Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019मुजफ्फरनगर दंगे के 10 साल: 11 लोगों का न शव मिला न डेथ सर्टिफिकेट- इंतजार करते परिवार

मुजफ्फरनगर दंगे के 10 साल: 11 लोगों का न शव मिला न डेथ सर्टिफिकेट- इंतजार करते परिवार

Muzaffarnagar Riots: दंगे के दस साल हो चुके हैं, लेकिन इन 11 मृतक के परिवारों को सरकार की ओर से अभी तक मृत्यु प्रमाण पत्र जारी नहीं किए गए हैं.

फातिमा खान
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>मुजफ्फरनगर दंगे के 10 साल: 11 लोगों का न शव मिला न डेथ सर्टिफिकेट</p></div>
i

मुजफ्फरनगर दंगे के 10 साल: 11 लोगों का न शव मिला न डेथ सर्टिफिकेट

(फोटो- क्विंट हिंदी)

advertisement

मुजफ्फरनगर दंगों (Muzaffarnagar Riots) के तीन साल बाद यानी 2016 में सईद हसन को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मिलने के लिए बुलाया था. उस मीटिंग में उनके अलावा, दस और लोगों को बुलाया गया था. इस बैठक में अखिलेश यादव ने सईद हसन समेत कुल 10 लोगों को 15-15 लाख रुपये का चेक दिया था. ये मुआवजा उन परिवारों को दिया गया, जिन्होंने मुजफ्फरनगर दंगों में अपने परिवार के सदस्यों को खो दिया था.

दंगा होने के कुछ समय बाद ही ज्यादातर पीड़ित परिवारों को मुआवजा मिल गया था लेकिन पहले इन 11 परिवारों को मिलने वाले मुआवजे पर रोक लगा दी गई थी क्योंकि दंगे में मारे गए उनके संबंधियों के शव नहीं मिल पाए थे.

शवों के बरामद नहीं होने के बावजूद भी कई कारणों से इन लोगों को सरकार मृत मान रही थी. पहला कारण तो ये है कि इन लोगों की मौत की एफआईआर दंगों के दौरान ही दर्ज की गई थी. दूसरी वजह, उन चश्मदीदों के बयान थे, जिन्होंने इन लोगों की हत्याओं की गवाही दी थी. अंतिम कारण, दंगों के बाद गठित विशेष जांच दल (SIT) ने इन 11 ‘लापता’ लोगों की केस की जांच हत्या के दिशा में करनी शुरू की थी.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति को उसके करीबी लोगों ने सात साल से नहीं देखा है या उसके बारे में नहीं सुना है, तो उसे मृत मान लिया जाता है. और अगर कोई परिजन यह दावा करता है कि उक्त व्यक्ति जिंदा है तो "यह साबित करने का भार" उसी परिजन पर है.

इन तमाम तथ्यों के अलावा, मुख्यमंत्री का इन 11 परिवारों को मुआवजा देना, इस बात के संकेत के रूप में देखा गया कि इनके परिवार वाले दंगों में मारे गए थे. आज दंगे के दस साल हो चुके हैं, लेकिन इन 11 मृतक के परिवारों को सरकार की ओर से अभी तक मृत्यु प्रमाण पत्र जारी नहीं किए गए हैं. मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं मिलने के कारण ये तमाम परिवार अभी भी मृत्यु के बाद मिलने वाले अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं. सवाल है कि क्या इन प्रमाणपत्रों को जारी करने में प्रशासन की विफलता और ब्यूरोक्रेट्स की दिक्कतों का परिणाम नहीं है?

द क्विंट ने अपनी इन्वेस्टिगेशन में पाया कि शवों को ढूंढने की प्रक्रिया में बहुत सारी खामियां थीं. पुलिस प्रशासन ने शवों को ढूंढने में काफी कोताही बरती. इसके अलावा, इन शवों की जांच में भी प्रशासन की ओर से कई स्तर पर लापरवाही बरती गई. प्रशासन से कई स्तर पर हुई नाकामियों के कारण ही आज तक इन 11 लोगों को मृत घोषित नहीं किया जा सका है.

