Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019कोई बिन बेल बंद तो कोई डेट के इंतजार में,झारखंड की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी

कोई बिन बेल बंद तो कोई डेट के इंतजार में,झारखंड की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी

Jharkhand की 30 जेलों में 17,141 अंडर ट्रायल कैदी हैं. जबकि कुल क्षमता ही 17,096 है

आनंद दत्त
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>कोई बिन बेल बंद तो कोई डेट के इंतजार में,झारखंड की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी</p></div>
i

कोई बिन बेल बंद तो कोई डेट के इंतजार में,झारखंड की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी

(प्रतीकात्मक फोटो- क्विंट)

advertisement

‘’कौन लोग हैं जेल में, न उनको संवैधानिक अधिकार के बारे में पता है. न उनको प्रस्तावना के बारे में पता है. न संवैधानिक कर्तव्य के बारे में पता है. आप जानते हैं वहां के लोग थोड़ा खाने पीने में दूसरा (नशे) माहिर होते हैं. थोड़ा बहुत कुछ थप्पड़ मार दिया, उस पर क्या क्या दफा लगा दिया, जो लगाना नहीं चाहिए. घरवाले उन्हें सालों तक जेल से छुड़ाते नहीं हैं. क्योंकि उनको लगता है कि जो भी बचा धन दौलत है, वह मुकदमा लड़ने में बर्बाद हो जाएगा. इनके लिए कुछ करना होगा.’’

ये किसी और के बोल नहीं, बल्कि भारत की प्रथम नागरिक राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हैं. जिस वक्त वो ये बात बोल रहीं थीं, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू सहित बड़ी संख्या में जिस्टिस और न्यायिक सेवा के अधिकारी मौजूद थे. मौका था 26 नवंबर को आयोजित संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह का.

राष्ट्रपति ने ऐसा क्यों कहा? उसकी बानगी देखिये

रांची के बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार के मेन गेट के बाहर मंगलवार, 7 दिसंबर को सुबह सात बजे से ही मुलाकातियों की भीड़ लग चुकी है. पास के मिल्क पार्लर में हर कोई अपना मोबाइल जमा करा रहा है, साथ में एक पर्ची ले रहा है. गेट के अंदर सामान्य जांच के बाद मुलाकाती अंदर जाते हैं. सात काउंटर बने हैं, जहां कैदी आ रहे हैं, अपने घरवालों से मुलाकात कर रहे हैं.

किसी मछली बाजार या सब्जी बाजार की तरह लोगों के चिल्लाने की आवाज से मुलाकाती कमरा गूंज रहा है. जालीदार खिड़की के उस तरफ कैदी हैं और इस तरफ घरवाले. एक खिड़की पर तीन से चार कैदी, तो 10 से 12 घरवाले. सभी जोर-जोर से बोल रहे हैं, ताकि तय समय के अंदर वो पूरी बात कर सकें. किसी को किसी दूसरे के सुन लिए जाने का कोई भय या शर्म नहीं है.

गुमला जिले के विसेश्वर उरांव (35 साल) बीते साढ़े तीन साल से जेल में बंद हैं. उनपर साइकिल चुराने का आरोप है. उनके पास किसी वकील को फीस देने के पैसे नहीं हैं. न ही उनके घरवालों को पता है कि वह किस जेल में बंद हैं. परिवार में सिर्फ उनकी एक बेटी है, जो नौ साल की है. उसी कांड संख्या में बाकि अन्य आरोपियों को बेल मिल चुका है. झारखंड हाईकोर्ट के वकील सोनल तिवारी ने क्विंट को बताया है कि डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी (डीएलएसए) के माध्यम से जो वकील मिला है, उन्होंने आज तक विशेश्वर उरांव से संपर्क नहीं किया है.

इतने दिनों में उनके कोई घरवाले उनसे मिलने नहीं आए हैं. उन्हें बिल्कुल भी पता नहीं है कि कब वह निकल पाएंगे. कोर्ट में उनकी सुनवाई होगी भी या नहीं.

रांची के डोरंडा इलाके के साबिर अंसारी बीते छह माह से जेल में हैं. उन पर भी साइकिल चोरी का आरोप है.

