advertisement
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 29 मार्च की ‘मन की बात’ में कोरोना वायरस के प्रकोप का असर साफ दिखा. उन्होंने कड़े कदम उठाने के लिए लोगों से माफी मांगते हुए ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की अहमियत पर जोर दिया. पीएम ने कोरोना के खौफ के बाद भी काम में जुटे डॉक्टर, नर्स, ड्राइवर और डिलिवरी बॉय वगैरह का शुक्रिया अदा किया. लेकिन उन हजारों मजबूर लोगों पर पीएम ने ज्यादा बात नहीं की जो लॉकडाउन की घोषणा के बाद से पैदल ही अपने गांव-देहात की तरफ निकल पड़े हैं.
पिछले तीन दिन से जो तस्वीरें पूरे देश को कचोट रही हैं वो हैं अपने परिवार के साथ घरों को लौटते प्रवासी कामगारों की. हजारों की संख्या में सड़कों पर निकले ये लोग आपनी जान को तो खतरे में डाल ही रहे हैं, कोरोना के खतरे को भी बढ़ा रहे हैं. तकरीबन तमाम लोगों की एक ही दलील है- यहां रहे तो बीमारी से भले ना मरें लेकिन भूख से जरूर मर जाएंगे.
‘मन की बात’ में पीएम ने कहा
यानी माफी तो मांगी लेकिन समस्या का कोई हल पेश नहीं किया. या यूं कहें कि हल निकालने की जिम्मेदारी खुद लोगों पर ही छोड़ दी.
प्रधानमंत्री अगर ‘मन की बात’ में कोई दिशा-निर्देश जारी करते, कोई अपील करते या कम से कम गृह मंत्रालय की अपील को दोहरा ही देते तो शायद उसका असर ज्यादा होता, लोगों पर भी और राज्य सरकारों पर भी. लेकिन शायद ये एक ऐसा विवादित मुद्दा था जिसे उन्होंने छूकर निकल जाना ही बेहतर समझा. लॉकडाउन की प्लेनिंग और लोगों को तैयारी के लिए वक्त ना दिए जाने को लेकर भी कुछ लोगों ने निशाना साधा.
अमेरिका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी से जुड़े अर्थशास्त्री स्टीव हंके ने ट्वीट किया कि ‘बिना योजना’ के किया गया ये लॉकडाउन देश भर में संक्रमण करेगा.’
हालांकि प्रवासी कामगारों के घर लौटने को लेकर केंद्र सरकार ही नहीं राज्य सरकारे में भी बुरी तरह फेल हुई हैं. दिल्ली से सबसे ज्यादा पलायन हो रहा है और यहां की सरकार लोगों को भरोसा दिलाने में नाकाम रही है. 600 बस चलाने की घोषणा कर यूपी की योदी आदित्यनाथ सरकार ने भी हालात को और बिगाड़ा ही है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)