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दिल्ली में जुल्म सहे, झारखंड लौटकर ऐसा काम किया कि लड़कियों को शहर न जाना पड़े

झारखंड के सिमडेगा में 44 साल की एक औरत गांव वालों को बताती हैं कि कैसे नाबालिगों को मानव तस्करों से बचाया जा सकता है

आशना भूटानी
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>दिल्ली में जुल्म सहे, झारखंड लौटकर ऐसा काम किया कि लड़कियों को शहर न जाना पड़े</p></div>
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दिल्ली में जुल्म सहे, झारखंड लौटकर ऐसा काम किया कि लड़कियों को शहर न जाना पड़े

(दीक्षा मल्होत्रा / द क्विंट)

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(झारखंड से बड़े शहरों में तस्करी करके लाए गए नाबालिगों पर क्विंट हिंदी की सीरीज का यह तीसरा भाग है. पहले और दूसरे भाग को यहां पढ़ा जा सकता है. क्विंट हिंदी का सदस्य बनकर हमें सपोर्ट कीजिए और ऐसी अनगिनत स्टोरी को आप तक पहुंचाने में हमारी मदद कीजिए.)

“अगर मालिक लोग अच्छे होंगे तो तुम लोग अपनी बेटी के साथ फोन पर बात कर पाओगे... लेकिन अगर तुम्हें अपनी बेटी को कोई खोज-खबर न मिले, तो समझ लेना कि कुछ तो गड़बड़ है. ऐसे में उसके पास जाओ, उससे मिलो और शिकायत दर्ज कराओ.”

झारखंड (Jharkhand) के सिमडेगा में 44 साल की एक औरत, गांव की दूसरी औरतों को सलाह दे रही हैं. वे सभी उसकी बात तसल्ली से सुन रही हैं.

सलाह देने वाली औरत भी कभी घरेलू हेल्पर के तौर पर शहर में काम करती थीं लेकिन लगातार उत्पीड़न, गाली-गलौच और जातिवादी अपशब्द सुनने के बाद वहां से भाग निकलीं.

अब यह महिला सिमडेगा में एक एनजीओ में काम करती हैं और लोगों को इस बारे में जागरूक करती हैं कि किन-किन तरीकों से नाबालिगों को शहरों में बहला-फुसलाकर ले जाया जाता है. काम पर रखने वालों के घरों में खतरों के क्या संकेत होते हैं और जब परेशानी में फंसो, तो किससे संपर्क किया जा सकता है.

सिमडेगा के एक गांव के शेल्टर होम में सोशल वर्क करने वाली यह महिला कभी खुद घरेलू हेल्पर थीं.

(आशना बुटानी/क्विंट हिंदी)

क्विंट हिंदी ने सिमडेगा में ‘गरिमा केंद्र’ या महिलाओं के लिए शेल्टर होम में उनसे मुलाकात की, जहां वह वॉलियंटर हैं. इस दौरान उन्होंने दिल्ली में घरेलू हेल्पर के तौर पर अपने अनुभवों को याद किया और बताया कि जब वह वहां से भागकर वापस झारखंड आईं, तो उनकी जिंदगी कितनी बदल गई.

सिमडेगा के एक गांव के शेल्टर होम में सोशल वर्क करने वाली यह महिला कभी खुद घरेलू हेल्पर थीं.

प्लेसमेंट एजेंसियां, तस्करी करने वाले महिलाओं और नाबालिगों को यह कहकर फुसलाते हैं कि वे उन्हें अच्छे पैसे दिलवाएंगे

यह महिला ओड़िशा की रहने वाली और मुंडा जनजाति की हैं. जब वह 25 साल की हुईं तो उसकी शादी कर दी गई और वह झारखंड के सिमडेगा के एक गांव आ गईं.

“मेरे पति के पास 1.5 एकड़ जमीन थी जहां हम धान उगाते थे. लेकिन खेती से बहुत कम कमाई होती थी.” वह याद करती हैं.

उस दौरान उन्हें गांव की उन लड़कियों और औरतों के बारे में पता चला जो काम की तलाश में शहरों में गई थीं.

“मैंने सुना था कि वहां अच्छा पैसा मिलता है तो मैं भी कुछ औरतों के साथ गांव से शहर आ गई और प्लेसमेंट एजेंसी के जरिए काम ढूंढ लिया.”

यह बताते हुए, उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. अब उनकी उम्र 44 साल है. वह कहती हैं कि प्लेसमेंट एजेंसियां और तस्कर “अच्छे पैसे” की बात इसलिए करते हैं ताकि “नाबालिग लड़कियों और औरतों को बहला-फुसलाकर शहरों में” लाया जा सके. लेकिन यह सब झूठ ही होता है.

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8000 रुपए महीने का वादा किया गया लेकिन मिले महीने में सिर्फ 833 रुपए

उन्हें याद नहीं कि दिल्ली में वह कहां काम करती थीं. “मैं सिर्फ इतना जानती हूं कि उस परिवार के पास एक बड़ा सा बंगला था,” वह क्विंट हिंदी से कहती हैं.

जब उन्होंने घर छोड़ा था तो उनके दो बेटे थे, एक दो साल का, और दूसरा पांच साल का. जब वह घर लौटीं तो बेटे पांच और आठ साल के हो गए थे. “तब मेरे पास फोन नहीं था इसलिए मैं अपने परिवार से बात नहीं कर पाती थी. साहब मेमसाहब मुझे अपना फोन नहीं देते थे कि मैं परिवार वालों से बात कर पाऊं.” वह कहती हैं.

उन्हें  हर महीने 8,000 रुपए देने का वादा किया गया था यानी साल का 96,000 रुपए. लेकिन साल के आखिर में उन्हें 10,000 रुपए दिए जाते थे, जिसका मतलब होता है, हर महीने 833 रुपए. वह वहां हर दिन 12 घंटे काम करती थीं, बिना एक भी दिन की छुट्टी लिए.