स्वतंत्र पत्रकार रूपेश सिंह को इसी साल 17 जुलाई को गिरफ्तार किया गया था. उनके ऊपर पुलिस ने आरोप तो तय कर दिए हैं, लेकिन अभी तक चार्जशीट दायर नहीं हो पायी है. पुलिस के मुताबिक रूपेश कुमार सिंह माओवादियों के समर्थक हैं, अपने कामों से उन्हें मदद पहुंचाते हैं. फिलहाल रूपेश भी इसी जेल में बंद हैं.

कोडरमा जिले के बिरसा मुंडा (45 साल) को एक साल पहले रात 10 बजे पुलिस ये कहकर घर से उठा ले गई कि थाने में बड़ा बाबू ने बुलाया है, पूछताछ के बाद जाने दिया जाएगा. पत्नी सुकरू देवी कहती हैं हमें बहुत बाद में पता चला कि पति को अफीम की खेती करने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया है. हमलोगों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है, खेती कहां से करेंगे. स्थानीय आरटीआई कार्यकर्ता ओंकार विश्वकर्मा के मुताबिक कोडरमा जिले में अफीम की खेती नहीं होती है.

सुकरू देवी के चार बच्चे हैं. पति को जेल से छुड़ाने के लिए अब तक 50 हजार रुपए का कर्ज हो चुका है. दिहाड़ी मजदूरी करके किसी तरह बस बच्चों को पाल रही हूं. कोडरमा मंडल कारा में बिरसा मुंडा के साथ इसी मामले में ठिपा मुंडा भी बंद हैं.

झारखंड की जेलों में कितने अंडरट्रायल कैदी?

ओंकार विश्वकर्मा ने इस संबंध में आरटीआई डाला था. उससे मिली जानकारी के मुताबिक, झारखंड के डिस्ट्रिक्ट और सब-डिविजनल जेलों को मिलाकर कुल 30 जेलों में 17,141 अंडर ट्रायल कैदी हैं. ये आंकड़ा जुलाई 2021 तक का है. इन 30 जेलों की क्षमता 17,096 है. यानी क्षमता से अधिक तो केवल अंडर ट्रायल कैदी ही हैं. वहीं 4,865 दोषी करार दिए गए कैदी मौजूद हैं.

यानी इन 30 जेलों की कुल क्षमता 17096 है, लेकिन यहां कैदियों की संख्या 22006 है. कुल 128.72 प्रतिशत.

शिकारीपाड़ा के विधायक नलिन सोरेन (JMM) ने बीते साल यानी 2021 के एक विधानसभा सत्र के दौरान इस मसले पर सवाल उठाया था. उन्होंने कहा था कि झारखंड के जेलों में 74 प्रतिशत तो अंडरट्रायल कैदी ही भरे हैं. इसमें अधिकतर आदिवासी, दलित और मुस्लिम हैं.

इसके बाद साल 2022 के जुलाई महीने में सीएम हेमंत सोरेन ने गृह विभाग की एक मैराथन बैठक बुलाई और पूरे मामले पर जानकारी मांगी. इसके बाद उन्होंने कहा कि, वह राज्य के सभी जेलों का खुद दौरा करेंगे. साथ ही अधिकारियों से कहा कि ऐसे अंडर ट्रायल कैदी जो तीन या इससे अधिक साल से जेल में बंद हैं, उन्हें वकीलों के माध्यम से लीगल सहायता मुहैया कराया जाए. अधिकारी इसे टॉप प्रायोरिटी पर लेकर काम करें. हालांकि ऐसा कुछ हुआ नहीं.

देशभर में अंडरट्रायल कैदियों के हालात

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों पर गौर करें तो बीते 31 दिसंबर 2021 तक देशभर के 1319 जेलों में 5,54,034 कैदी बंद हैं. इसमें 4,27,165 अंडर ट्रायल हैं. यानी 77.1 प्रतिशत कैदी अंडरट्रायल हैं. इन जेलों की क्षमता 4,25,609 कैदियों की है. यानी देशभर के जेल औसतन 130.2 प्रतिशत भरे हुए हैं. साल 2016 में जहां अंडरट्रायल कैदियों की संख्या 2,89,800 थी, वहीं साल 2021 में यह 4,27,165 हो गई.

