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भारतीय चाय नहीं, ‘भारतीय चाय मजदूरों’ को है असली खतरा

7 फरवरी को पीएम मोदी: विदेशी ताकतें भारतीय चाय की छवि बिगाड़ने की साजिश रच रही हैं

आदित्य मेनन
भारत
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असम के ढेकियाजुली में 7 फरवरी को पीएम मोदी ने दावा किया, "विदेशी ताकतें भारतीय चाय की छवि बिगाड़ने की साजिश रच रही हैं."

पीएम मोदी ने कहा, "मैं आपको देश को बदनाम करने वाली एक साजिश के बारे में बताना चाहता हूं. साजिशकर्ताओं ने भारतीय चाय को भी नहीं छोड़ा. वो कह रहे हैं कि भारतीय चाय की छवि दुनियाभर में बदनाम करनी है."

पीएम के बयान उस ‘टूलकिट’ के जवाब में लगते हैं, जिसे एक्टिविस्ट ग्रेटा थन्बर्ग ने शेयर किया था. इस टूलकिट में कथित तौर पर भारत की सॉफ्ट पावर में योगदान देने वाले पहलू जैसे योग और चाय के बारे में कहा गया था.  

हालांकि, पीएम का 'चाय के खिलाफ साजिश' वाला बयान उस असम में देना, जहां कुछ समय बाद चुनाव हैं ये दिखाता है कि वो राज्य के लोगों को मैसेज देना चाह रहे थे. असम देश में चाय का सबसे बड़ा उत्पादक है.

ऐसा लगता है कि पीएम खास तौर पर चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूरों तक अपना मैसेज भेजना चाह रहे थे. ये मजदूर असम में एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं.

लेकिन पीएम मोदी ने अपने भाषण में इन मजदूरों की व्यथा का जिक्र नहीं किया, खास तौर पर इनकी कम मजदूरी और काम करने के मुश्किल हालात का.  

दुर्भाग्यपूर्ण सच ये है कि यही हालात भारतीय चाय को 'बदनाम' करने की वजह हो सकते हैं.

इस स्टोरी में तीन सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे:

  • असम में चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूर कौन हैं?
  • उनकी समस्याएं क्या हैं?
  • क्या बीजेपी सरकार ने उनसे किए वादे पूरे किए हैं?

बागानों में काम करने वाले मजदूर कौन हैं?

  • चाय के बागानों में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर झारखंड, बिहार, ओडिशा और बंगाल के मूल आदिवासी हैं, जिन्हें 19वीं सदी में ब्रिटिश असम में चाय के बागानों में काम करने के लिए ले आए थे.
  • एक ऊपरी अनुमान के मुताबिक, ये मजदूर असम की जनसंख्या का करीब 15 फीसदी हिस्सा हैं. कुछ अनुमान ये आंकड़ा 20 फीसदी तक बताते हैं.
  • इन मजदूरों की संख्या तिनसुकिया, डिब्रुगढ़, गोलाघाट, शिवसागर और सोनितपुर जैसे असम के ऊपरी चाय उत्पादक जिलों में ज्यादा है. ये सभी राजनीतिक पार्टियों के मुख्य वोटर्स में आते हैं.
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उनकी समस्याएं क्या हैं?

मजदूरी:

  • इनकी मुख्य मांग मजदूरी में बढ़ोतरी की रही है. मौजूदा समय में इन मजदूरों को एक दिन के 167 रुपये मिलते हैं और इन्हें चाय एस्टेट की लेबर लाइन्स में रुकने की जगह दी जाती है.
  • हालांकि, ये मजदूर काफी लंबे समय से मजदूरी को 351.33 रुपये करने की मांग कर रहे हैं, जिस पर बीजेपी सरकार अभी तक राजी नहीं हुई है.
  • सिर्फ तुलना करने के लिए देखिए कि केरल में चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूरों की दिहाड़ी 380.38 रुपये है. कुछ और भुगतान मिलाकर ये और भी ज्यादा हो जाती है. तमिलनाडु में कथित तौर पर ये 333 रुपये प्रति दिन है.
  • पश्चिम बंगाल में ये अब 202 रुपये प्रति दिन है. बढ़ोतरी से पहले ये 176 रुपये थी.
  • असम में अस्थायी कर्मियों की हालत और खराब है. पत्तियां तोड़ने के पीक सीजन में कुल मजदूरों का 70 फीसदी हिस्सा अस्थायी कर्मियों का होता है. इन्हें सिर्फ 135 रुपये प्रति दिन मिलता है और हाउसिंग और हेल्थकेयर जैसी सुविधाएं भी नहीं मिलती.