वह याद करती हैं:

जब काम करते हुए मुझे दो साल पूरे हो गए तो मैंने फिर से अपने साहब मेमसाहब से कहा कि मेरा बकाया पैसा मुझे दे दें. जब मैंने उनसे बहुत बहसबाजी की, झगड़ा किया तो उन्होंने मुझे 25,000 रुपए दिए.

वह मुझे मेरी जाति के नाम पर गालियां देते थे, घरवालों से बात नहीं करने देते थे

2012 में वह 25,000 रुपए लेकर उस घर से भाग निकलीं. वह झारखंड लौट आईं और उसके बाद से कभी शहर वापस नहीं गईं.

लेकिन वह उस बुरे बर्ताव को कभी भूल नहीं पाईं. दस साल से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन उसकी टीस अब भी रह-रहकर उठती है. वह याद करती हैं, “वो लोग मुझे गालियां देते थे, मुझे जंगली देहाती जैसे नामों से पुकारते थे. कभी-कभी मुझे मारते भी थे.”

अपने गांव में लौटकर, उन्होंने प्रण लिया कि वह अपने आस-पास के हालात को बदलेंगी. “मैंने सिलाई सीखी, और स्कूल में बच्चों को सिलाई सिखाने लगी. फिर एक एनजीओ के साथ काम करने लगी जो महिला किसानों और तस्करी के शिकार लोगों की मदद करता है.” उनकी आवाज में कुछ गर्व का भाव भर जाता है.

“गरिमा केंद्र” में दीवार पर एक बोर्ड लगा है. इसमें तस्करी के सर्वाइवर्स के लिए क्या करें- क्या न करें, की एक सूची बनी हुई है. “मैं सोच भी नहीं सकती कि किसी पर भी वह गुजरे, जो मुझ पर गुजरी... लेकिन जब मैं वापस लौटी तो लगा कि यहां कुछ भी आसान नहीं है.” वह कहती है.

जब वह 2012 में लौटी तो एक नामुमकिन काम को पूरा करने का जिम्मा उसके सिर पर था- उसे चार लोगों के परिवार को पालना था. कुछ ही समय बाद उसका तीसरा बेटा हुआ.

वह याद करती हैं:

मेरा पति पूरे दिन शराब पीता रहता था और कुछ काम नहीं करता था. मुझे पैसा कमाना था क्योंकि तभी मैं अपने बच्चों का पेट पाल सकती थी. लेकिन मेरे पति की हरकतों की वजह से कोई मुझे काम नहीं देना चाहता था, हालांकि मैं बाकी लोगों के मुकाबले ज्यादा पढ़ी लिखी थी.

उन्होंने स्कूली की पढ़ाई के अलावा दो साल कॉलेज में भी पढ़ाई की थी.

इसलिए वह अपने बच्चों के साथ ओड़िशा में अपने मायके चली गईं और वहां सिलाई सीखना शुरू किया. वह बताती हैं-“जब मैं सिमडेगा लौटी तो मैंने हाई स्कूल के बच्चों को सिलाई सिखानी शुरू कर दी.”

जब मैं सिमडेगा लौटी तो मैंने हाई स्कूल के बच्चों को सिलाई सिखानी शुरू कर दी.

(दीक्षा मल्होत्रा/क्विंट हिंदी)

लड़कियों को सिलाई सिखानी शुरू की, अब वे गांव में ही कमाई कर सकती हैं

एक दिन, उनकी कुछ स्टूडेंट्स- जो सभी लड़कियां हैं- ने उनसे कहा कि जब से उन्होंने सिलाई सीखनी शुरू की है, उन्हें गांव में ही पैसा कमाने का जरिया मिल गया है.

वह कहती है- “उन्होंने कहा कि अब उन्हें शहर जाने की जरूरत महसूस नहीं होती... तब मैंने सोचा कि यह कितना अच्छा विचार है.”

सालों साल वह लड़कियों को सिलाई सिखाती रहीं ताकि उन्हें पैसे कमाने के लिए शहर जाकर शोषण का शिकार न होना पड़े. चार साल पहले उन्होंने एक एनजीओ में काम करना शुरू किया जोकि नए मौके की तलाश करने वाली औरतों को लोन देता है.

वह कहती हैं-“लोग नहीं जाते कि अपनी जमीन का किस तरह अच्छा से अच्छा इस्तेमाल करें. हम उन्हें धान, इमली और महुआ उगाने में मदद करते हैं. वे लोग टमाटर और गोभी जैसी सब्जियां भी उगाते हैं.”

मुझे ताकत मिली है, आत्मविश्वास भी

उनका दिन सुबह आठ बजे शुरू होता है, और वह नौ बजे से खेती करना शुरू करती हैं. शाम को ब्लाउज और सलवार जैसे कपड़े सीती हैं, साथ ही एनजीओ के साथ काम भी करती हैं. हफ्ते में दो बार आंगनवाड़ी में जाकर मदद करती हैं. एनजीओ से 3,500 रुपए कमाती है, और सिलाई से 3,000 से 5,000 रुपए तक.

वह कहती है.- “पहले मैं बहुत घबराई रहती थी लेकिन अब मैं कमाती हूं, और अपना परिवार चलाती हूं. मुझे ताकत मिली है. मैं छोटी लड़कियों और औरतों की काउंसिलिंग करती हूं. और अब जमीनी स्तर पर बचाव का काम भी करना चाहती हूं... किसी ने मुझे यह सब नहीं बताया था लेकिन अब मैं यहां हूं और लोगों को जागरूक कर सकती हूं.”

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