार्मिक या भाषाई पहचान के साथ परिभाषित करने के विचार के खिलाफ थे
गुहा लिखते हैं कि विभाजन के बाद बड़े पैमाने पर हुई हिंसा और आगजनी के बाद, शरणार्थी, जिन्होंने पश्चिमी पंजाब में भयानक हालात का सामना किया था, वो भारत में रह रहे मुसलमानों के खिलाफ "प्रतिशोध" मांग रहे थे.
किताब के मुताबिक, नेहरू ने पटेल को जवाब में लिखा, "ये तर्क मुझे जरा भी पसंद नहीं आया. हमारे धर्मनिरपेक्ष आदर्श, भारत में हमारे मुस्लिम नागरिकों के लिए एक जिम्मेदारी तय करते हैं."
हालांकि, जैसा कि थॉमस पैंथम ने Indian Secularism and its Critics: Some Reflections में लिखा है, भारतीय धर्मनिरपेक्षता के लिए सबसे मुश्किल चुनौती भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार द्वारा रखी गई है, जिन्होंने कांग्रेस की नीतियों को "बनावटी धर्मनिरपेक्ष" करार दिया है.
नाना देशमुख की Our Secularism Needs Rethinking का जिक्र करते हुए, पंथम लिखते हैं, हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले "सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता" के पक्ष में हैं और कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के वर्जन को "हिंदू बहुसंख्यक समुदाय के प्रतीकों के अपमान और अल्पसंख्यक समुदाय को सही ठहराने के लिए दोषी ठहराते हैं."
अगर भारत के संसदीय लोकतंत्र को सांप्रदायिक प्रवृत्तियों के विपरीत, धर्मनिरपेक्ष विचारों द्वारा निर्देशित किया जाना था - तो वो कौन सा कारक होगा जो देश के विविध समुदायों को एक साथ बांधेगा?
अक्टूबर 1963 में सतलुज पर भाखड़ा बांध का उद्घाटन करते समय नेहरू ने इस सवाल का जवाब दिया:
लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नेहरूवादी विचार, जैसा कि गुहा बताते हैं, की लोहियों द्वारा समान रूप से आलोचना की गई है, जो मानते हैं कि नेहरू ने एक उच्च-वर्ग को पैदा किया, जिसने "अपने लाभ के लिए राजनीतिक और आर्थिक शक्ति दोनों का फायदा उठाया. इससे दलितों और गार अंग्रेजी भाषियों का नुकसान हुआ.
गांधीवादी विचारधारा द्वारा व्यक्त नेहरूवादी मॉडल की एक और आलोचना से पता चलता है कि शहरी इलाकों में बड़े उद्योगों के जमावड़े को निर्धारित कर, नेहरू ने "ग्रामीण इलाकों को तबाह कर दिया."
भारत को नयी-नयी आजादी मिली थी, जब उसने अचानक खुद को दो विश्व शक्तियों- सोवियत संघ और अमेरिका के बीच पाया. इन दो गुटों के बीच, शीत युद्ध छिड़ने के साथ, नेहरू ने एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखने के लिए देश को किसी की तरफ नहीं रखने की रणनीति अपनाई.
1949 में चीन को मान्यता देने वाला दूसरा गैर-कम्युनिस्ट देश बनने और 1950 में चीन के तिब्बत पर कब्जे के बाद - जिसमें भारत की मिलीभगत पर सवाल उठाया गया - भारत ने चीन के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर हस्ताक्षर किए, जिसे पंचशील संधि के रूप में जाना जाता है. हालांकि, अक्टूबर 1962 में, चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने लद्दाख और तब नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी में मैकमोहन लाइन के पार भारत पर आक्रमण किया.
नेहरू की विदेश नीति और चीन से लगी सीमाओं पर मौजूदा संकट की सबसे कड़ी आलोचना बीजेपी ने की है.
2020 की गलवान घाटी हिंसा के लगभग एक महीने बाद, केंद्रीय मंत्री जीतेंद्र सिंह ने कहा था कि कांग्रेस भूल जाती है कि चीन "राहुल गांधी के परदादा जवाहरलाल नेहरू" द्वारा छोड़ा गया सामान है.
सिर्फ चीन ही नहीं, बीजेपी, उसके सहयोगियों और दूसरे लोगों ने अक्सर कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने - जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया था, जो भारत में शामिल हो गया था - के लिए नेहरू को दोषी ठहराया है.
फरवरी 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेहरू का नाम लिए बगैर कहा था कि "किसी के भारत के प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश के लिए नक्शे पर एक रेखा खींची गई और भारत दो हिस्सों में बंट गया."
जहां, घरेलू स्तर पर, 1947, और 1999 के भारत-पाक युद्ध और 1962 के भारत-चीन संघर्ष को नेहरू की नीति की विफलता के रूप में देखा जाता है, वहीं, 1956 में हंगरी पर सोवियत संघ के आक्रमण के विरोध में उनकी अनिच्छा, उन कई उदाहरणों में से एक के रूप में देखा गया, जहां उनकी कथित रूप से तटस्थ विदेश नीति विफल रही.
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