आरक्षण और ऑटोनोमस काउंसिल:

  • आदिवासी समुदाय से आने वाले इन मजदूरों का अपने मूल राज्य में शेड्यूल्ड ट्राइब स्टेटस हो सकता है, लेकिन असम में ऐसा नहीं होता है. वहां इन्हें OBC का दर्जा दिया जाता है.
  • ये मजदूर सालों से ST स्टेटस या अलग कोटे की मांग टी ट्राइब्स आदिवासी ऑटोनोमस काउंसिल डिमांड कमेटी ने 30 फीसदी आरक्षण की मांग उठाई है.
  • काउंसिल की मुख्य मांग चाय उत्पादक इलाकों में एक अलग ऑटोनोमस काउंसिल की है. जैसे कि बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल और दीमा हसाओ ऑटोनोमस काउंसिल.

काम करने की स्थिति:

चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूर बहुत मुश्किल हालात में काम करते हैं.

  • इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, "भारत के असम में चाय बागानों में और केन्या के केरीचो में मजदूरों के अधिकार का साफ उल्लंघन हेल्थकेयर और सब्सिडाइज्ड खाने, रहने और पानी से वंचित रखना और यौन उत्पीड़न है. मजदूरी काफी कम है और काम करने की स्थिति खराब हैं."
  • 2017 में वीमेन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट मिनिस्ट्री को सौंपी गई एक रिपोर्ट का कहना था कि 89 फीसदी मजदूरों के पास सैनिटेशन फैसिलिटी नहीं है.
  • रिपोर्ट में कहा गया कि 84 फीसदी महिला मजदूरों ने कहा कि उन्हें माहवारी के समय भी काम करना पड़ता है और बच्चों के लिए क्रेच की सुविधा अपर्याप्त है.

बीजेपी सरकार ने क्या किया है?

  • असम और केंद्र की बीजेपी सरकारों की इन मजदूरों के लिए पर्याप्त काम न करने के लिए आलोचना होती रही है.
  • उदाहरण के लिए 2016 के चुनावी कैंपेन के समय बीजेपी ने दिहाड़ी 137 रुपये से बढ़ाकर 351.33 रुपये करने का वादा किया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद मजदूरों को सिर्फ 30 रुपये की बढ़ोतरी मिली.
  • अस्थायी कर्मियों की दिहाड़ी अभी भी कम है और उन्हें रेगुलर मजदूरों वाली सुविधाएं भी नहीं मिलती हैं.
  • आरक्षण की मांग भी नहीं लागू की गई.
  • हाल के बजट में मोदी सरकार ने असम और बंगाल में चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूरों के कल्याण के लिए 1000 करोड़ आवंटित करने का ऐलान किया.
  • राज्य सरकार ने 7 फरवरी को 7.46 लाख मजदूरों को 3000 रुपये की वित्तीय सहायता दी थी.
  • 2017-18 के पहले फेज में 6.33 लाख मजदूरों को 2500 रुपये दिए गए थे और दूसरे फेज में 2018-19 में 7.15 लाख मजदूरों के खातों में 2500 रुपये डाले गए थे.
  • हालांकि, मजदूर यूनियनों का कहना है कि ये सहायता मूल मुद्दों का समाधान नहीं करती है.
  • असम के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा ने कहा है कि मजदूरी में बढ़ोतरी का ऐलान अगले दस दिनों में हो जाएगा. ये चुनाव आयोग के आचार सहिंता के ऐलान से पहले हो सकता है.

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