उबर और ओला : काम ज्यादा,पैसा कम और सुविधाएं नदारद 

ओला उबर जैसी कंपनियों से लोगों को रोजगार मिला है लेकिन यहां पर्याप्त वेतन, काम का अच्छा माहौल और सुविधाएं नहीं हैं

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भारत
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 गिग इकॉनोमी से जुड़ी ओला, उबर जैसी कंपनियों के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा है
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गिग इकॉनोमी से जुड़ी ओला, उबर जैसी कंपनियों के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा है
फोटो : रॉयटर्स

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देश की गिग इकोनॉमी से जुड़े लेबर मार्केट की हालत अच्छी नहीं है. गिग इकोनॉमी के तहत काम करने वालों को कम वक्त के लिए कांट्रेक्ट पर हायर किया जाता है. लेकिन भारत में गिग इकोनॉमी की कंपनियों में काम करने वाले पर्याप्त वेतन, काम के माहौल और सुविधाओं से महरूम हैं. इन कंपनियों से जुड़े ड्राइवर (ओला, उबर और दूसरे टैक्सी एग्रीगेटर से जुड़े वर्कर), डिलीवरी ब्वॉय और दूसरे वर्कर खराब हालात में काम कर रहे हैं.

बेहतर वर्किंग कंडीशन की कसौटी पर नाकाम हैं कंपनियां

देश में स्टार्ट-अप कंपनियों के साथ ही गिग कल्चर भी आया है. ऐप बेस्ड ओला, उबर, उबर इट्स और जोमाटो जैसी कंपनियों से बड़ी तादाद में शॉर्ट टर्म कांट्रेक्ट वर्कर जुड़े हैं. लेकिन वेतन, काम के हालात, कांट्रेक्ट मैनेजमेंट जैसे मानकों पर ये कंपनियां खरी नहीं उतर रही हैं.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चरों की अगुआई में फेयर प्रोजेक्ट की स्टडी में इन कंपनियों को पांच कसौटी पर कसा गया- ये हैं, वेतन, हालात, कांट्रेक्ट, मैनेजमेंट और रिप्रजेंटेशन. ओला और उबर इनमें से से सिर्फ वेतन की कसौटी पर खरी उतरीं.

मुंबई और बेंगलुरू में इंडिया स्पेंड की पड़ताल के मुताबिक गिग इकनॉमी से वर्करों को पैसा तो मिल रहा है लेकिन उन्हें स्थायी नौकरियों में मिलने वाली छुट्टी, काम के तय घंटे, ओवर टाइम और, जॉब सिक्योरिटी और हेल्थ बेनिफिट्स जैसी सुविधाओं से महरूम रहना पड़ता है.

इस पड़ताल से यह पता चला कि ओला, उबर, उबर इट्स और जोमाटो में काम करने वाले ज्यादातर वर्कर यहां बाहर से आए हैं. अमूमन ये देर तक काम कर करते हैं ताकि पैसे बचा कर घर भेज सकें और इस शहर में थोड़ी सुविधा वाली जिंदगी जी सकें.
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12 से 15 घंटे काम करके भी कमाई कम

इंडिया स्पेंड के मुताबिक कर्नाटक में हासन जिले के राजकुमार मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किए हुए हैं और डिलीवरी ब्वॉय काम करते हैं. वह महीने में ज्यादा से ज्यादा 25 हजार रुपये कमाते हैं लेकिन उन्हें कंपनी के ऐप पर सुबह आठ बजे से रात ग्यारह बजे तक लॉग किए रहने पड़ता है. यानी 15 घंटों के दौरान वह 40 प्वाइंट हासिल करने या 20 ट्रिप पूरी करने की कोशिश करते हैं. 28 ट्रिप पूरी होने पर 600 से 700 रुपये की कमाई होती है.

राजकुमार ऐसे परिवार से आते हैं जो आलू, टमाटर और नारियल की खेती करता है लेकिन पानी की कमी वजह से खेती से कुछ नहीं मिल रहा है. राजकुमार पर तीन लाख रुपये कर्ज और 25 हजार रुपये की उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा ईएमआई में चला जाता है.

मेडिकल सुविधाएं न होना बड़ी कमी

मुंबई में टैक्सी एग्रीगेटर सर्विस की कार चलने वाले आरिफ ने हाल में ही एपेंडिक्स की सर्जरी करवाई है. आरिफ ने बताया कि शुरुआत में वह ओला के लिए सुबह 7 बजे से रात 11 बजे तक टैक्सी चलाते थे. लंबे घंटों तक गाड़ी चलाने वाले की वजह से खाने-पीने का रूटीन बिगड़ गया. उन्हें एसिडिटी और बदन दर्द रहने लगा. यहां तक कि टॉयलेट ब्रेक के लिए भी वक्त नहीं मिलता था.

आरिफ को एपेंडिक्स के ऑपरेशन के लिए उन्हें 80 हजार रुपये का कर्ज लेना पड़ा, जिसे उन्होंने चार-चार हजार की 20 किस्तों में चुकाया. उन पर दो लाख रुपये का कार लोन है (एग्रीगेटर की टैक्सी चलाने के लिए अपनी गाड़ी की जरूरत पड़ती है). इलाज पर लंबे-चौड़े खर्च ने उनकी माली हालत और खराब कर दी . इलाज का सारा खर्चा उन्हें अपनी जेब से करना पड़ा लेकिन उनके पास न तो हेल्थ बेनिफिट था और न मेडिकल छुट्टी की सुविधा. इलाज के कुछ दिनों बाद तक वह गाड़ी नहीं चला पाए और इससे उनकी सारी बचत खत्म हो गई.

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन्स यानी ICRIER की सीनियर फेलो राधिका कपूर ने इंडिया स्पेंड से कहा कि टेक्नोलॉजी से ट्रांजेक्शन कॉस्ट कम हो जाता है. लेकिन गिग इकोनॉमी से जुड़ी कंपनियों में रोजगार के हालात ठीक नहीं हैं.

इंश्योरेंस और पेंशन सुविधा नहीं मिलने पर गिग इकनॉमी से जुड़ी कंपनियों में काम करने वाले काफी नुकसान में रहते हैं. इन नौकरियों की एक और बड़ी दिक्कत है. इनमें प्रोफेशनल ग्रोथ के मौके काफी कम होते हैं. इन जॉब्स में स्किल डेवलपमेंट के मौके भी मुहैया नहीं कराए जाते. कुछ कंपनियां सॉफ्ट स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग देती हैं लेकिन सिर्फ कस्टमर से बात करने और उनसे ऑर्डर वगैरह लेने के लिए.

इनपुट : इंडिया स्पेंड

(इंडियास्पेंड के लिए यह स्टोरी प्राची साल्वे और श्रीहरि पालियथ ने की है)

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