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असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीजंस (एनआरसी) के 30 जुलाई को जारी हुए दूसरे ड्राफ्ट में राज्य के 40 लाख से अधिक लोगों को जगह नहीं मिली. एनआरसी का मकसद राज्य के असल नागरिकों और गैरकानूनी प्रवासियों की पहचान करना था. नीयत ठीक है, लेकिन इससे खतरे भी जुड़े हैं. राज्य में रहने वाले हर शख्स को इसके दस्तावेजी सबूत देने हैं कि वह गैरकानूनी प्रवासी नहीं है.
इसका मतलब यह है कि जो शख्स असम में पैदा हुआ और पला-बढ़ा और जिनके परिवार वाले नागरिक होने के कर्तव्य निभाते आए, उन्हें भी साबित करना था कि वे गैरकानूनी प्रवासी नहीं हैं. कई साल से विधायक रहा कोई शख्स या सांसद, कोई सामाजिक कार्यकर्ता जिसने पूरी जिंदगी किसी दूरदराज के इलाके में लोगों की सेवा में लगा दी और यहां तक कि असम का रहने वाले सियाचिन में तैनात जवान, उन सबको नागरिकता साबित करने के सबूत देने हैं. अगर एनआरसी की फाइनल लिस्ट में जगह नहीं मिलती तो उन पर निकाले जाने यानी डिपोर्ट किए जाने की तलवार लटक जाएगी.
यह तब भी हो सकता है, जब उस शख्स ने सही बर्थ सर्टिफिकेट, स्थायी पते का प्रमाण, वोटर आईडी कार्ड, यहां तक कि पासपोर्ट जमा किया हो. दरअसल, एनआरसी लिस्ट में जगह पाने के लिए उसे यह भी साबित करना होगा कि 1951 से उसके परिवार के लोग राज्य के असल बाशिंदे रहे हैं.
असम से बाहर के कितने लोग नागरिक होने के दस्तावेजी सबूत दे सकते हैं? अगर मान लेते हैं कि आप दस्तावेज दे भी देते हैं तो वह कितना सही होगा? हममें से कइयों के डॉक्युमेंटेशन में आज भी गड़बड़ियां मिलती हैं. ऐसे में पहले जारी हुए दस्तावेजों की तो बात ही रहने दीजिए, जब ऐसी गलतियां आम होती थीं.
अब आप समझ गए होंगे कि एनआरसी में कितना बड़ा झोल है. अफसोस की बात यह है कि इसका कानूनी आधार है. असम की नागरिकता के नियम दूसरी जगहों से अलग हैं. यहां हम बता रहे हैं कि यह कैसे काम करता है.
क्या भारत में जन्मे सभी लोग देश के नागरिक नहीं हैं?
देश में जन्मा हर कोई नागरिक नहीं हो सकता. जैसे- विदेशी राजनयिकों के बच्चे देश के नागरिक नहीं हो सकते. ऐसी और पाबंदियां भी हैं. वहीं, दूसरे लोगों की नागरिकता उनकी जन्मतिथि पर निर्भर करती है. सिटीजनशिप एक्ट 1955 के सेक्शन 3 के मुताबिक यह इस तरह से काम करता है.
1. अगर किसी का जन्म 26 जनवरी 1950 से 30 जून 1987 के बीच हुआ है, तो उसे नागरिक माना जाएगा.
2. 1 जुलाई 1987 से दिसंबर 2004 के बीच किसी भी भारतीय नागरिक के बच्चों को नागरिक माना जाएगा. अगर बच्चे के जन्म के वक्त माता या पिता में से कोई एक नागरिक हो तो वह भी देश का निवासी माना जाएगा.
3. 3 दिसंबर 2004 के बाद जन्म होने पर अगर कोई भारतीय नागरिक की संतान है और या तो माता-पिता दोनों का जन्म भारत में हुआ हो या दोनों में से एक नागरिक हो और दूसरा बच्चे के जन्म के वक्त गैरकानूनी प्रवासी ना हो तो उसे भी यहां का बाशिंदा माना जाएगा.
असम में स्थिति देश के दूसरे हिस्सों से अलग कैसे है?
