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एक बार फिर बिहार का मुजफ्फरपुर, बच्चों की चीखों और परिवार के मातम से गमगीन है. 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है. इनमें से ज्यादातर बच्चे 10 साल से भी कम उम्र के थे. हर साल पूर्वी यूपी और बिहार में मौत बनकर आने वाली इस बीमारी के बारे में खबरें तो बनती हैं लेकिन इसका पुख्ता समाधान नहीं निकल पाता. ऐसे में बच्चे मर रहे हैं और सिस्टम लाचार है.
हाल के दिनों में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) से पीड़ित 450 से ज्यादा बच्चे अस्पताल लाए गए. इनमें मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में 85 और केजरीवाल हॉस्पिटल में 20 से ज्यादा बच्चों ने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया.
ऐसे में हम आपको बता रहे हैं वो पांच संभावित कारण जिनकी वजह से इंसेफेलाइटिस पनपा और बच्चों के लिए काल बन गया.
मुजफ्फरपुर में श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज इलाके का नामी अस्पताल है. इसके बावजूद अस्पताल के पास इंसेफेलाइटिस से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. अस्पताल में वायरोलॉजी लैब या पर्याप्त संख्या में बाल चिकित्सा आईसीयू नहीं हैं.केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 100 बेड के बच्चों के वार्ड की स्थापना की घोषणा की है. इसके अलावा सात बाल चिकित्सा आईसीयू बनाने के लिए काम किया जा रहा है.
बीते सोमवार को, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि इंसेफेलाइटिस से पीड़ित बच्चों के इलाज के लिए एक हाई क्वालिटी रिसर्च टीम का गठन किया गया है. उन्होंने कहा कि बिहार के विभिन्न जिलों में पांच वायरोलॉजी लैब स्थापित किए जाएंगे.
इंसेफेलाइटिस के ज्यादातर रोगी स्वास्थ्य सेवा के लिए सबसे पहले नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचते हैं. जबकि ज्यादातर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इंसेफेलाइटिस के मामलों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं. ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों के पास ग्लाइकोमीटर नहीं होता है, जो लो ब्लड शुगर वाले रोगियों की जांच के लिए जरूरी है. जब तक इंसेफेलाइटिस के शिकार रोगियों को श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज रेफर किया जाता है, तब तक ज्यादातर रोगियों की हालत गंभीर हो चुकी होती है.
श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के मेडिकल सुप्रिंडेंट डॉ. एसके शाही बताते हैं, "ज्यादातर मरीज प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रो और प्राइवेट डॉक्टरों के पास से हमारे यहां आते हैं, जबकि उन्हें उल्टी और बुखार के लक्षण दिखने के तुरंत बाद लाया जाना चाहिए."
हाल ही में श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज का दौरा करने पहुंचे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा था कि केंद्र सरकार इंसेफेलाइटिस से प्रभावित क्षेत्रों के हर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 10 बेड और एक ग्लाइकोमीटर की व्यवस्था कराएगी.
हेल्थ मिनिस्टर मंगल पांडे ने दावा किया है कि गरमी आने से पहले इंसेफेलाइटिस के खतरे को ध्यान में रखकर मार्च और अप्रैल में जागरूकता अभियान चलाया जाता है. लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि लोकसभा चुनाव के कारण मुजफ्फरपुर और इसके आसपास के इलाकों में इंसेफेलाइटिस से जुड़ा कोई जागरूकता अभियान नहीं चलाया गया.
इस तरह के जागरूकता अभियानों में आमतौर पर माता-पिता को सलाह दी जाती है कि वे अपने बच्चों को पूरी बाजू के सूती कपड़े पहनाएं, उन्हें धूप में न भेजें, और उन्हें बिना भोजन किए बिस्तर पर न जाने दें.
जागरूकता अभियानों के साथ ही साथ स्वास्थ्य विभाग की ओर से ओआरएस के पैकेट भी बांटे जाने का प्रावधान है. लेकिन जिले के अधिकारी दबी जुबान में स्वीकार करते हैं कि प्रशासन इस बार पहले से सतर्क नहीं था, क्योंकि पिछले चार सालों में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों की संख्या कम हुई थी.
डॉक्टर और सरकारी अधिकारी बच्चों की मौत का कारण सीधे तौर पर इंसेफेलाइटिस कहने से बच रहे हैं. मौत की वजह पहले हाइपोग्लाइसीमिया ( ब्लड में अचानक शुगर की कमी ) या सोडियम की कमी बताई गई. उनके मुताबिक बच्चे तेज और उमस वाली गर्मी में, भूखे रहने और कुपोषण के कारण बीमार पड़ रहे हैं.
मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ शैलेश सिंह ने बताया कि बीमार बच्चों में लो ब्लड शुगर (हाइपोग्लाइसीमिया) या सोडियम और पोटेशियम की कमी देखी जा रही है.
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. अरुण शाह ने कहा, “एक सामान्य व्यक्ति में लिवर ग्लाइकोजन का एक समृद्ध स्रोत है, लेकिन इस क्षेत्र के गरीब और कुपोषित बच्चों के साथ ऐसा नहीं है. इस क्षेत्र के बच्चे करीब-करीब कुपोषण का शिकार हैं. इंसेफेलाइटिस की वजह से मरे ज्यादातर बच्चों में ऐसा पाया गया है कि बच्चे रात को बिना भोजन के सो गए थे, जिसकी वजह से उनमें शुगर लेवल कम हो गया.”
अब सवाल आता है कि आखिर बच्चे खाली पेट क्यों सोए? या फिर इंसेफेलाइटिस का शिकार बनने वाले दस साल से भी कम उम्र के बच्चों को खाली पेट क्यों सोने दिया गया? क्या ये महज बच्चों का बिना खाए-पीए सो जाना भर है, या फिर ऐसा है कि इन घरों में बच्चों के खाने-पीने भर की व्यवस्थाएं भी नहीं थी.
सच ये है कि इंसेफेलाइटिस से प्रभावित मुजफ्फरपुर और आसपास के क्षेत्रों के लिए बिहार हेल्थ डिपार्टमेंट के पास स्पेशल न्यूट्रीशन प्रोग्राम है ही नहीं.
इंसेफेलाइटिस प्रभावित क्षेत्रों में न्यूट्रीशन प्रोग्राम्स के सवाल पर बिहार के हेल्थ मिनिस्टर मंगल पांडे ने कहा, “इंसेफेलाइटिस प्रभावित क्षेत्रों के लिए कोई स्पेशल न्यूट्रीशन प्रोग्राम नहीं है. जैसा कि हाइपोग्लाइसीमिया (ब्लड में लो शुगर लेवल) को इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों के मुख्य कारण के तौर पर बताया जा रहा है, हम इसके निराकरण के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं."
1 जून से, मुजफ्फरपुर में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बना हुआ है. विशेषज्ञों का मानना है कि अत्यधिक गर्मी और इस दौरान बारिश नहीं होने की वजह से इंसेफेलाइटिस के मामले बढ़ गए हैं.
साल 2011 और 2014 के बीच 970 बच्चों की मौत इंसेफेलाइटिस की वजह से हुई. इनमें गर्मी और उमस कॉमन कारण थे. विशेषज्ञों का कहना है कि बारिश होने के बाद इंसेफेलाइटिस से पीड़ित बच्चों की संख्या में कमी आई.
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स एसोसिएशन के एग्जीक्यूटिव कमेटी मेंबर डॉ. अरुण शाह का कहना है कि इस बीमारी के फैलने में गर्मी, उमस, साफ-सफाई की कमी और कुपोषण प्रमुख कारण हैं. शाह ने बताया कि तमाम स्टडी किसी एक निष्कर्ष पर आने में विफल रहे हैं लेकिन इंसेफेलाइटिस के फैलने में ये सभी कारण शामिल हैं.
मंगलवार को जब बिहार में सत्ताधारी जेडीयू के सांसद दिनेश वर्मा से इंसेफेलाइटिस को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने भी बीमारी से बचने के लिए बारिश का इंतजार करने को कहा.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, साल 2002 से 2018 के बीच 7000 से ज्यादा बच्चे इंसेफेलाइटिस का शिकार हुए. इनमें से दो हजार से ज्यादा बच्चों की इलाज के दौरान मौत हो गई.
रिपोर्ट्स बताती हैं कि इंसेफेलाइटिस पर रोकथाम के लिए सरकार अब तक रिसर्च और इलाज का उपाय खोजने के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है. साल 2015 में स्वास्थ्य मंत्रालय के एक्सपर्ट्स की एक टीम रिसर्च और इलाज का तरीका जानने के लिए अमेरिका के अटलांटा भी गई थी.
लेकिन आलम ये है कि अब तक बीमारी के इलाज का क्रम या तरीका तक तय नहीं हो पाया है. इंसेफेलाइटिस पर काबू पाने में नाकाम स्वास्थ्य विभाग हर साल की तरह इस बार भी बारिश का इंतजार कर रहा है, ताकि इंसेफेलाइटिस के मामलों में कमी आ सके.
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