ऐसे में सवाल उठता है कि झारखंड सहित देशभर के जेलों में अंडर ट्रायल कैदियों की रिहाई के लिए कोई पहल हो रही है क्या? साल 2018 में फादर स्टेन स्वामी ने लंबे समय से इंतजार कर रहे अंडरट्रायल कैदियों की रिहाई के लिए झारखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी.

कोर्ट में इस मामले के वकील शिवकुमार बताते हैं कि मिली जानकारी के मुताबिक झारखंड ने अपना जेल मैन्युअल अब तक नहीं बनाया है. वकील सोनल तिवारी के मुताबिक, यह बिहार के जेल मैन्युअल से ही चल रहा है. साल 2016 में आईजी प्रीजन ने जेल मैन्युअल बनाकर लॉ डिपार्टमेंट को भेजा था. जिसे कुछ आपत्तियों के बाद वापस भेज दिया गया था. जिसके बाद से आज तक इसपर आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई. हाईकोर्ट में भी यह मामला चल ही रहा है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

नियम के मुताबिक देशभर के जिलों में अंडरट्रायल रिव्यू कमेटी का गठन किया गया है. इस कमेटी में जिला जज, जिलाधिकारी, एसपी, पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, जेलर और डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी (डालसा) के इंचार्ज मेंबर होते हैं. डालसा रांची के सेक्रेटरी राकेश रंजन के मुताबिक रिव्यू कमेटी की बैठक हर तीन महीने पर होती है.

कानून में सुधार का फायदा आदिवासियों, दलितों को क्यों नहीं?

राष्ट्रपति ने ये भी कहा कि इन कैदियों में अधिकतर गरीब आदिवासी हैं, जो छोटे अपराधों में शामिल रहे, जिनके ऊपर जो धारा नहीं लगनी चाहिए, वो लगे हैं. अगर ऐसा है तो इसमें गलती किसकी अधिक होती है? वर्तमान में झारखंड हाईकोर्ट के वकील और पूर्व सब-मजिस्ट्रेट सुभाशीष रसिक सोरेन कहते हैं, 2005 में क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट आई थी. इसमें 436 ए को सीआरपीसी के तहत जोड़ा गया था, इसके तहत जो भी अंडरट्रायल कैदी होंगे, उन्हें आरोप की आधी सजा पूरी करने के बाद जेल में नहीं रखा जा सकता है.

दुमका जिले के बहुत सारे केस रांची में फंसे हुए हैं, उन कैदियों से लोकल बेलर की मांग की जाती है. जिसकी वजह से बहुत दिक्कत आती है. लेकिन 436ए के तहत पर्सनल बॉन्ड पर भी छोड़ा जा सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

वो आगे कहते हैं, जहां तक बंदी के कानूनी जानकारी न होने की बात है, इसके लिए डालसा को अधिकार दिया गया है. लेकिन जो अधिवक्ता ज्यादा एक्टिव हैं, वो डालसा में जाने को इच्छुक नहीं होते हैं. यहां वो लोग अधिक होते हैं, जो अच्छी प्रैक्टिस वाले नहीं होते हैं. डालसा का गठन झालसा के तहत किया गया है.

बता दें कि झारखंड स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी (झालसा) एक ऐसी संस्था है जो जरूरतमंदों को मुफ्त लीगल सर्विस मुहैया कराती है. इसकी अध्यक्षता झारखंड हाईकोर्ट के सीनियर जज करते हैं. फिलहाल जस्टिस अपरेश कुमार सिंह इसके प्रमुख हैं.

झालसा ने साल 2020 में लोक अदालत के जरिये एक दिन में 36,096 केस को लिया. इसमें 35,133 केस का निपटारा किया गया. साथ ही 1,3,98,20,00,000 रुपए सेटलमेंट के तौर पर पीड़ितों को दिलाए. इसका जिक्र लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी शामिल है. इसके अलावा कोविड में अनाथ हुए 1500 बच्चों को झालसा ने गोद लिया है. स्पॉन्शरशीप के तहत उनका पालन पोषण किया जा रहा है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने भाषण में इसी झालसा की प्रशंसा की थी.

क्या आदिवासी जजों की जरूरत है?

क्या आदिवासी या दलित जजों की संख्या अधिक होती तो इस तरह के मामलों का निपटारा जल्दी होता? मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, "हम सीधे तौर पर नहीं कह सकते कि फायदा होता, लेकिन हालात बेहतर होते. निचली अदालत के जज काफी डरे हुए होते हैं. वह अपने ऊपर कुछ लेना नहीं चाहते, वह बेल देने में हिचकते हैं. लोकसभा में भी इतने सांसद हैं, क्या कभी उन्होंने इस मुद्दे को उठाया है? कभी नहीं."

वो आगे कहते हैं, "राष्ट्रपति ने भी बहुत बहादुरी का काम नहीं किया है. चूंकि कोलेजियम सिस्टम को लेकर न्यायपालिका और विधायिका में रार चल रहा है, इसको काउंटर करने के लिए राष्ट्रपति महोदय ने यह बोला है."

"आप देखिये न देशभर में आदिवासियों के फेक एनकाउंटर हो रहे हैं, उसपर आज तक उन्होंने कुछ नहीं बोला है. यहां तक कि 9 अगस्त को जब दुनियाभर में आदिवासी दिवस मनाया जा रहा था, महामहिम ने शुभकामना देना तक जरूरी नहीं समझा."

वहीं सुभाशीष इसके तकनीकी पहलुओं की ओर इशारा करते हैं. उनके मुताबिक झारखंड में जिला जज की परीक्षा में आरक्षण अभी तक लागू नहीं किया गया है. फिलहाल यह ओपन फॉर ऑल है. जबकि हाईकोर्ट की एक स्टैंडिंग कमेटी का आरक्षण लागू करने को लेकर सिफारिश भी है. लेकिन हाईकोर्ट ने इसकी इजाजत नहीं दी है.

आखिर क्यों हैं इतने अंडरट्रायल कैदी?

अंडरट्रायल कैदियों की बढ़ती संख्या पर हमने पुलिस अधिकारियों की राय जाननी चाही. रिटायमेंट ले चुके पूर्व आईजी अरुण उरांव कहते हैं, "कोर्ट में प्रायरोरिटी के आधार पर केस की सुनवाई तय की जाती है. इसमें गरीब लोग पीछे रह जाते हैं. क्योंकि पैरवी करने के लिए वकील नहीं रहते हैं. जहां तक पुलिस की बात है, तो थानों पर वरीय अधिकारियों का दबाव होता है. कोई मामला दर्ज हो जाने के बाद उसमें गिरफ्तारी दिखानी होती है. यहीं बकरी चोरी और साईकिल चोरी जैसे मामलों में गरीब गिरफ्तार होते हैं."

वो आगे कहते हैं, झारखंड में तो माओवाद के मामले में भी गिरफ्तारी दिखाकर पुलिस को वाहवाही लेनी होती है. ऐसे में बड़े माओवादी तो जल्दी गिरफ्तार होते नहीं हैं, ऐसे में जंगल में रह रहे सामान्य आदिवासी को उनका समर्थक बता कर गिरफ्तारी दिखा दी जाती है.

वहीं रिटायर्ड डीआईजी राजीव रंजन सिंह का कहना है कि, दरअसल पुलिस जब भी किसी को जेल भेजती है तो ज्यूडिशियल रिमांड के बाद वह ज्यूडिशियरी के प्रिव्यू में आ जाता है. जमानत की आवश्यक तारीख पर केस डायरी भेजने और चार्जशीट भरने के अलावा उन्हें रिहा करने में सीधे तौर पर पुलिस की कोई भूमिका नहीं है. ऐसे में विचाराधीन कैदियों की अत्यधिक संख्या के पीछे मुख्य कारण लंबित मामलों की अत्यधिक संख्या है.

मार्क्सवादी समन्वय समिति से जुड़े सुशांतो मुखर्जी के मुबाबिक 3000 से 3500 तक बंदी नक्सल के नाम पर झारखंड के जेल में बंद हैं. उन्हें पता नहीं है कि किस आरोप मे जेल में हैं. उनके घरवालों को पता है कि वह काम से बाहर गए हैं. एक साल बाद, तो कभी दो साल बाद पता चलता है वह जेल में है.

इन सब के बीच अरुण उरांव का मानना है कि अगर राष्ट्रपति भवन से इस मामले पर लगातार निगरानी रखी जाती है, तो ही स्थिति में बदलाव संभव हो सकता है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT