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प्रिवेंटिव डिटेंशन पर दिल्ली में आ सकता है गुजरात जैसा कानून- क्या यह जरूरी है?

दिल्ली में नया Preventive Detention Law आने की संभावना है. लेकिन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इसका दुरुपयोग होगा.

रोहिणी रॉय
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>दिल्ली में गुजरात जैसा सख्त कानून- क्या हमें सचमुच इसकी जरूरत है?</p></div>
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दिल्ली में गुजरात जैसा सख्त कानून- क्या हमें सचमुच इसकी जरूरत है?

(फोटो- ट्विटर)

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2007 में विस्मानभाई ढोला ने गुजरात (Gujarat) की सरकार को यह समझाने की बहुत कोशिश की कि वह सिर्फ एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ. जिला मजिस्ट्रेट ने जोर देकर कहा कि वह एक "खतरनाक व्यक्ति" हैं और इसलिए, उन्हें गुजरात असामाजिक गतिविधि रोकथाम अधिनियम (PASA) के तहत हिरासत में लिया जाना चाहिए. यानी किसी व्यक्ति को इसलिए हिरासत में लेना क्योंकि उसके अपराध करने की आशंका है.

सब इंस्पेक्टर बीएम अहीर के बयान से यह साफ हो गया था कि ढोला के खिलाफ सभी आशंकाएं बेबुनियाद थीं, लेकिन इससे भी कोई मदद नहीं मिली और ढोला निवारक हिरासत, यानी प्रिवेंटिव डिटेंशन में रहे.

गुजरात हाई कोर्ट के आदेश में जो बातें कही गई थीं, उनके मुताबिक, जिला मजिस्ट्रेट को "चार गुप्त बयानों" के आधार पर इस बात का शक था.

इसके बाद गुजरात हाई कोर्ट को दखल देनी पड़ी. अदालत ने इस मामले में निवारक हिरासत के आदेश को "अवैध," "अनुचित" और "दुर्भावनापूर्ण" माना और अधिकारियों को निर्देश दिया कि ढोला को 1.5 लाख रुपए का हर्जाना दिया जाए.

अदालत ने 2007 के अपने आदेश में कहा

निश्चित रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि फैसला न सिर्फ कानून के स्थापित सिद्धांतों के खिलाफ है, बल्कि पक्की तौर पर कुछ दूसरी वजहों से भी है.

लेकिन, जब ढोला को रिहा किया गया, तब तक वह 45 दिनों की निवारक हिरासत में रह चुके थे.

उसी कानून के तहत हिरासत के एक अन्य मामले (2021 में) में हाई कोर्ट ने कहा था कि

इस अदालत ने बड़े पैमाने पर पीएएसए के दुरुपयोग की प्रवृत्ति देखी है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब पुलिस अधिकारी पीएएसए की मदद से/उसका डर दिखाकर पक्षों के बीच वित्तीय लेनदेन/विवादों को निपटाने की जिम्मेदारी लेते हैं.

दिलचस्प बात यह है कि कथित तौर पर पीएएसए जैसा एक कानून दिल्ली में लाने की तैयारी है.

दिल्ली का कानून- क्या स्थिति है?

पिछले हफ्ते 9 जुलाई को उपराज्यपाल कार्यालय ने एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया कि, एलजी वीके सक्सेना ने गुजरात असामाजिक गतिविधि रोकथाम अधिनियम का विस्तार दिल्ली में करने की सिफारिश की है.

Hindustan Times के मुताबिक प्रस्ताव गृह मंत्रालय (MHA) को भेज दिया गया है. मंत्रालय ही इसके कार्यान्वयन पर अंतिम निर्णय लेगा.

मीडिया रिपोर्ट्स का कहना है कि यह कदम दिल्ली पुलिस के एक प्रस्ताव के बाद उठाया गया है. अक्टूबर 2022 में दिल्ली पुलिस ने गृह विभाग को एक प्रस्ताव दिया था. इसमें दिल्ली में पीएएसए या तेलंगाना जैसे कानून को लागू करने का अनुरोध किया गया था.