ये परिवार गांव छोड़ कर क्यों नहीं गए?

2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पहले यहां के स्थानीय दबंग लोगों ने एक बड़ी ग्राम पंचायत बुलाई थी. इस ग्राम पंचायत ने यहां रहने वाले मुसलमानों को एक दिन के अंदर अपना घर और गांव छोड़ने का अल्टीमेटम दिया था. ऐसा न करने पर उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी दी गई थी. इसके बाद, यहां से बड़े पैमाने पर मुस्लिम परिवारों का पलायन हुआ. सुरक्षा के सवाल पर मुस्लिम परिवारों को अपने पैतृक घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

हालांकि, कई मुस्लिम परिवारों ने इन धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया. उन्हें विश्वास था कि वे अपने घरों में सुरक्षित रहेंगे, जहां वे दशकों से रह रहे हैं. हसन के माता-पिता और उनके रिश्तेदार, जो लिसाढ़ नामक गांव के निवासी थे, इन्हीं लोगों में से एक थे.

हसन ने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि...

“हमें पता चला कि हमें परेशान करने के लिए कुछ लोग भीड़ को इकट्ठा कर रहे हैं और साथ ही हमसे कहा गया कि हमें अपना गांव छोड़कर चले जाना चाहिए. लेकिन मेरे माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों ने कहा कि ‘हम सब इतने दशकों से इन्हीं गांव वालों के साथ रह रहे हैं और जब हमारी कोई गलती ही नहीं है तो वे हमसे क्यों लड़ेंगे?’ इस वजह से हमने अपने गांव को नहीं छोड़ा.”

लेकिन 8 सितंबर यानी कि दंगों के पहले ही दिन हसन के परिवार को गांव वालों पर किए गए भरोसे की कीमत चुकानी पड़ी. हथियारों से लैस एक भीड़ हिंसक नारे लगाते हुए उनके घर की तरफ आ गई.

हसन ने हमसे बात करते हुए कहा कि “जैसे ही भीड़ हमारे करीब आती दिखी, हममें से कुछ लोग खेतों की ओर भागने की कोशिश करने लगे. मेरे माता-पिता सहित मेरे परिवार के पांच सदस्यों ने भागने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही वे घर के गेट पर पहुंचे भीड़ ने उन पर हमला कर दिया. इस कारण उनमें से पांच की वहीं मौत हो गई.

वे आगे कहते हैं कि “हममें से जो लोग जवान और भाग सकने में समर्थ थे, वे घर से भाग कर खेतों में जाने में कामयाब रहे." जिन लोगों ने ग्रामीणों पर भरोसा होने के कारण गांव नहीं छोड़ा था, साबिर अंसारी के माता-पिता की तरह विकलांगों और बुजुर्गों को भी दंगों में परेशानी झेलनी पड़ी.

साबिर अंसारी ने हमें बताया कि...

“जब पूरा गांव हमें मारने की कोशिश में एक भीड़ में तब्दील हो गया, तब हमने घर के पिछले गेट से भागने की कोशिश की. लेकिन मेरे पिता बूढ़े थे, जिस कारण वह तेज चल नहीं सकते थे और मेरी मां, जिनका पैर तीन साल पहले ही टूट गया था, वो बिस्तर पर ही थीं, टॉयलेट से लेकर खाना सब वहीं होता था. वे विकलांग थीं...भीड़ ने उन्हें भी पीटा."
साबिर अंसारी

अंसारी और उनके भाई-बहन घर के पिछले गेट से बाहर भागने में सफल रहे. लेकिन वे अपने माता-पिता को बाहर ले जाने में कामयाब नहीं हो सके और न ही उन्हें अपने माता-पिता को आखिरी बार देखने का मौका नसीब हुआ.

