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Droupadi Murmu बनीं मैडम प्रेसिडेंट: यशवंत सिन्हा और विपक्ष के हाथ क्या लगा?

Presidential Election 2022: द्रौपदी मुर्मू को 64% वोट मिले जबकि विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को केवल 36%

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द्रौपदी मुर्मू के रूप में भारत को आज अपना पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिल गया है. उनकी जीत की आधिकारिक घोषणा (Draupadi Murmu Won Presidential Election 2022) हो चुकी है. राष्ट्रपति चुनाव में सत्ताधारी द्रौपदी मुर्मू को 64 फीसदी वोट मिले जबकि विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को केवल 36 फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा है. यशवंत सिन्हा को तो आंध्र प्रदेश, नागालैंड और सिक्किम में एक वोट भी नहीं मिला है.

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विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की उम्मीदों को झटका दरअसल विपक्ष ने ही दिया है. झारखंड में सत्ताधारी पार्टी JMM ने 14 जुलाई को मुर्मू के समर्थन की घोषणा कर दी थी . इसके बावजूद कि यशवंत सिन्हा JMM के होम स्टेट झारखंड से ही सांसद रहे हैं, पार्टी ने आदिवासियों, विशेषकर संथालों के हितों को लगातार बढ़ावा देने का फैसला किया था. सोरेन और द्रौपदी मुर्मू दोनों संथाल हैं.

JMM के समर्थन ने राष्ट्रपति चुनाव में यशवंत सिन्हा के खिलाफ NDA की उम्मीदवार मुर्मू के लिए जीत के रास्ते को और आसान कर दिया.

ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में NDA की उम्मीदवार को विपक्षी पार्टियों में सिर्फ JMM से समर्थन मिला है- बीजू जनता दल (BJD), युवाजन श्रमिक रायथू कांग्रेस पार्टी (YSRCP), तेलुगु देशम पार्टी (TDP), जनता दल (सेक्युलर), बहुजन समाज पार्टी (BSP), और शिरोमणि अकाली दल (बादल). यहां तक ​​कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया.

विपक्ष कहां गलती कर बैठा?

विपक्ष ने NDA से पहले अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा करके सही काम किया, लेकिन सिर्फ इतना काफी नहीं था. जब NDA ने मुर्मू के नाम की घोषणा की थी उसके पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था. इसके बावजूद शुरुआत से ही संख्या उसके पक्ष में थी और उसे जीत की दहलीज पार करने के लिए BJD या YSRCP जैसी ऐसी मजबूत पार्टी के अतिरिक्त समर्थन की आवश्यकता थी, जो न विपक्ष में भी हो न NDA में ही.

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ऐसी स्थिति में विपक्ष के पास एक ही तरकीब हो सकती थी कि वह ऐसे उम्मीदवार को खड़ा करे जो इन दो में से एक काम कर सके:

  • विपक्ष का ऐसा उम्मीदवार होता जिसका विरोध करने की एक राजनीतिक कीमत होती, और बीजेपी बैकफुट पर आ जाती

  • ऐसा उम्मीदवार जो बीजेपी के प्रमुख सहयोगियों के साथ-साथ ‘तटस्थ’ रहने वाली पार्टियों का समर्थन भी सुनिश्चित करता

यह दोनों शर्त पूरी हो सकती थी यदि विपक्ष ने या तो राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किसी व्यक्ति को मैदान में उतारा होता या किसी ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया होता जिसकी सामाजिक या भौगोलिक पृष्ठभूमि ने बीजेपी या उसके किसी सहयोगी पार्टियों को मुश्किल स्थिति में डाल दिया होता.

उदाहरण के लिए जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब दरअसल समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सुझाया था.

एक न्यूक्लियर साइंटिस्ट के रूप में अब्दुल कलाम की ख्याति और बीजेपी के पास जरुरत से कब वोट की स्थिति का ही परिणाम था कि पार्टी उन्हें नॉमिनेट करने के लिए मजबूर हो गयी. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस को भी इन्हीं कारणों से कारण अब्दुल कलाम के साथ जाने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
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दुर्भाग्य से आज के विपक्ष को ऐसा उम्मीदवार नहीं मिला जो इनमें से किसी भी मानदंड को पूरा कर सके. ऐसे किसी भी उम्मीदवार की इच्छा भी एक समस्या हो सकती है.

दूसरी तरफ NDA ने द्रौपदी मुर्मू को नॉमिनेट किया, जो देश के इस सर्वोच्च पद पर काबिज होने वाली पहली आदिवासी और दूसरी महिला हो सकती हैं.

इसका परिणाम यह रहा कि उलटे विपक्षी खेमा बंट गया क्योंकि कई पार्टियां ऐसा नहीं चाहती थी कि वे आदिवासी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का विरोध करें.

विपक्ष के लिए क्या यशवंत सिन्हा गलत विकल्प थे?

यह सही है कि एक उम्मीदवार के रूप में यशवंत सिन्हा के पास कुछ एडवांटेज थे, लेकिन शायद वह एक आदर्श विकल्प नहीं थे. तथ्य यह है कि विपक्ष ने बीजेपी के एक पूर्व नेता को चुना था जो भारत की वर्तमान राजनीति में बीजेपी के आधिपत्य की एक मौन सहमति थी.

और बीजेपी के अंदर भी यशवंत सिन्हा ने कभी भी जसवंत सिंह या शांता कुमार की तरह स्पष्ट बगावती आवाज नहीं उठाई थी, जैसा कि अन्य दोनों ने 2002 के गुजरात दंगों के खिलाफ आवाज उठाई थी.

इसके विपरीत सिन्हा यशवंत 2014 तक मोदी समर्थक रहे. उसके बाद दरकिनार किए जाने और आर्थिक नीतियों पर कुछ असहमति ने उन्हें आलोचक बना दिया. वह बाद में सरकार की कश्मीर नीति के भी मुखर आलोचक बने.
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हालांकि 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त' का तर्क और बीजेपी के अंदर के असंतुष्ट नेताओं से कुछ समर्थन हासिल करने की इच्छा को छोड़कर यशवंत सिन्हा को नॉमिनेट करने का बहुत अधिक राजनीतिक औचित्य नहीं था.

और जब NDA ने द्रौपदी मुर्मू को नॉमिनेट किया, तो यह विपक्ष के लिए ‘बैड इमेज’ की समस्या बन गयी क्योंकि इसने संकेत दिया कि जब सरकार एक आदिवासी महिला को नॉमिनेट करके एक सकारात्मक एजेंडे पर जोर दे रही है, तो विपक्ष को सबसे अच्छा विकल्प लगा बीजेपी का ही एक असंतुष्ट पूर्व सदस्य? वह भी जो दिल्ली के सत्ताधारी अभिजात वर्ग से जुड़ा रहा है?

विपक्ष के लिए सकारात्मक बात क्या है?

इन सबके बीच कांग्रेस पार्टी का लचीलापन और दूसरी पार्टियों को जगह देने की उसकी इच्छा एक सकारात्मक बात है. शुरू में यशवंत सिन्हा को तृणमूल कांग्रेस (TMC) के उम्मीदवार के रूप में देखा गया और फिर एक ऐसे उम्मीदवार के रूप में जो अपने खुद के स्वतंत्र कद के आधार पर खड़ा था.

यशवंत सिन्हा को कभी भी कांग्रेस की पसंद के रूप में नहीं देखा गया. यह कांग्रेस की चतुर सोच थी. अब कांग्रेस इसे विपक्षी एकता की दिशा में अपने प्रयासों का उदाहरण बता सकती है और यशवंत सिन्हा के हारने पर सीधे उसे दोष नहीं दिया जाएगा.
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पूरी संभावना है कि उपराष्ट्रपति के चुनाव को लेकर भी कांग्रेस ऐसा ही रुख अपनाएगी. ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनावों की प्रतीकात्मक लड़ाई में अपनी ऊर्जा का निवेश करने के बजाय जमीन पर अपनी वापसी पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है.

इस पूरे एपिसोड में विपक्ष के लिए दूसरी सकारात्मक बात यह है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) अब स्पष्ट रूप से NDA विरोधी खेमे में आ गयी है. हालांकि यह बदलाव कुछ समय से हो रहा था, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव TRS प्रमुख के चंद्रशेखर राव के लिए एनडीए के खिलाफ खुलकर सामने आने का एक मंच बन गया.

यह स्पष्ट है कि 2023 के तेलंगाना चुनावों में, केसीआर खुद को NDA के खिलाफ एक प्रमुख राष्ट्रीय आवाज के रूप में पेश करना चाहते हैं.

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