advertisement
BJP के राज में ICHR, इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च (भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद) नहीं रहा, यह ‘इंडियन काउंसिल फॉर हिस्ट्री रीराइटिंग’ हो गया है. इतिहासकारों की इस मुख्य राष्ट्रीय संस्था को और क्या कहा जा सकता है, जब उसने भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में झूठ रोपना और अतीत को हिंदुत्व के रंगों में रंगना शुरू कर दिया है, जबकि ये भारत की आजादी का 75वां वर्ष है, जिसे ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ के तौर पर मनाया जा रहा है.
ICHR की वेबसाइट पर राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीरें हैं- जैसे महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, डॉ. बी. आर. अंबेडकर, वी. डी. सावरकर, शहीद भगत सिंह, पंडित मदन मोहन मालवीय, सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद. इस तस्वीरों के बाद राजनैतिक गलियारों में हंगामा मच गया और कई गंभीर सवाल उठाए गए. क्या सावरकर आठ महान लोगों में शामिल हैं? वह कौन था जिसने जेल से निकलने के लिए ब्रिटिश सरकार को ‘माफीनामा’ लिखा था? हिंदु महासभा का अध्यक्ष कौन था जोकि प्रचंड मुसलमान विरोधी था और ‘टू-नेशन’ थ्योरी की वकालत करता था- जिस थ्योरी के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को बदनाम किया गया है.
मैडम भीकाजी कामा, खान अब्दुल गफ्फार खान, गोपीनाथ बोरदोलोई, एनजी रंगा, डॉ. जाकिर हुसैन, छोटू राम- ऐसे कई नाम याद किए जा सकते हैं, और ICHR को इसका जवाब देने में कड़ी मेहनत करनी होगी कि इनकी बजाय उसे सावरकर और मालवीय क्यों पसंद हैं.लेकिन एक ऐसा जोरदार सवाल और भी है जो मोदी सरकार और बीजेपी को कटघरे में खड़ा करता है. यह सवाल है, “आप लोगों ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को इस फेहरिस्त से बाहर क्यों रखा है?”
क्या मोदी सरकार ने ICHR को चलाने के लिए जिन गुणीजन को तैनात किया है, उन्हें नेहरू के बारे में बताने की जरूरत है? अगर वे लोग इतिहास के तथ्यों की इज्जत करते हैं तो उन्हें बताए जाने की जरूरत है कि नेहरू गांधी के युग में स्वतंत्रता संग्राम के दूसरे सबसे अहम नेता थे. उन्हें नौ बार कैद किया गया और उन्होंने ब्रिटिश जेल में 3,259 दिन (करीब नौ साल) बिताए. वे आजाद भारत के पहले और सबसे लंबे समय तक रहने वाले प्रधानमंत्री थे. इसके अलावा उन्होंने भारतीय संविधान की विषयवस्तु और मुख्य विशेषताओं में कदाचित डॉ. अंबेडकर से भी बड़ी भूमिका निभाई थी.
क्या ICHR के मौजूदा पदाधिकारी और उनके राजनैतिक आकाओं को ऐतिहासिक तथ्यों का कोई ख्याल है, क्या वे जानते हैं कि आजादी की लड़ाई और आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू का कद पटेल से ऊंचा है. पटेल के नाम पर दुनिया का सबसे ऊंचा बुत बनाकर मोदी ने उनका महिमागान किया है. बेशक, सरदार एक महान देशभक्त थे. ब्रिटिश शासन के खत्म होने के बाद पटेल ने गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री के तौर पर भारतीय संघ में सभी देसी रियासतों को मिलाने का बड़ा काम किया था. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भारत के प्रधानमंत्री नहीं, उप प्रधानमंत्री थे.
बीजेपी इतिहास को अपनी तरह से लिखने की फिराक में है और वह पटेल को महात्मा गांधी के बाद आजादी से सबसे अहम नेता के रूप में दर्शा रही है. महात्मा गांधी को वह नजरअंदाज नहीं कर सकती, इसके बावजूद कि बीजेपी समर्थक गांधी की फिलॉसफी और विरासत को बहुत नापसंद करते हैं. लेकिन बुतों के कद के आधार पर इतिहास में नेताओं की महानता तय नहीं की जाती. यह इससे तय होता है कि किसी देश के मुकद्दर को संवारने में उसकी क्या भूमिका थी.