अंसारी कहते हैं कि “जब भीड़ मेरे घर पहुंची, तब मेरी मां ठीक गेट के बाहर थीं. हमारे घर पहुंचते ही उन्होंने वहीं पर मेरी मां को मार डाला. भागने के क्रम में जब हमने पीछे मुड़कर देखा, तो मेरी मां को मार दिया गया था और उन्होंने हमारे पिता को भी मारने के लिए उन्हें पकड़ लिया था.

कई मामलों में लोगों ने पालतू जानवरों के कारण अपने घर को नहीं छोड़ा, जिस कारण भी उन्हें दंगों का सामना करना पड़ा, जैसे दीन मुहम्मद के दादा का मामला.

मुहम्मद, जो दंगे के समय केवल 14 साल के थे, याद करते हुए कहते हैं कि “दंगों के दौरान, मैं और मेरे पिता हमारे घर के सामने वाले घर में जाकर छिप गए थे, जो एक ब्राह्मण परिवार का था और कई साल से खाली पड़ा था. हमने सोचा कि हम वहां सुरक्षित रहेंगे. मेरे दादाजी ने पालतू जानवरों के कारण अपना घर छोड़ने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि इस घर में हमारे मवेशी हैं, हम उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते हैं?”

हसन ने कहा कि “जब वह और उनके पिता सामने वाले घर में छिपे हुए थे, उग्र भीड़ ने उनके घर में आग लगा दी.” उन्होंने आगे कहा कि मैंने देखा कि “हमारे घर से आग कि लपटें आने लगी. मैं बहुत घबरा गया. मैंने अपने दादाजी को चीखते-चिल्लाते सुना, भीड़ ने उन्हें मार दिया.”

मुजफ्फरनगर दंगों को हुए दस साल बीत चुका है. आज दस साल बाद भी लिसाढ़ गांव के कुल 11 लोग सरकारी कागजों में ‘लापता’ दर्ज हैं. इनमें हसन के परिवार के पांच सदस्य, अंसारी के बुजुर्ग माता-पिता, मुहम्मद के दादा और कई अन्य शामिल हैं. इनके परिवार के लोग पिछले दस सालों से इनके मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए संघर्ष कर रहे हैं और न जाने कब तक उन्हें इसके लिए और संघर्ष करना पड़ेगा.

पीढ़ियों बाद भी आज भी संघर्ष जारी 

मुहम्मद अब 24 साल के हो गए हैं. 2019 में अपने पिता की मौत के बाद दादा के मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने की जिम्मेदारी उनपर आ गई.

मुहम्मद कहते हैं, “मेरे पिता ही थे, जो मेरे दादाजी के मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने से संबधित लड़ाई लड़ रहे थे. उनके निधन के बाद मेरे लिए चीजों को संभालना बहुत मुश्किल हो गया. दस साल पहले जब दंगे हुए थे, तब मैं बच्चा था और मुझे तब इन चीजों की बिल्कुल भी समझ नहीं थी.”

मुहम्मद की तरह, रिजवान सैफी भी तब बच्चे थे, जब उनके दादा दंगे में मारे गए.

सैफी ने हमसे बात करते हुए कहा...

“हर कोई चाहता है कि जब वह मरे तो उसे दो गज कफन नसीब हो, उसे दो गज जमीन मिले और उसका परिवार उसे आखिरी बार देख सके. लेकिन मेरे दादाजी को इन सब चीजों में से कुछ भी नसीब नहीं हुआ. सरकार ने अब तक इस मामले में कुछ नहीं किया है. हम लगातार दर-दर भटक रहे हैं, आवेदन पर आवेदन दाखिल कर रहे हैं, अधिकारियों से मिल रहे हैं लेकिन कुछ हासिल नहीं हो रहा है."

