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पिछले सप्ताह शुक्रवार रात जैसे ही लखनऊ में यूपी विधानसभा भवन और सीएम आदित्यनाथ के घर के सामने आलू फेंके गए, मीडिया ने यह खबर लपक ली. अखबारों, चैनलों और वेबसाइटों पर आलू किसानों का दर्द छलकने लगा. किसानों के गम और गुस्से की वजहें बताई जाने लगीं. लेकिन लखनऊ की सड़कों पर बिखरी किसानों की बेबसी की इस कहानी का असली सच क्या है, यह किसी ने नहीं बताया.
दरअसल आलू किसानों की बरबादी की यह कहानी शुरू हुई 2016 के नवंबर महीने में केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले के तुरंत बाद. जैसे ही नोटबंदी का ऐलान हुआ और कैश की किल्लत शुरू हो गई. 10 से 15 रुपये किलो बिकने वाला किसानों का आलू धड़ाम से 4 से 5 रुपये किलो पर आ गया. अक्टूबर, 2016 तक सामान्य किस्म का आलू भी 8 से 10 रुपये बिक रहा था. फरवरी 2017 में जब आलू की नई फसल आई तो इसकी कीमत 4 से 5 रुपये किलो रह गई.
2017 के नवंबर में मंडी में सबसे अच्छे किस्म के आलू का 50 किलो का कट्टा 100 रुपये में बिका. जबकि कोल्ड स्टोरेज में इस 50 किलो के कट्टे को रखने का किराया ही 120 रुपये है. मजबूरी में किसान अपनी फसल का 30 फीसदी कोल्ड स्टोरेज से उठाने ही नहीं आया. कोल्ड स्टोर के मालिकों को इसे फेंकना पड़ा क्योंकि फरवरी में नई फसल के लिए भी उसे जगह बनानी थी.
2016 में आलू के गिरने के बाद शोर मचा तो सत्ता में आते ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने 487 रुपये क्विंटल पर किसानों से आलू खरीदने का ऐलान कर दिया. लेकिन इसकी शर्तें इतनी कड़ी थीं कि किसानों का आलू इस पर खरा नहीं उतर सका. सरकार ने सिर्फ एक लाख टन आलू खरीदने का ऐलान किया.
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह ने बताया,
आलू की तीन ग्रेडिंग है. एक किर्री आलू जो 20 से 25 एमएम का होता है. दूसरा गुल्ला आलू जो 25 एमएम से 30 एमएम होता है और तीसरा बड़ा जो 35 से 50 एमएम का होता है. सरकारी एजेंसियों ने कहा कि वह सिर्फ बड़े आलू ही लेगी और उसकी कीमत देगी 487 रुपये क्विंटल. इस चक्कर में ज्यादातर किसान आलू बेचने ही नहीं गए. एक लाख टन आलू खरीदने का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो सका. सिर्फ 13000 टन आलू की सरकारी खरीद हो सकी.
इस इलाके में आलू की कीमत न मिलने किसान बेहद परेशान हैं और वे दिल्ली या लखनऊ या उससे भी आगे के शहरों में मजदूरी के लिए भाग रहे हैं. हालांकि हालात शहरों में भी ठीक नहीं हैं और रियल एस्टेट सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में उन्हें जो काम मिलता था वहां भी रोजगार नहीं मिल पा रहा है.
यूपी के इस आलू बेल्ट से उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बड़े शहरों तक आलू सप्लाई होता है. लेकिन जीएसटी और नोटबंदी के असर के बाद बिचौलियों ने सौदों से हाथ खींच लिया है. ब्लूमबर्ग क्विंट ने हाल में ही बताया था कि जीएसटी लागू होने के बाद पूरे देश के सिंगल मार्केट बन जाने की उम्मीद लगाए बैठी माल ढोने वाली ट्रक कंपनियों का धंधा किस तरह खराब हो रहा है.
जीएसटी के बाद ऑर्डर में कमी आई और किसानों का आलू कोल्ड स्टोरेज में ही रह गया. इससे भी आलू किसानों का संकट और गहरा गया है. वह कोल्ड स्टोर से अपना आलू लेने ही नहीं आया. मजबूरी में कोल्ड स्टोर मालिकों ने बड़े आलू रख कर किर्री और गुल्ला आलू को हटा दिया. आलू की नई फसल आ जाने से अब इस आलू की पूछ और घट गई. कोल्ड स्टोर मालिकों ने अब यही आलू सड़कों पर फेंकना शुरू किया है. मीडिया की तस्वीरों में आवारा पशु जो आलू खाते दिखाए जा रहे हैं वे कोल्ड स्टोर मालिकों और किसानों की ओर से फेंके गए आलू ही हैं.
चौधरी पुष्पेंद्र सिंह का मानना है कि यूपी के आलू किसानों का यह संकट देश में एग्रीकल्चर सेक्टर के सबसे अहम भागीदार किसानों के साथ सरकार और उसकी एजेंसियों के रवैये की ताजातरीन बानगी है. देश की जीडीपी में लगातार सिकुड़ते जा रहे इस सेक्टर का यह हश्र हमें एक बड़े आर्थिक हादसे से आगाह कर रहा है. अगर ऐसे हादसों से बचना है तो यूपी में सरकार को किसानों से किया गया वादा पूरा करना होगा. किसान चाहता है कि उसका पूरा कर्ज माफ हो. साथ ही आलू किसानों को कम से कम प्रति क्विंटल 1500 रुपये की कीमत मिले.
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