कानूनी तौर पर इस मामले में स्थिति सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए अलग होनी चाहिए, जो असम समझौते के तहत आते हैं यानी वे विदेशी जो असम में आकर बसे हैं. हालांकि, जिस प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसमें तय किया जा रहा है कि कौन विदेशी है यानी नागरिकता पर असम में अलग प्रक्रिया अपनाई जा रही है. यहां के लोगों को यह साबित करना है कि वे या उनका परिवार 1951 के वास्तविक एनआरसी का हिस्सा थे या 1971 तक की वोटिंग लिस्ट में उनका नाम था. अगर वे वोटिंग लिस्ट में नाम के सबूत नहीं दे पाते तो टेनेंसी रिकॉर्ड्स, पासपोर्ट के जरिये उन्हें यह बात साबित करनी होगी.
असम की नागरिकता की प्रक्रिया देश से अलग कैसे हो सकती है?
सिटीजनशिप एक्ट इसकी इजाजत देता है. 1985 में असम समझौते की खातिर इस कानून में सेक्शन 6ए जोड़ा गया. इससे अवैध प्रवासियों और मूल व वैध निवासियों के लिए सिस्टम बनाया गया.
1. 1 जनवरी 1966 तक असम में रहने वाले सभी लोगों को नागरिकता दी जाएगी.
2. जो लोग 1966 और 25 जनवरी 1971 के बीच राज्य में आए, वे 10 साल तक मताधिकार से वंचित रहने के बाद नागरिक माने जाएंगे.
3. 25 मार्च 1971 या उसके बाद के आए विदेशी नागरिकों की पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा.
1951 एनआरसी और 1971 से पहले की वोटिंग लिस्ट में नाम की शर्त सिटीजनशिप रूल्स के रूल 4ए के जरिये जोड़ी गई है. राज्य में असम समझौते को लागू करने का दबाव बढ़ने के बाद इस रूल को साल 2009 में इसमें जोड़ा गया था.
क्या देश के सभी नागरिकों को सिटीजनशिप साबित करनी पड़ेगी?
क्या हम सभी को एनआरसी के लिए अप्लाई करना होगा? नहीं, एक आम भारतीय नागरिक को सिटीजनशिप साबित करने की जरूरत नहीं है. उसे किसी रजिस्टर में अपना नाम दर्ज नहीं करवाना होगा. वैसे सिटीजनशिप रूल्स, 2003 में देश के सभी नागरिकों के रजिस्टर की कल्पना की गई है, लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ है.
तो इसका मतलब यह है कि असम के लोगों को वह करना पड़ रहा है, जिसकी देश में कहीं और जरूरत नहीं है. क्या यह असंवैधानिक नहीं है?
सुप्रीम कोर्ट में सिटीजनशिप एक्ट के सेक्शन 6ए को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर हुई हैं. इनमें कहा गया है कि यह सेक्शन देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले असम में गैरकानूनी प्रवासी को मान्यता देने के लिए अलग सिस्टम की वकालत करता है. साल 2014 में जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन और जस्टिस रंजन गोगोई इन मामलों की सुनवाई कर रहे थे, लेकिन जहां उन्होंने एनआरसी के लिए 31 जनवरी 2016 की डेडलाइन तय की थी (जो काफी पहले गुजर चुकी है), वहीं उन्होंने सेक्शन 6ए के सवाल को संवैधानिक बेंच के पास भेज दिया. उसके बाद से इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है.
फिर एनआरसी के दूसरे ड्राफ्ट से जो 40 लाख लोग बाहर हैं, उनके लिए क्या रास्ता बच जाता है?
अभी तो उनके लिए रास्ता यही है कि वे फाइनल एनआरसी में जगह पाने की कोशिश करें, जिसे 31 दिसंबर 2018 तक तैयार किया जाना है. 30 अगस्त से 28 सितंबर के बीच उन्हें साबित करना होगा कि उन्हें गलत ढंग से एनआरसी से बाहर किया गया है.
दिसंबर 2018 में फाइनल एनआरसी लिस्ट के आने के बाद क्या होगा?
जिन लोगों के नाम फाइनल लिस्ट में नहीं होंगे, उनका क्या होगा, इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लिस्ट के आने तक किसी भी शख्स पर कार्रवाई नहीं की जाएगी. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी वादा किया है कि तब तक किसी को विदेशी घोषित नहीं किया जाएगा. फाइनल लिस्ट के आने के बाद जिनके नाम इसमें नहीं होंगे, उनकी किस्मत फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल तय करेंगे. कौन विदेशी है और कौन नागरिक, यह वहीं तय करेंगे. उसके बाद केंद्र सरकार को विदेशियों को डिपोर्ट करने का आदेश देना होगा, लेकिन यह कैसे होगा? क्योंकि बांग्लादेश या कोई अन्य देश इन लोगों को अपने यहां आने की इजाजत नहीं देगा.
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