प्रस्ताव को बाद में मूल्यांकन के लिए एलजी कार्यालय और फिर कानून विभाग को भेजा गया.

अधिकारियों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि दिल्ली पुलिस छपटमारों और ड्रग तस्करों से निपटने के लिए पीएएसए जैसा सख्त कानून चाहती है.

लेकिन द क्विंट ने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनका मानना है कि खास तौर से गुजरात का कानून और सामान्य तौर पर निवारक निरोध कानून कठोर होते हैं.

गुजरात के कानून और दिल्ली के प्रस्तावित कानून में क्या दिक्कतें हैं?

PASA गुजरात का खास निवारक निरोध कानून है, जिसका मकसद "किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले काम करने से रोकना है."

अवैध शराब बेचने वाले, खतरनाक व्यक्ति, नशीले पदार्थों से जुड़े अपराधी, अनैतिक काम करने वाले अपराधी, संपत्ति हड़पने वाले, यौन अपराधी वगैरह इस कानून के दायरे में आते हैं.

मानवाधिकारों की वकील श्रीमयी घोष ने द क्विंट को बताया कि

निवारक निरोध कानून के कठोर होने की वजह यह है कि लोगों को किसी खास या पुष्ट आरोपों के बिना ही, सिर्फ शक के आधार पर हिरासत में लिया जा सकता है.

आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत आरोपी को दिए गए नियमित सुरक्षा उपायों में से कोई भी निवारक निरोध कानूनों के तहत लागू नहीं होता है.

श्रीमयी कहती हैं कि हिसारत में लिए जाने वाले लोगों के लिए कोई जांच, सुनवाई, वकील उपलब्ध नहीं होता है. इस तरह यह पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली को उलटकर रख देता है, क्योंकि इसमें इन बुनियादी अधिकारों को ही छीन लिया जाता है.

निवारक निरोध में कोई जज या न्यायिक निरीक्षण शामिल नहीं होता- इसमें पुलिस या जिला मजिस्ट्रेट ही व्यक्ति को हिरासत में लेते हैं.

ऐसे मामले अदालतों में तो काफी बाद के चरण में पहुंचते हैं. जिन लोगों को हिरासत में लिया जाता है, उन्हें नियमित प्रक्रिया से गुजरना होता है. सबसे पहले उन्हें 'सलाहकार बोर्ड' के सामने ले जाया जाता है (जहां उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं होता). इस बोर्ड का गठन ऐसी हिरासतों की समीक्षा के लिए किया जाता है.

PASA के तहत, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को हिरासत की तारीख से तीन हफ्ते के भीतर एक सलाहकार बोर्ड के सामने पेश किया जाना चाहिए. फिर सलाहकार बोर्ड हिरासत के आदेश की समीक्षा करेगा. वह या तो आगे की हिरासत को मंजूरी देगा या इसे रद्द कर देगा. हालांकि हिरासत एक वर्ष से अधिक नहीं हो सकती.

इसके अलावा विशेषज्ञों ने बताया कि गुजरात के कानून और सामान्य रूप से दूसरे निवारक निरोध कानूनों में 'सार्वजनिक व्यवस्था' जैसे शब्दों को अस्पष्ट रखा गया है, जिससे अधिकारी जैसे चाहें, उसकी व्याख्या कर सकें.

रोहिन भट्ट सवाल उठाते हुए कहते हैं कि "इसकी क्या गारंटी है कि कानून की अस्पष्टता का इस्तेमाल धार्मिक, जातीय और लैंगिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं किया जाएगा?"

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'बड़े पैमाने पर दुरुपयोग': कुछ उदाहरण

इस आर्टिकल की शुरुआत में विस्मानभाई ढोला की जो आपबीती सुनाई गई थी, वैसे कई दूसरे मामले भी हैं.

ऐसे ही एक मामले में वडोदरा के एक डॉक्टर मितेश ठक्कर को 27 जुलाई 2021 को गुजरात हाई कोर्ट ने जेल से रिहा किया. मितेश ने कोविड महामारी के दौरान लगभग 3,000 कोविड मरीजों का इलाज किया था. लेकिन पुलिस ने उन्हें इस शक पर गिरफ्तार किया कि वह एक रेमडेसिविर इंजेक्शन बेच रहे थे.

वो 106 दिनों तक जेल में रहे. इसके बाद अदालत ने दखल दी और सरकार को 1985 के असामाजिक गतिविधि रोकथाम (PASA) अधिनियम के तहत उन्हें आगे हिरासत में रखने से रोका.

अदालत ने यह सवाल किया था कि "अगर आप एक या दो इंजेक्शन के मामले में ऐसा करते हैं तो मुझे 5,000 इंजेक्शन का सवाल पूछना होगा. अगर कोई राजनीतिक दल नेकनीयती से (जरूरतमंदों को इंजेक्शन बांटकर) दान करना चाहता है, तो क्या यह सब कुछ कानून के तहत है. और एक डॉक्टर के संबंध में दो रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए पीएएसए लगाया जाता है?"

इसी तरह, 2021 में पुलिस ने रोहितभाई लूनी को पीएएसए के तहत 'खतरनाक व्यक्ति' माना था और उन्हें हिरासत में लेना चाहती थी. हालांकि, लूनी के वकील ने अदालत को बताया कि जिस विवाद के आधार पर पुलिस लूनी को हिरासत में लेना चाहती थी, वह निजी मामला था और किसी भी परिस्थिति में इसे पीएएसए के तहत "खतरनाक व्यक्ति" की परिभाषा के तहत नहीं लाया जा सकता है.

लूनी के मामले में सुनवाई के बाद अदालत इस बात पर सहमत नजर आई और उसने कहा कि यह मामला, उन तमाम मामलों की तरह है जिनमें "पीएएसए का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग" साफ नजर आता था.

1989 के एक अन्य मामले में गुजरात पुलिस ने एक व्यक्ति को शराब की तस्करी के संदेह में ऐहतियातन हिरासत में लिया था.

हिरासत के आदेश में कहा गया कि ऐसा लगता है कि तुम अवैध शराब तस्कर हो, जो अंग्रेजी और देशी शराब बेचने की अवैध गतिविधि कर रहा है. तुम्हारे और तुम्हारे साथियों के पास रामपुरी चाकू जैसे घातक हथियार हैं, और उन्हें तुम लोग रास्ता चलते निर्दोष व्यक्तियों को दिखाते हो.

जब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो उसने फैसला दिया कि हिरासत का आदेश अवैध और बुरा था क्योंकि "बयान अस्पष्ट हैं, और इसमें ऐसा कोई विवरण नहीं है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति ने किस स्थान पर, और कब और किसे रामपुरी चाकू से धमकाया, और किसे कथित तौर पर पीटा".

असल में मुख्यमंत्री कार्यालय (CMO) के आंकड़ों के अनुसार, अकेले 2019 और 2020 में कानून के तहत 5,402 लोगों को हिरासत में लिया गया.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के हालिया आंकड़ों के अनुसार, 2021 में तमिलनाडु और तेलंगाना के बाद गुजरात में बंदियों की तीसरी सबसे अधिक संख्या थी.

तो ऐसे में क्या हमें सचमुच ऐसा कानून चाहिए?

हमारा संविधान दुनिया भर के उन चुनिंदा संविधानों में से एक है जहां पीएएसए जैसे निवारक निरोध कानूनों का प्रावधान (अनुच्छेद 22 के तहत) किया गया है.

एडवोकेट भारद्वाज के मुताबिक निवारक निरोध कानूनों को खत्म करके, ही हम आगे बढ़ सकते हैं. लेकिन इसके लिए हमारी विधायिका को संविधान में भी संशोधन करना होगा.

आखिरकार 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था (रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में):

"निवारक निरोध, स्वाभाविक रूप से, लोकतांत्रिक विचारों के प्रतिकूल और कानून के शासन के लिए अभिशाप है."

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