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द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) भारत की अगली राष्ट्रपति हैं. राष्ट्रपति चुनाव (Presidential Elections) में विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा (Yashnwant Sinha) को 34 फीसदी वोट ही मिले जबकि मुर्मू को 64 फीसदी और इसके साथ ही वो रायसीना हिल्स में जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं.
लोकसभा में बीजेपी (BJP) के बेहतर नंबरों को देखते हुए उप-राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम भी पूर्व निर्धारित ही लगता है. इसलिए, पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ का राजस्थान के पूर्व राज्यपाल और कांग्रेस नेता मार्गरेट अल्वा पर विजयी होने की पूरी संभावनाएं हैं.
इसलिए, यह चर्चा करने का एक अच्छा मौका हो सकता है कि 2024 के आम चुनाव के लिहाज से सरकार और विपक्ष दोनों के लिए ही राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के क्या मायने हो सकते हैं जो लगभग 20 महीने में होने वाले हैं.
इससे पहले साल 2017 में राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष को बीजेपी ने बड़ा झटका दिया. साल 2017 में इसका ग्राउंड तैयार किया गया. राष्ट्रपति चुनाव लगभग उसी वक्त हुए जब बीजेपी ने नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) को विपक्षी महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में शामिल होने के लिए कहा था.
उस समय बिहार में महागठबंधन सरकार शायद बीजेपी के लिए सबसे गंभीर राजनीतिक चुनौती थी क्योंकि इसने एक ऐसा मॉडल दिया जिसमें अगर विपक्ष एकजुट हो जाए तो मोदी-शाह की जोड़ी को हराया जा सकता था. जैसे ही ये टूटा, संदेश गया कि बीजेपी अब अजेय है.
इस बार ये झटका, और शायद कहीं उससे भी बड़ा झटका विपक्ष शासित राज्य महाराष्ट्र से आया. जून में, बीजेपी एक प्रमुख विपक्षी दल शिवसेना को तोड़ने और राज्य में एमवीए सरकार को गिराने में कामयाब रही. बिहार की तरह, इसने बीजेपी की अजेयता को स्थापित करने के लिए एक उदाहरण के रूप में और अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए केंद्र के खिलाफ न जाने की चेतावनी के रूप में कार्य किया.
हालांकि, इस मध्यावधि झटके के महत्व को बहुत बढ़ा चढ़ाकर नहीं देखा जाना चाहिए. क्योंकि 2017 के बिहार में जो कुछ हुआ, मतलब नीतीश का बीजेपी के साथ आने के बाद दूसरे राज्यों जैसे गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश,और राजस्थान चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन कमजोर रहा. लेकिन फिर, उसी तर्क से देखें तो इन राज्यों के चुनावों का 2019 के आम चुनाव परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ा.
भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू का निस्संदेह बहुत ज्यादा प्रतीकात्मक महत्व है. इससे बीजेपी को जो एकजुट हिंदू वोट बैंक बनाने की परियोजना चला रही है उसमें मदद मिलेगी.
NDA को आदिवासी सपोर्ट हालांकि OBC वोट (56%) और हिंदू अपर कास्ट वोट (59 %) की तुलना में कम था लेकिन जो हिंदू दलित वोट (41%) मिले उसकी तुलना में ज्यादा है. अब मुर्मू को राष्ट्रपति का टिकट देकर बीजेपी ने अपने सामाजिक समीकरण को और मजबूत कर लिया है. कुछ मायने में यही बात अब उपराष्ट्रपति चुनाव में धनखड़ की उम्मीदवारी से भी कही जा सकती है क्योंकि बीजेपी ने उन्हें किसान पुत्र कहकर प्रचारित किया है. हालांकि, उनकी जाट पहचान के अलावा दरअसल यह राज्यपाल के तौर पर गैर बीजेपीई सरकार में कामकाज के लिए इनाम जैसा भी है क्योंकि उन्होंने हमेशा उस गैर बीजेपीई सरकार से टकराव मोल लिया.
यह वो प्वाइंट है जिस पर अक्सर बहुत चर्चा नहीं होती. प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के दूसरे शासनकाल में उनका जोर RSS के वैचारिक प्रोजेक्ट चाहे वो CAA हो या फिर आर्टिकल 370 समाप्त करना इस पर बहुत ज्यादा रहा है.
ना तो द्रौपदी मुर्मू और ना ही धनखड़ विचारक हैं और ना ही कोई मजहबी नफरत फैलाने के लिए जाने जाते हैं. यहां तक कि जगदीप धनखड़ बीजेपी या आर एस एस बैंकग्राउंड से भी नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में किसी अल्पसंख्यक समुदाय से किसी को आगे कर सबका साथ वाली छवि को मजबूत कर सकते थे लेकिन ना तो मुख्तार अब्बास नकवी, ना ही कैप्टन अमरिंदर सिंह और ना ही आरिफ मोहम्मद खान उनके पैमाने के हिसाब से फिट बैठते थे.
शायद बीजेपी सोचती है कि मुसलमान और सिख बीजेपी के खिलाफ वोट करने में सबसे मजबूत अल्पसंख्यक समुदाय से हैं और उनको राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनाकर शायद ही वोट का कोई फायदा मिलता.
निर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और संभावित उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ दोनों ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उम्र में छोटे हैं और बीजेपी में भी उनका कद नहीं के बराबर है. वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति बनाकर कम से कम प्रधानमंत्री मोदी ने पुरानी पीढ़ी के नेताओं को सम्मान दिया. अब पुरानी पीढ़ी में से एक मात्र राजनाथ सिंह हैं जो मोदी सरकार में अहम पद पर बचे हुए हैं.
यह बहुत हैरानी की बात है कि लोकसभा में इतना जोरदार बहुमत होने के बाद भी मुर्मू का मार्जिन इसके पहले के चुनाव रामनाथ कोविंद , या फिर प्रणव मुखर्जी, प्रतिभा पाटिल, एपीजे अब्दुल कलाम से कम है जबकि तब UPA और NDA के पास ऐसा बहुमत भी नहीं था. इसका मुख्य कारण है कि राज्य स्तर पर अभी भी बीजेपी बहुत मजबूत नहीं है. कई राज्यों में तो यशवंत सिन्हा के पक्ष में जोरदार वोटिंग हुई- चाहे वो पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु , राजस्थान, केरल, तेलंगाना, पंजाब और छतीसगढ़ उनमें कुछ अहम राज्य के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. अगर पिछली बार से तुलना करें तो उत्तर प्रदेश में भी NDA ने जमीन गंवाई ही है.
वोट पर NDA की पकड़ 50 फीसदी ही थी लेकिन मुर्मू को 64 परसेंट समर्थन मिल गया. ना सिर्फ BJD, YSRCP, और शिरोमणि अकाली दल (बादल) जैसी पार्टियां बल्कि कांग्रेस के खेमे वाली उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी मुर्मू को समर्थन दिया. इसके अलावा बड़ी तादाद में क्रॉस वोटिंग भी हुई. अब उपराष्ट्रपति के चुनाव में TMC ने एलान कर दिया है कि वो वोटिंग से गैरहाजिर रहेगी..
जिस तरह से इस बार विपक्ष एकजुट होने में नाकाम रहा वो यह दिखाता है कि अभी भी बीजेपी विरोध इतना ज्यादा ताकतवर नहीं हो पाया है कि सब कोई एक छत के नीचे आ सके. बीजेपी का चालाकी भरा कदम –जैसे कि मुर्मू को उम्मीदवार बना देना विपक्ष में दरार बढ़ाने के लिए काफी था.
तथ्य यह है कि विपक्ष ने एक असंतुष्ट पूर्व बीजेपी नेता, यशवंत सिन्हा को अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुना. यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण था कि वर्तमान में बीजेपी का कितना ज्यादा राजनीतिक दबदबा है. फिर यशवंत सिन्हा ना तो जसवंत सिंह या फिर शांता कुमार की तरह एक निर्विवाद शख्सियत थे.
हालांकि, इसे देखने का एक और नजरिया हो सकता है. सिन्हा की उम्मीदवारी ने विपक्ष को एक व्यावहारिक हकीकत स्वीकार करना सिखाया- कि असंतुष्ट बीजेपी समर्थकों को अपने साथ जोड़ना बीजेपी को हराने की कुंजी हो सकती है. क्या यशवंत सिन्हा इसके लिए सही उम्मीदवार थे और इससे क्या मकसद पूरा हो सकता है उस पर आगे भी चर्चा हो सकती है लेकिन इस बात को मानना अपने आप में एक बड़ा कदम होगा.
जिस तरह से विपक्ष यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी पर एकजुट हुआ और जितनी जल्दी में ये सब हुआ वो कांग्रेस के सहयोग के बिना मुमकिन नहीं था. आशर्चयजनक तौर पर कांग्रेस ने भी यशवंत सिन्हा को सपोर्ट करने की इच्छा दिखाई.
हालांकि अब यह साथ खटाई में पड़ता दिख रहा है क्योंकि TMC ने ऐलान कर दिया है कि वो उपराष्ट्रपति के चुनाव में वोटिंग से गैरहाजिर रहेगी. लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस ने ये तो दिखा दिया कि अगर मौका पड़े और जरूरत हो तो वो दूसरे के लिए जगह खाली कर सकती है. कांग्रेस बड़ा भाई की भूमिका निभाने के लिए जिद पर नहीं अड़ी है.
टीएमसी पूरी प्रक्रिया के दौरान विपक्ष के भीतर एक अप्रत्याशित इकाई के रूप में सामने आई. टीएमसी सिन्हा की आखिरी पार्टी थी. उन्होंने विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में नामित होने से ठीक पहले इस्तीफा दे दिया. लेकिन पार्टी उनके प्रचार अभियान को उस हद तक आगे नहीं बढ़ा पाई, जो वह कर सकती थी.
बंगाल में एक बड़ी आदिवासी आबादी और टीएमसी की जीत में आदिवासी महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, टीएमसी भी अंत में एक मुश्किल दुविधा में फंस गई क्योंकि वह एक संथाल उम्मीदवार का विरोध कर रही थी. इस प्रकार, उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर टूट ने अन्य विपक्षी दलों के साथ समन्वय करने की टीएमसी की क्षमता पर भी सवाल उठाए. यह त्रिपुरा में उपचुनाव में टीएमसी के खराब प्रदर्शन और इससे पहले गोवा में हार के बाद आया है
दो पार्टी जो अन्यथा सियासी तौर पर अलग थलग रहती हैं AAP और TRS ने इस बार राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के खिलाफ सख्ती से खड़ी दिखी. TRS प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने हकीकत में राष्ट्रपति चुनाव का कैंपेन संभाला और केंद्र के खिलाफ खड़े रहे. ऐसा लगता है कि KCR और अरविंद केजरीवाल दोनों ही बीजेपी विरोधी जो देश में जगह बन रही है उसको कब्जाना चाहती हैं..इसके लिए पूरा दमखम लगाने को तैयार हैं.
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