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Moradabad Riots 1980: "घटना 24 जुलाई से ही शुरू हो गयी थी और 13 अगस्त को ईदगाह पर भड़क गई. बहुत लोग मारे गये थे. मैं और मेरे दो भाई जख्मी हुए थे. हम पर भीड़ ने हमला किया था." ये शब्द हैं कर्मवीर उर्फ 'लल्ला बाबू' के, जो 1980 में मुरादाबाद जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों का शिकार हुए थे.
एक अन्य पीड़ित मोहम्मद वसीम ने क्विंट हिंदी को बताया कि उस घटना में उनकी कीं मां को गोली मार दी गई थी, और उनका (मां) शव तीन दिन तक घर में पड़ा रहा, चौथे दिन पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया, लेकिन शव कहां लेकर गये, इसका आज तक पता नहीं चला.
दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने 1980 में मुरादाबाद जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच रिपोर्ट मंगलवार (8 अगस्त) को दोनों सदन-विधानसभा और विधान परिषद, के पटल पर रखी. विधानसभा में संसदीय कार्य मंत्री सुरेश कुमार खन्ना ने इस रिपोर्ट को सदन में पेश किया. 43 साल बाद सदन में यह रिपोर्ट पेश किए जाने के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद थे.
लल्ला बाबू इंदर चौके के निवासी हैं. उस वक्त वो घटना स्थल पर ही मौजूद थे. उन्होंने आगे कहा, "महीने तक दंगा चलता रहा. कभी किसी मोहल्ले से तो कभी किसी मोहल्ले से."
रिपोर्ट के अनुसार, मुरादाबाद में 13 अगस्त 1980 को ईदगाह में ईद-उल-फितर की नमाज अदा करते समय वहां सुअरों को लाए जाने की अफवाह के बाद मुरादाबाद जिले में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी, जो शहर के अन्य इलाकों में फैल गई थी. हिंसा भड़कने से 84 लोग मारे गए थे और 112 लोग घायल हुए थे.
रिपोर्ट में कहा गया है कि मरने वाले लोगों की सबसे ज्यादा संख्या ईदगाह में थी जहां से 34 शव बरामद हुए थे. शव परीक्षण के बाद घटना की जांच के लिए गठित एकल न्यायिक आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मृत 84 लोगों में से 55 लोगों की मृत्यु भगदड़ के दौरान तो वही 29 व्यक्तियों की मृत्यु अन्य चोटों से हुई थी.
55 साल के मोहम्मद वसीम की जनरल स्टोर की दुकान है. वसीम ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा, "बुधवार का दिन था. हम सब नमाज पढ़कर आ गये थे. PAC गोली चलाते हुए आई और उसने हमारे घर को निशाना बनाया, थाने के पीछे रहने वाले एक शख्स के घर को भी निशाना बनाया गया, जिसमें उनके घर के चार आदमी मार गये."
मुरादाबाद दंगे में फहीम हुसैन के परिवार के चार लोगों को पुलिस घर से उठा ले गयी थी. लेकिन उनका आज तक पता नहीं चला.
क्विंट हिंदी से बात करते हुए फहीम ने कहा, "ईद के दिन जब हंगामा हुआ तो करीब 12 बजे पुलिस आई और कहा कि पूछताछ होगी, फिर मेरे वालिद (पिता), मेरा दादा, मेरे अंकल और एक हमारा बिहार का आदमी था, उसे उठा ले गई. हम लोग तब छोटे थे, हमें टॉर्चर किया और घर में बंद कर दिया. आज तक किसी का पता नहीं चला."
फहीम हुसैन ने कहा, "जब तक जिंदा रहेंगे तब तक वो तारीख याद रहेगी. 13 अगस्त की तारीख फिर आ रही है, अभी से डर लग रहा है. बहुत बुरा महसूस करते हैं, वो सब याद करके."
डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने सदन में मुरादाबाद दंगो की रिपोर्ट पेश करने पर कहा कि "1980 के मुरादाबाद दंगों की रिपोर्ट जनता से छिपाई गई थी और इसे पेश किए जाने की जरूरत है. इस रिपोर्ट से प्रदेश ही नहीं देश की जनता को मुरादाबाद दंगों के बारे में सच्चाई जानने में मदद मिलेगी."
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ईदगाह व अन्य स्थानों पर गड़बड़ी पैदा करने में कोई भी सरकारी अधिकारी, कर्मचारी या हिंदू उत्तरदायी नहीं था. इनमें बीजेपी और आरएसएस की संलिप्तता भी नहीं थी.
आम मुसलमान भी इसमें शामिल नहीं था, बल्कि यह केवल डॉ. शमीम के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग व डॉ. हामिद हुसैन उर्फ डॉ. अज्जी और उनके समर्थकों के साथ भाड़े पर बुलाए गए लोगों की करतूत थी.
आयोग ने पीएसी, पुलिस और जिला प्रशासन पर लगे आरोप भी खारिज कर दिए गए. जांच में पाया गया कि ज्यादातर मौतें पुलिस फायरिंग में नहीं, बल्कि भगदड़ से हुई थी.
रिपोर्ट में बताया गया है कि जब शहर में यह अफवाह फैली कि ईदगाह में नमाजियों के बीच सुअरों को घुसा दिया गया है और उनके भड़कने पर बच्चों समेत बड़ी संख्या में मुसलमानों को मार दिया गया है, तो मुसलमानों ने अपना आपा खो दिया और पुलिस स्टेशनों, चौकियों और हिंदुओं पर हमला कर दिया.
रिपोर्ट के अनुसार, हर समुदाय में कुछ असामाजिक तत्व होते हैं और वे अपनी पुरानी दुश्मनी निपटाने और स्थिति को बदतर बनाने के लिए मौका देखकर तुरंत सामने आ जाते हैं.
आयोग ने राज्य में सांप्रदायिक दंगों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कई सुझाव दिए. कहा कि पाकिस्तान से वीजा लेकर आए लोगों को समय सीमा पूरी होने पर कई महीनों तक रुकने की अनुमति देने के बजाय उन्हें वापस भेजा जाए.
सांप्रदायिक दंगों वाले मामलों का निस्तारण न्यायालय में ही होना चाहिए. कोई भी मामला वापस नहीं लेना चाहिए, इससे दो समुदायों में कटुता बढ़ती है. दंगा होने पर लाउडस्पीकर से अफवाहों का खंडन करना चाहिए. ऐसी अफवाहों से आतंक उत्पन्न होता है और भगदड़ की स्थिति बनती है.
जांच के बाद आयोग की रिपोर्ट को दोनों सदनों (विधानसभा और विधान मंडल) में रखे जाने के लिए मंत्रि परिषद के अनुमोदन के लिए अलग-अलग मुख्यमंत्रियों से सहमति मांगी गई. हालांकि रिपोर्ट को लंबित रखने का फैसला किया जाता रहा.
गौरतलब है कि 1980 में यूपी में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जबकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.
(इनपुट-शारिक सिद्दीकी)
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