सभी 11 परिवारों की तरह सैफी के परिवार को भी दंगों के बाद गांव छोड़कर दूसरे शहर में जाना पड़ा और नई शुरुआत करनी पड़ी. लेकिन उनके पिता, मुहम्मद के पिता की तरह, अब न्याय देखने के लिए दुनिया में नहीं हैं.

सैफी ने द क्विंट से बात करते हुए कहा कि “जिस उम्र में आराम की चाहत हर किसी को होती है... हर कोई सोचता है कि मैं 50-60 साल की उम्र तक कड़ी मेहनत करूंगा और फिर एक बार जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तो मैं एक आराम की जिंदगी बिताऊंगा. लेकिन जब तक मेरे पिता आराम की उस उम्र में पहुंचे, उन्हें नई जिंदगी शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा. कठिन मेहनत का चक्र फिर से शुरू हो गया. चौबीसों घंटे मेहनत करना, रात-दिन बच्चों का पेट भरने के लिए लगे रहना. एक बार फिर से वही संघर्ष और उस संघर्ष को करते और न्याय के लिए लड़ते हुए, उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

उन लोगों को मृत नहीं घोषित करने पर अधिकारी क्या कहते हैं?

यहां सवाल यह उठता है कि आखिरकार अधिकारी इन 11 लोगों को मृत घोषित क्यों नहीं कर रहे हैं?

द क्विंट को मिले बयान के अनुसार- अगस्त 2022 में इन 11 लोगों के परिजनों ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) से संपर्क कर अनुरोध किया था कि आयोग इस मामले में हस्तक्षेप करे और उन्हें मृत्यु प्रमाणपत्र दिलाने में मदद करें. इसके बाद एनसीएम ने मृत्यु प्रमाण जारी करने के जिम्मेदार अधिकारी- शामली जिला मजिस्ट्रेट को एक पत्र भेजा और मृत्यु प्रमाणपत्र जारी करने में देरी को लेकर स्पष्टीकरण मांगा.

जनवरी 2023 में एनसीएम के पत्र के जवाब में शामली डीएम ने लिखा कि जब जिले के अधिकारियों ने इन ग्यारह लोगों के गांव में जाकर इनके बारे में जांच की. "इस दौरान उन्होंने गांव के प्रधान से बात की, जिसने कहा कि ये पता नहीं है कि वे 11 लोग गांव से भाग गए या उनकी मौत हो गई, इसका भी कोई सबूत नहीं है."

डीएम ने आगे लिखा...

"गांव के प्रधान और ग्रामीणों ने बताया कि साल 2013 में दंगे की अफवाह गांव में फैली तो ये लोग गांव से भाग गए थे, भागने के बाद कहां गए कोई पता नहीं और ना ही इनकी मृत्यु के कोई साक्ष्य गांव में उपलब्ध मिला, ना ही इनके परिवार से वर्तमान में कोई गांव में निवास कर रहा है, ऐसी स्थिति में इनको मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी नहीं किया जा सकता.”

शामली डीएम का अल्पसंख्यक आयोग को जवाब में लिखा पत्र

दंगों के मामले में ग्राम प्रधान आरोपी

लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इन 11 मामलों में से कम से कम छह हत्याओं में ग्राम प्रधान अजीत सिंह खुद आरोपी हैं.

प्रधान अजीत सिंह को 11 में से छह मामलों में आरोपी बनाया गया.

द क्विंट अजीत सिंह से मिलने के लिए लिसाढ़ गांव पहुंची, जो वहां के अभी भी प्रधान हैं. जब हम उनके घर पर पहुंचे तो अजीत सिंह गांव के कुछ लोगों के साथ बैठकर हुक्का पी रहे थे और बातचीत कर रहे थे.