ICHR का आजादी के मतवालों के इतिहास से नेहरू के नाम को मिटाना कोई इत्तेफाक नहीं, और न ही कोई भूल है. उन्हें हाशिए पर धकेलने, यहां तक कि बदनाम करने का काम 2014 से किया जा रहा है, जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे. मोदी ने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा था कि 2014-15 में नेहरू की 125वीं जयंती पर कोई राष्ट्रीय स्मरणोत्सव न मनाया जाए. उनकी अगुवाई में BJP व्यवस्थित रूप से नेहरू के दौर में भारत की उपलब्धियों का मजाक उड़ाती रही और यह बताती रही कि भारत की मौजूदा समस्याओं के लिए नेहरू ही कसूरवार हैं.सही बात है कि नेहरू परफेक्ट नेता नहीं थे. उन्होंने गलतियां की थीं. उनकी दो बड़ी गलतियां थीं- पहली, 1947-48 में भारत पाक युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर विवाद सुलझाने को कहना, और पचास के दशक में चीन के साथ सीमा विवाद को स्थायी और शांतिपूर्ण तरीके से आपसी समझौते के जरिए न सुलझाना, जबकि ऐसा करने के पर्याप्त मौके मौजूद थे.
सोशल मीडिया पर मोदी के प्यादे नेहरू के खिलाफ बेशुमार झूठ फैलाते हैं. इनमें से एक बड़ा झूठ है, कि वह हिंदू विरोधी थे. लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के लिहाज से उनके जीवन का अध्ययन कीजिए, न कि BJP के कुख्यात ‘आईटी सेल’ के रचे तथ्यों के आधार पर उनकी जिंदगी को जानिए. इतिहास को पढ़ने पर आपको पता चलेगा कि नेहरू मुसलमान विरोधी हुए बिना हिंदुओं के हिमायती थे. भारत की हिंदू विरासत पर उन्हें गर्व था, और उससे स्नेह भी. हां, वह उसकी कमियों की आलोचना जरूर करते थे. यह सब उनकी लिखी किताबों में साफ नजर आता है.
1954 की विल एंड टेस्टामेंट नाम की किताब को हिंदुत्व पर नेहरू की शानदार प्रस्तुति कहा जा सकता है. इसमें उन्होंने गंगा नदी और हिमालय के प्रति अपनी अपार श्रद्धा व्यक्त की है. दुखद है कि आज के माहौल में सत्तारूढ़ पार्टी ने जानबूझकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया है और सच्चे हिंदू की नई परिभाषा रच दी है. इस परिभाषा में वही लोग अटते हैं, जो स्पष्ट या अस्पष्ट तौर से मुसलमान विरोधी हैं.
क्या भारतीय जनता पार्टी पहले से नेहरू की विरोधी रही है? नहीं. और इसी से पता चलता है कि मोदी की BJP पहले की BJP की तुलना में बौद्धिक और नैतिक, दोनों स्तर पर बहुत ज्यादा दूषित हुई है. पहले की BJP, यानी वह दौर जब उसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी संभालते थे. इसके दो उदाहरण गिनाए जा सकते हैं.
1964 में नेहरू की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद वाजपेयी ने एक शानदार भाषण में अपना दुख कुछ इस तरह जताया था, “…एक सपना अधूरा रह गया है, एक गीत मौन हो गया है, और एक ज्योति अज्ञात में विलीन हो गई है. सपना भय और भूख से मुक्त दुनिया का था; गीत एक महान महाकाव्य जिसमें गीता की अनुगूंज थी, और गुलाब सा सुगंधित; एक मोमबत्ती की लौ जो रात भर जलती रहती है, हमें रास्ता दिखाती है.” उन्होंने शायद अपनी पार्टी (जिसका नाम तब भारतीय जनसंघ था) के कट्टर लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा था, यह सिर्फ किसी परिवार, या समुदाय या पार्टी का नुकसान नहीं है. भारत माता शोक मना रही है क्योंकि “उसका युवराज सो गया है.” मानवता दुखी है क्योंकि उसका ‘सेवक’ और ‘उपासक हमेशा के लिए उसे छोड़कर चला गया है.’ ‘विश्व मंच का मुख्य कलाकार अपने आखिरी अभिनय के बाद विदा हो गया है.’
