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नेशनल मीडिया पर दिखाई जाने वाली बड़ी खबरों से तो आप रोज ही रूबरू होते हैं, जिन्हें शहरों में रहने वाले रिपोर्टर्स आप तक पहुंचाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी रिपोर्टर हैं, जो सीमांत और खतरनाक क्षेत्रों में लगातार अपना काम करते हैं और वहां की मुश्किलों को शहरों तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं. भले ही उनकी आवाज दिल्ली में बैठे नेताओं के कानों तक न पहुंचे, लेकिन वो लगातार शिद्दत से अपना काम करते रहते हैं. नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में काम कर रहे कुछ ऐसे ही पत्रकारों के साथ एडिटर्स गिल्ड ने वेबिनार किया. जिसमें पत्रकारों ने बताया कि उन्हें रिपोर्टिंग करते हुए किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और नॉर्थ-ईस्ट को नेशनल मीडिया किस तरह से देखता है.
असम और नॉर्थ ईस्ट में तमाम मुद्दों पर पत्रकारिता करने वाले संजॉय हजारिका ने इस वेबिनार में वहां की भौगोलिक परिस्थितियों और चुनौतियों का जिक्र किया. उन्होंने बताया कि 1990 से पहले नॉर्थ-ईस्ट को लेकर नेशनल मीडिया में काफी कम खबरें छपती थीं. कोई भी यहां की खबरों को तवज्जो नहीं देता था. लेकिन इसके बाद विज्ञापन का मौका नजर आने के बाद अखबारों ने इस तरफ थोड़ा ध्यान देना शुरू कर दिया.
हजारिका ने पत्रकारिता में नई चुनौतियों को लेकर कहा कि अब एक ही पत्रकार को कई चीजें एक साथ करनी होती हैं. अगर सुबह वो मुख्यमंत्री का इवेंट कवर करता है तो दोपहर में स्पोर्ट्स की खबर बनाता है. इसके बाद खुद अपनी ही स्टोरी को एडिट करता है. साथ ही अगर कोई कोर्ट का जजमेंट आता है तो वो भी उसी को देखना होता है. उन्होंने कहा कि जो पत्रकार ऐसे इलाकों में काम करते हैं उनके लिए इंश्योरेंस की बात होनी चाहिए, जिससे उनके परिवारों को मदद मिल सके.
मणिपुर के पत्रकार प्रदीप फंजोबम ने कहा कि आज भी नॉर्थ-ईस्ट को नोटिस नहीं किया जाता है. जब बड़ी हिंसा या फिर ऐसा कुछ भी होता है तो ही यहां देखा जाता है. उन्होंने नॉर्थ ईस्ट में कुछ कड़े कानूनों के दुरुपयोग की भी बात उठाई.
इस वेबिनार में शामिल हुईं पत्रकार टेरेसा रेहमान भी असम और नॉर्थ ईस्टी में पत्रकारिता कर चुकी हैं. उनका कहना है कि बतौर एक महिला पत्रकार आपके लिए काफी ज्यादा चुनौतियां होती हैं. महिला पत्रकारों की अनसुनी आवाजों को सुना नहीं जाता है. जब आप ऐसे क्षेत्र में रिपोर्टिंग कर रहे हों, जहां पिछले कई सालों से हिंसा और विद्रोह हो रहा हो तो मुश्किलें और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं.
टेरेसा ने कहा कि पत्रकारिता के सिलेबस में कॉन्फ्लिक्ट एरिया में रिपोर्टिंग को लेकर और पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर पढ़ाया जाना चाहिए. साथ ही ऐसे पत्रकारों की मेंटल हेल्थ काउंसलिंग पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. इसके अलावा पत्रकारों को लीगल और सोशल सपोर्ट मिलना भी जरूरी है. इसके लिए एक मैकेनिज्म बनाया जा सकता है.
अरुणाचल प्रदेश के पत्रकार रंजू दोदम ने कहा कि, नॉर्थ-ईस्ट की रिपोर्टिंग को हमेशा कॉन्फ्लिक्ट रिपोर्टिंग में ही क्यों गिना जाता है? हम इसे किसी और नजरिए से क्यों नहीं देखते हैं. पिछले कई सालों में हिंसा काफी कम हुई है. लेकिन यहां लोगों के बीच भी विवाद है, सरकार और लोगों के बीच एक अलग विवाद है. अपनी पहचान के लिए यहां लोग लगातार संघर्ष कर रहे हैं. लेकिन ऐसे मुद्दों को मीडिया में भी काफी कम जगह दी जाती है. सिर्फ स्थानीय पत्रकार समझते हैं कि वहां पर क्या चल रहा है. क्योंकि कहीं न कहीं वो भी इससे प्रभावित हो रहे होते हैं.
पत्रकार ने कहा कि एक नागरिक के तौर पर उनके लिए चीन क्या कर रहा है या उनकी आर्मी क्या कर रही है, उसकी जगह ये बात जरूरी है कि पीडीएस चावल की सप्लाई कैसी हो रही है. पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है कि नॉर्थ-ईस्ट के बाहर रहने वाले पत्रकार और उनके एडिटर्स अरुणाचल प्रदेश से सिर्फ चीन के एंगल वाली खबर चाहते हैं. इसके अलावा दूसरे मुद्दों को कवर नहीं किया जाता है.
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