ग्रामीणों के साथ प्रधान अजीत सिंह

(रिभु चटर्जी/द क्विंट)

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

ग्रामीणों के साथ अपने पुराने रिश्तों के बारे में बात करते हुए अजीत सिंह द क्विंट को बताते हैं, मेरा परिवार चार दशकों से चुनाव लड़ रहा है. पहले मेरे पिता ग्राम प्रधान थे. मैं भी 2005 से चुनाव लड़ रहा हूं, अब तक चार बार चुनाव लड़ चुका हूं. मैं 2010 से 2015 तक ग्राम प्रधान रहा और ग्रामीणों ने इस बार फिर मुझे मौका दिया है. मैं वर्तमान में एक बार फिर से ग्राम प्रधान हूं”.

जब क्विंट ने प्रधान से 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में बात की, तो उन्होंने कहा कि हिंसा के लिए "दोनों पक्ष" दोषी थे.

उन्होंने आगे कहा, “गलतियां दोनों तरफ से हुई. उस पक्ष (मुसलमानों) ने झूठे आरोप लगाए. अपराध एक व्यक्ति करता है, लेकिन भुगतना किसी और को पड़ता है. झूठे मामलों में लोगों को जेल जाना पड़ा है.”

अजीत सिंह मानते हैं कि उनके खिलाफ भी कई मामले दर्ज हैं. वह कहते हैं “मेरे खिलाफ भी 45-50 मामले दर्ज किए गए लेकिन मुझे कभी किसी मामले में गिरफ्तार नहीं किया गया. बात बस इतनी है कि कुछ नाम... जैसे मलिक खाप प्रमुख और ग्राम प्रधान के नाम सभी एफआईआर में दर्ज थे.”

हालांकि पीड़ित परिवार के लोग प्रधान की इन बातों से सहमत नहीं हैं. सैफी की मां इस्लामन कहती हैं “जो भी कुछ हुआ वो प्रधान की गलतियों की वजह से हुआ.''

सैफी अपनी मां से सहमत नजर आते हैं और कहते हैं, ''अगर प्रधान चाहते तो कुछ नहीं होता. वो और उसका परिवार गांव में सबसे मजबूत और सम्मानित परिवार था. उनका रुतबा आज भी वैसा ही है.”

प्रधान अजीत सिंह का गांव में काफी प्रभाव है.

(रिभु चटर्जी/द क्विंट)

गांव के प्रधान अजीत सिंह इस बात को स्वीकार भी करते हैं कि उनका गांव में काफी बोलबाला है, साथ ही वह यह भी मानते हैं कि दंगे जैसी स्थितियों से निपटने में प्रधान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. “प्रधान बनने के लिए सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. हर कोई छोटे-बड़े मसले का हल हमें निकालना पड़ता है. हम 40 साल से गांव के हर छोटे-बड़े मसलों को सुलझाते आए हैं. गांव में हर कोई मुझे अच्छी तरह जानता है.”

सैफी की मां कहती हैं, “प्रधान का घर मेरे घर से कुछ ही दूरी पर था. वह अक्सर हमारे घर आते थे और अक्सर मेरे घर खाना भी खाया करते थे. वह मेरे साथ गांव के सभी लोगों के बहुत करीब थे.”

जब हमने अजित सिंह से पूछा कि क्या उनका किसी राजनीतिक दल या किसी विचारधारा से कोई संबंध है, तो जवाब में उन्होंने कहा वे “मंत्री वीरेंद्र सिंह के करीबी हैं.”

वीरेंद्र सिंह एक बीजेपी के नेता हैं. वह 7 बार विधायक और राज्य मंत्री रह चुके हैं और हालिया समय में एमएलसी हैं.

अजीत सिंह का कहना है कि बीजेपी सरकार पिछली एसपी सरकार से काफी बेहतर है. वे आगे कहते हैं “पहले, सड़कों पर कुछ भी हो जाता था. आज इस (बीजेपी) सरकार के अंदर चीजें काफी बेहतर हैं. आप कहीं भी यात्रा कर सकते हैं, कोई दिक्कत नहीं होगी. पिछली सरकार (SP) और इस सरकार (बीजेपी) में बहुत अंतर है.”

11 पीड़ितों के परिवार के सदस्यों का कहना है कि अजीत सिंह, जो कि छह मामलों में आरोपी हैं. उनको गवाह के रूप में रखना और उनके द्वारा इस बात को सत्यापित कर यह कहना कि ग्यारह लोग दंगों के समय गांव से भाग गए थे और इसलिए उन्हें मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता, सरासर गलत है. यह स्पष्ट रूप से हितों का टकराव है.

हसन सवाल उठाते हुए कहते हैं...

“यह बातें वह कह रहा है, जिसने खुद अपराध किया है. अगर वे खुद ही कह कह रहे हैं कि किसी की मौत नहीं हुई है तो जांच निष्पक्ष कैसे हो सकती है? क्यों वे कहेंगे, “हमने उन्हें मार डाला”?”

शवों को ढूंढने में प्रशासन ने बरती लापरवाही

हत्या की एफआईआर और चश्मदीदों के बयान के बावजूद, अधिकारियों द्वारा मृत्यु प्रमाण पत्र जारी नहीं करने का एक कारण यह है कि उन 11 लोगों के शव कभी मिले ही नहीं.

सैफी कहते हैं कि “शव पता नहीं कहां चला गया; हम सब उसकी तलाश में गए...हमने नहरों, गंदी नदियों में खोजबीन की, लेकिन शव कहीं नहीं मिला”

बता दें कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद कुल 13 लोगों के शव गायब हुए थे. बाद में दो शव नहर के पास से बरामद हुए. द क्विंट ने अपनी जांच में पाया कि पुलिस प्रशासन की गंभीर चूक के कारण शव मिलने के बाद भी गायब हो गए.

8 सितंबर 2013 की रात जो दंगों की पहली रात थी, उसी रात मुजफ्फरनगर से सटे शामली जिले के जंगल में तीन शव देखे गए. शामली एसपी कार्यालय से मिले एक आरटीआई के जवाब के अनुसार, चश्मदीदों ने एक महिला और दो पुरुषों के शवों को देखा और इसकी सूचना कांधला पुलिस स्टेशन को दी थी. मौके पर पहुंचे पुलिस अधिकारियों ने अंधेरा होने का बहाना बनाया और कहा कि वे सुबह आकर शव ले जाएंगे. हालांकि, शव उसी रात बाद में गायब हो गए. RTI के जवाब में कहा गया कि अधिकारियों ने ड्यूटी में घोर लापरवाही, उदासीनता और आलस्य दिखाया.

शवों के नहीं उठाने पर शामली एसपी का रिएक्शन

आरटीआई में मिली जानकारी के अनुसार “पुलिस अधिकारियों ने समय पर न कोई कार्यवाही की और न ही उन्होंने पुलिस या किसी ग्रामीण को डेड बॉडी की सुरक्षा के लिए छोड़ा. बल्कि उन्होंने अंधेरे का बहाना बनाकर सुबह आकर कार्यवाही की बात कही लेकिन रात में ही तीनों शव गायब हो गए. पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार, लापरवाही बरतने के कारण कम से कम चार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई.

शव बरामद करने में फेल रहने पर चार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई की रिपोर्ट की कॉपी

बरामद शवों की हैंडलिंग

मृतकों के परिजनों का कहना है कि जो दो शव (शुरुआत में लापता 13 लोगों में से) बरामद किए गए थे, उनका भी ठीक से हैंडल नहीं किया गया. जो दो शव नहर से मिले थे, उनमें से एक शव इनाम के पिता का शव था.

इनाम उस समय दंगा राहत शिविर में रह रहे थे. उन्होंने बताया, “हमें शव देखने तक को नहीं मिला. जब हम राहत शिविर में थे, तब एक दिन पुलिस वहां आई और हमें एक शव की फोटो दिखा कर उसकी पहचान करने को कहा. हमने शव को पहचान लिया कि वह शव हमारे पिता की थी.”

दंगों के बाद इनाम के पिता की लाश मिली थी.

(रिभु चटर्जी/द क्विंट)

इनाम ने हमें कहा कि पुलिस ने उन्हें बताया कि उनके पिता को दफना दिया गया है और मुझे कब्र के पास ले जाया गया.

इनाम आगे कहते हैं, “उन्होंने (पुलिस अधिकारियों) हमें केवल तस्वीरें और पोस्टमार्टम रिपोर्ट दी और कुछ भी नहीं. उन्होंने मुझे वो कपड़े भी नहीं दिए, जो मेरे पिता ने पहने थे... हम उन्हें अपने हाथों से दफनानाते, उन्हें कफन में ढंकते. ये हमारी इच्छाएं थीं, लेकिन हमें उन्हें आखिरी बार देखना तक नसीब नही हुआ, हम क्या कर सकते हैं”.

द क्विंट ने शामली पुलिस का इसपर राय जानने के लिए संपर्क किया लेकिन ये रिपोर्ट पब्लिश होने तक इसपर उनका कोई जवाब नहीं आया.

उन्हें मृत घोषित करने के पर्याप्त आधार: एक्सपर्ट

एक्सपर्ट का कहना है कि इन 11 लोगों को मृत घोषित करने के लिए पर्याप्त सबूत और कारण मौजूद हैं. वकील अकरम अख्तर चौधरी पिछले दस साल से मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित केस पर काम कर रहे हैं.

वकील अकरम अख्तर चौधरी पिछले दस साल से मुजफ्फरनगर दंगों के मामलों पर काम कर रहे हैं.

(रिभु चटर्जी/द क्विंट)

"चूंकि इस बात के सबूत हैं कि तीन शव पुलिस को मिले लेकिन फिर गायब हो गए, तो क्या यह संभव नहीं है कि गांव में हत्याएं हुई हों और शवों को गायब कर दिया गया हो? एक तरफ पुलिस की नजर पड़ने पर तीन शव गायब हो जाते हैं तो दूसरी तरफ नहर से दो शव मिलते हैं और मामले में एफआईआर भी दर्ज होती है. फिर आप यह नहीं कह सकते कि इस गांव में हत्याएं नहीं हुईं और जब ग्रामीणों के शव मिले हैं तो पंचायत भी यह नहीं कह सकती कि "यहां कोई नहीं मारा गया"
अकरम चौधरी, वकील

चौधरी बात करते हुए आगे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 का हवाला देते हैं. वह कहते हैं कि

“यदि किसी व्यक्ति को उसके करीबी लोगों ने नहीं देखा है या उसके बारे में सात साल तक कुछ नहीं सुना है तो उसे स्वतः ही मृत मान लिया जाता है. अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि वह जीवित है तो “यह साबित करने का भार” उस व्यक्ति के ऊपर आ जाता है जो इसका दावा करता है.”

डेथ सर्टिफिकेट का महत्व क्या है?

प्रशासन द्वारा 11 लोगों को मृत घोषित किए बिना, परिजनों को मृतकों की मौत की पुष्टि करने वाला मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा. पीड़ित परिवार के सदस्यों का कहना है कि मृत्यु प्रमाण पत्र कई कारणों से महत्वपूर्ण है.

“पहली बात हमारे परिवार के खेत मेरी मां और पिता के नाम पर हैं. यदि हम इसे अपने नाम पर रजिस्टर करा लें तो जरुरत पड़ने पर हम इसे बेच सकेंगे और पैसे कमा सकेंगे. दूसरी बात, मेरे पिता के बैंक खाते में जो भी पैसा जमा था, वह हमें मिल सकेगा. जो हमारे काम आएगा.”
हसन

वह आगे कहते हैं, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम न्याय चाहते हैं. अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए, जिससे किसी और के साथ इस तरह की घटना ना घट सके. सजा अवश्य होनी चाहिए.”

इन सबके अलावा, दंगों के बाद यूपी सरकार ने हर उस परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था, जिनके परिवार के किसी सदस्य की दंगों में मौत हुई हो. इन 11 मृतकों के किसी भी परिजन को सरकारी नौकरी नहीं दी गई है, क्योंकि इसका लाभ उठाने के मृत्यु प्रमाण पत्र का होना आवश्यक है.

सैफी कहते हैं कि "अगर हमें नौकरी मिल जाती तो हमारे लिए बहुत बेहतर होता. नौकरी हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. अगर हमारे पास आय का कोई निरंतर स्त्रोत होता तो घर का सारा बोझ खत्म हो जाता. इससे अभी हो रही कई सारी समस्याओं का समाधान हो जाता जिनका हम हालिया दिनों में सामना कर रहे हैं. हमारे गांव में हमारा घर बहुत अच्छे ढंग से चल रहा था, वहां तमाम संसाधन उपलब्ध थे. यहां, हमें सब कुछ नए सिरे से शुरू करना पड़ा है.”

पूर्व सीएम का मुआवजा और आश्वासन

मुजफ्फरनगर दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने मीडिया को बयान दिया था, जिसके अनुसार, SIT ने 2013 में ग्यारह 'लापता' लोगों के केस को हत्या के मामले के रूप में मान लिया था.

अखबारों के अनुसार SIT अपनी जांच में लापता 11 लोगों को मृत मान रही थी

इसके अलावा यूपी के तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव ने 2016 में 11 मृतकों के परिवारों से मुलाकात कर उन्हें 15-15 लाख रुपये के मुआवजे के चेक दिए थे. यह मुआवजा केवल उन्हीं परिवारों को दिया जा रहा था, जिनके परिजन दंगों में मारे गए थे. इस प्रकार इसे सरकार की सहमति के रूप में देखा गया कि इन 11 को भी मृत माना जा रहा है.

यूपी के तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव ने दंगा पीड़ित 11 परिवारों से मुलाकात की थी और उन्हें मुआवजा दिया था.

हसन कहते हैं कि “जब सीएम ने हमें मुआवजे के चेक दिए, तो मैंने उनसे कहा, कृपया मृत्यु प्रमाण पत्र दिलाने के अलावा दोषियों को सजा दिलाने में भी हमारी मदद करें. उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि सब कुछ समय पर होगा.”

हसन जैसे परिवारों के लिए, मुआवजे का चेक मिलना एक आश्वासन था कि अब मृत्यु प्रमाण पत्र भी मिलने वाला है. हसन कहते हैं “सीएम ने हम परिवारों को 15-15 लाख रुपये दिए. हमारे परिवार के सदस्य मारे गए थे, इसलिए उन्होंने हमें मुआवजे की यह राशि दी. अगर वे कहते कि हमारे माता-पिता जीवित हैं, तो मैं उन्हें ढूंढने के लिए कड़ी मेहनत करता और इसके बदले मैं उन्हें लाखों रुपये दे देता लेकिन कहता कि मेरे माता-पिता मुझे लौटा दो. इसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूंगा."

अल्पसंख्यक आयोग ने DM को रोजगार देने का निर्देश दिया

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने जून 2023 में शामली जिला अधिकारी को सभी 11 परिवारों को नौकरी देने का निर्देश दिया था. एनसीएम ने अपने आदेश में कहा कि “'एक तरफ सरकार मौत को स्वीकार करती है और दूसरी तरफ मौत के सबूत की मांग करती है.”

जून 2023 में शामली जिला अधिकारी को एनसीएम का आदेश

द क्विंट ने प्रतिक्रिया के लिए डीएम शामली, बागपत पुलिस, शामली पुलिस से संपर्क किया, लेकिन रिपोर्ट के पब्लिश होने तक हमें उनका कोई जवाब नहीं मिला है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT