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रमजान (Ramadaan 2022) का महीना भारत में 3 अप्रैल से शुरू हो रहा है. 2 अप्रैल को चांद दिखने के बाद इसकी पुष्टि भी हो गई. इस्लामी कैलेंडर के हिसाब से ये 9वां महीना होता है और इसे रमजान का महीना कहते हैं. एक महीना रमजान (उपवास) रखने के बाद मुसलमान ईद-उल-फित्र मनाते हैं. ये वही ईद होती है जिस पर सिवईं बनती हैं.
इस्लाम में एक महीने के रमजान तमाम बालिग लोगों पर फर्ज होते हैं. रमजान की शुरुआत करीब 1400 साल पहले दूसरी हिजरी में हुई जब अल्लाह ने मोहम्मद साहब पर कुरान नाजिल फरमाया (जब कुरआन आया). मौलाना ताहिर हुसैन कादरी ने क्विंट हिंदी को बताया कि
ये वो वक्त था जब मोहम्मद साहब मक्का से हिजरत करके मदीना पहुंचे. उसके एक साल बाद मुसलमानों को रोजा रखने का हुक्म आया. और इस तरह इस्लाम में एक महीने का रोजा रखने की परंपरा शुरू हुई.
मोहम्मद साहब से पहले भी रोजे अलग-अलग तरीकों से इस्लाम में रखे जाते रहे हैं. इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार दुनिया में सबसे पहले आये हजरत आदम के जमाने से ही रोजे की शुरुआत हो गई थी. जब हम रिवायात देखते हैं तो पता चलता है कि उस वक्त ‘अयामे बीज’ यानी हर महीने की 13, 14 और 15 तारीख को रोजे फर्ज हुआ करते थे.
रिवायात में आता है कि, मोहम्मद साहब से पहली उम्मतों पर इफ्तारी से इफ्तारी तक रोजा फर्ज हुआ करता था. जो बहुत शदीद होता था. मतलब आपने इफ्तारी की और उसके बाद आप सो गए तो आपका रोजा शुरू हो गया तो वो एक तरीके से 24 घंटे का ही रोजा हो जाया करता था.
मौलाना अनीसुर्रहमान बताते हैं कि एक बार का वाक्या है. इब्ने सरेमा (रजि.) जो ऊंट चराते थे, शाम को जब वो ऊंट चराकर वापस लौटे तो बीवी से पूछा कि इफ्तारी का कुछ इंतजाम है. तब बीवी ने कहा कि है तो नहीं लेकिन मैं कहीं से ले आती हूं. लेकिन उनके आने में थोड़ी देर हो गई इतने में इब्ने सरेमा (रजि.) की आंख लग गई क्योंकि थके हुए थे. इतने में सूरज डूब गया, जब उनकी बीवी वापस आईं तो उन्होंने कहा कि अब तो अगला रोजा शुरू हो गया. क्योंकि आप सो गए थे.
तो इब्ने सरेमा (रजि.) ने कहा चलो कोई बात नहीं लेकिन वो जुहर के वक्त बेहोश हो गए. इसकी जानकारी मोहम्मद साहब को हुई तो वो बहुत दुखी हुए. इसके बाद अल्लाह ने कुरान उतार दिया और जो रमजान अभी रखे जा रहे हैं इसकी आज्ञा दी. कि जाओ मेरे महबूब सुबह सादिक तक खाओ.
वैसे रमजान के महीने का हर दिन अलग फजीलत रखता है लेकिन इस्लाम के अनुसार इस महीनों को 10-10 दिन के तीन अशरों (हिस्सों) में बांटा गया है. मोहम्मद साहब ने फरमाया है कि पहला अशरा अल्लाह की रहमत का, दूसरा अशरा मगफिरत (माफी) का और तीसरा अशरा दोजख(नर्क) से निजात का है.
रोजा रखना इस्लाम के पांच फर्ज में से एक है. जो सभी मुसलमानों पर फर्ज होत है. पहला फर्ज कलमा, दूसरा नमाज, तीसरा जकात, चौथा रोजा और पांचवा हज है.
इस्लाम का सबसे पवित्र ग्रंथ कुरान भी रमजान के महीने में ही नाजिल (दुनिया में आया) हुआ. जिस रात कुरआन की पहली आयत आई उसे ‘लयलतुल कद्र’ (द नाइट ऑफ पावर) कहा जाता है. हालांकि रमजान के महीने में ये रात कौन सीहै इसको लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों में मतभेद है.
सुबह सूरज निकलने से पहले यानि फज्र की अजान से पहले रोजेदार सहरी (खाना) करते हैं. इसके बाद रोजा रखने वाले पूरा दिन कुछ नहीं खाते हैं और ना ही कुछ पीते हैं. पीने से मतलब आप कुछ भी नहीं पी सकते हैं यहां तक कि बीड़ी-सिगरेट का दुआं भी नहीं. ना ही बीवी और शोहर सेक्स के बारे में सोच सकते हैं.
रोजा रखने वालों को किसी से जलने, चुगली करने और गुस्से से भी परहेज करना होता है. मतलब रोजे में पूरी तरह खुद पर संयम रखना होता है. हर तरह के बुरे काम से बचना होता है.
इसके बाद शाम को सूरज डूबते ही यानि मगरिब की अजान के वक्त रोजा खोला जाता है. मतलब फिर आप खाना खा सकते हैं.
किसी रोजेदार से ये सवाल पूछेंगे तो वो कहेगा, ना अल्लाह के लिए किया गया कोई काम मुश्किल नहीं है. लेकिन 15 से 17 घंटे तक इंसान को बिना खाना खाये और बिना पानी पिये रहना पड़ता है जो जून जैसे महीनों में आसान काम तो बिल्कुल भी नहीं है. गर्मी में जब गला सूख रहा होता है ऐसे में कुरान पढ़ना होता है और नमाज भी जबकि भूख और प्यास से जिस्म टूट रहा होता है.
दरअसल रमजान इस्लामिक महीने के हिसाब से रखे जाते हैं जो चांद की तारीख के हिसाब से चलता है और इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से साल में 354 दिन होते हैं जबकि अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक साल में 365 दिन होते हैं. इसीलिए हर मुस्लिम त्योहार 11 दिन पहले आ जाता है और हर साल 11-11 दिन कम होकर गोल-गोल घूमता रहता है. इसीलिए जो रोजे पहले सर्दियों में होते थे वो अब गर्मी में आ गये हैं और कुछ साल बाद फिर से सर्दियों में पहुंच जाएंगे.
कुरान और हदीस दोनों में इस बात का जिक्र है कि हर बालिग औरत और मर्द को रमजान के महीने में रोजे रखना फर्ज है. हालांकि इसमें उन लोगों को छूट है जो बीमार हो जाते हैं, बहुत बूढ़े हों, जिनके शरीर में रोजा रखने की ताकत ना हो और जो मानसिक रूप से बीमार हों.
लेकिन ऐसा नहीं है कि बीमार को पूरे तरीके से छूट दी गई है. इसमें मसला ये है कि जब बीमार ठीक हो जाये तो पहली फुर्सत में रोजा रखे औऱ अगर बीमारी लंबी चलती है तो 60 गरीबों को दोनों वक्त का खाना खिलाना होगा, या 60 गरीबों को पौने दो किलो गेहूं प्रति व्यक्ति देने होंगे. या फिर इसी के हिसाब से उन्हें पैसे अदा करने होंगे. अगर कोई सफर में है और रोजा नहीं रख पा रहा है तो सफर खत्म करते ही उसे रोजा रखने का हुक्म है.
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