इसके बाद अटल जी ने जो कहा, उसे सुनकर मोदी समर्थक परेशान हो सकते हैं, और आग बबूला भी. उन्होंने नेहरू की तुलन भगवान राम से की थी! “पंडित जी की जिंदगी में हमें वाल्मीकि की गाथा की उत्कृष्ट भावनाओं की झलक मिलती है.” राम की ही तरह नेहरू “असंभव और अकल्पनीय के सूत्रधार थे.” उन्होंने उनकी व्याख्या कुछ यूं की थी कि “उनकी जगह कोई नहीं ले सकता.” वाजपेयी ने कहा था, "व्यक्तित्व की वह शक्ति, वह जीवंतता और मन की स्वतंत्रता, वह गुण जो विरोधी और शत्रु से मित्रता करने में सक्षम है, वह सज्जनता, वह महानता - यह शायद भविष्य में नहीं मिलेगा." मोदी के लिए अच्छा होगा कि वे उन शब्दों पर ध्यान दें, जिन्हें मैंने इटैलिक्स में लिखा है.
जैसा कि सभी जानते हैं, नेहरू के निधन ने भारत को अनिश्चितता के भंवर में धकेल दिया. एक महापुरुष चला गया. एक शोक संतप्त राष्ट्र शून्य की तरफ ताकने लगा. भविष्य को लेकर असहज हो गया. इसके मद्देनजर वाजपेयी ने भारतीयों से कहा कि उन्हें खुद को नेहरू के आदर्शों के लिए समर्पित करना चाहिए जो गणतंत्र के आदर्श भी थे. "एकता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ हमें इस गणतंत्र को पोषित करना होगा. नेता चले गए, लेकिन अनुयायी मौजूद हैं. सूरज डूब चुका है, फिर भी सितारों की छाया से हमें अपना रास्ता खोजना होगा. यह परीक्षा का समय है, लेकिन हमें अपने आप को उनके महान उद्देश्य के लिए समर्पित करना चाहिए, ताकि भारत मजबूत, सक्षम और समृद्ध बन सके.”
इस भावभीनी श्रद्धांजलि को छह दशक बीत चुके हैं. नेहरू को यह श्रद्धांजलि उस शख्स ने दी थी जो भारत के सबसे प्रसिद्ध विपक्षी नेताओं में से एक थे और जो बाद में देश के प्रिय प्रधानमंत्री बने. क्या समय के साथ इसका महत्व कम हो गया है? नहीं.
एक दूसरा उदाहरण भी है. वह 1997 का साल था. भारत की आजादी की स्वर्ण जयंती मनाते हुए एल. के. आडवाणी ने एक अनूठी राष्ट्रव्यापी जन-संपर्क कार्यक्रम - स्वर्ण जयंती रथ यात्रा शुरू की. तब वह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे. दो महीने के लिए उन्होंने सड़क से पूरे भारत की यात्रा की थी (तब भारतीय सड़कें अब से भी ज्यादा खराब स्थिति में थीं). वह स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जगहों पर गए थे और उन्होंने सभी शाहिदों और नेताओं को श्रद्धांजलि दी थी, चाहे उनकी राजनैतिक, सैद्धांतिक या धार्मिक पृष्ठभूमि कोई भी हो.
मैं तब आडवाणी जी के सहयोगी के रूप में काम कर रहा था और इस रोमांचक यात्रा के दौरान मैं उनके साथ था, जिसका जिक्र मेरी किताब स्वर्ण जयंती रथ यात्रा: द स्टोरी ऑफ लाल कृष्ण आडवाणीज़ पेट्रियॉटिक पिलग्रिमेज में है. जब हमारा रथ, जोकि टाटा के ट्रक को काल्पनिक तरीके से री-डिजाइन करके बनाया गया था, 27 मई को चेन्नई पहुंचा, मैंने आडवाणी जी को सलाह दी कि पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि देना उनके लिए उचित होगा. वह आसानी से राजी हो गए.
उस दिन अपने प्रेस वक्तव्य में, उन्होंने "भारत के पहले प्रधानमंत्री के आदर्शवाद के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन और भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में उनके योगदान" के लिए प्रशंसा की. हालांकि भाजपा के साथ उनकी नीतियों के मतभेद थे लेकिन आडवाणीजी ने कहा, "हम नेहरू को स्वतंत्रता के दौर के महान व्यक्तित्वों में से एक मानते हैं. ऐसे समय में जब उस गौरवशाली युग के विचारों और आदर्शों को उनकी ही पार्टी के नेताओं ने पूरी तरह से त्याग दिया है, BJP का मानना है कि नेहरू के जीवन और कार्य के सकारात्मक पहलुओं को याद करने से भारत की राजनीतिक संस्कृति के पतन को रोकने में मदद मिलेगी.
नेहरू लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों में अपने ह्दय और आत्मा से हिस्सा लेते थे. लेकिन मोदी और विपक्ष का संवाद लगभग न के बराबर है. मासूम मुसलमानों पर भीड़ की हिंसा पर अगर कोई प्रधानमंत्री चुप रहता तो नेहरू उससे नाराज हो जाते. देश की राजधानी में “गोली मारो सालों को” कहने वाले मंत्री को तुरंत बर्खास्त कर देते और उसे जेल भेज देते. इसकी बजाय मोदी ने एक जूनियर मंत्री को कैबिनेट पद पर पहुंचाकर, उसे इनाम दिया है.
समय कैसे बदल गया है! वह दिन गुजर गए जब भारत में बड़े दिल वाले नेता हुआ करते थे. नेहरू और वाजपेयी ने यह दिखाया था.
जैसा कि सब जानते हैं, नेहरू वाजपेयी की हिंदी की अद्भुत भाषणबाजी को काफी पसंद करते थे. इसके बावजूद कि वाजपेयी विपक्षी सांसद के रूप में उनकी नीतियों की अक्सर आलोचना करते थे. एक बार वाजपेयी को एक विदेशी उच्च अधिकारी से मिलाते हुए नेहरू ने कहा था, “यह युवक एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा.” यह भी सभी जानते हैं कि कुछ ही समय बाद 1977 में जनता पार्टी सरकार में जब वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री बने, तो उन्होंने नेहरू को नकारने की ए कोशिश का खुद विरोध किा था. जब उन्होंने साउथ ब्लॉक में अपने मंत्रालय का कार्यभार संभाला तो विदेशी मामलों के मंत्रालय के कर्मचारियों ने दफ्तर के बाहर लगे नेहरू के बड़े से चित्र को हटा दिया. उन्होंने सोचा होगा कि जनसंघ के इस नेता को शायद इमारत में कांग्रेस शासन का कोई भी चिन्ह बर्दाश्त न हो. वाजपेयी को महसूस हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है. उन्होंने कर्मचारियों को तुरंत आदेश दिया कि उस चित्र को दोबारा से लगाएं.
मोदी मानते हैं, और उनके भक्त भी, कि वह देश के इतिहास के सबसे महान प्रधानमंत्री हैं. सच तो यह है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. बिना किसी बहस के, यह सम्मान नेहरू को दिया जाता है. सच्चाई को छिपाने के लिए उन्होंने अपनी सरकार और पार्टी को हुक्म दिया कि इतिहास को ही बदल दिया जाए. ICHR ने वही किया जो उसका आका चाहता था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मोदी अंग्रेजी की उस सूक्ति के बारे में नहीं जानते: “किसी और की मोमबत्ती बुझाने से आपकी मोमबत्ती और नहीं चमकती.”
(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है.)
(यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined