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रमजान (Ramadan) का महीना इस्लाम (Islam) में सबसे अहम और फजीलत वाला माना जाता है. रमजान के महीने में ही मुसलमानों के लिए सबसे पाक किताब कुरान को अल्लाह ने उतारा. इस्लाम में मान्यता है कि इस महीने में जहन्नुम (नर्क) के दरवाजे बंद कर दिये जाते हैं और जन्नत (स्वर्ग) के दरवाजे खोल दिये जाते हैं.
रोजा क्या होता है और इसके रखने का तरीका क्या होता है. इसको लेकर कई बार सवाल लोगों के मन में उठता है. दरअसल रोजा उसी तरीके से रखा जाता है जैसे हिंदू धर्म में वृत और ईसाई धर्म में फास्ट किया जाता है. बस फर्क इतना है कि रोजे में कुछ भी खाने या पीने की इजाजत नहीं होती है. सूरज निकलने से लेकर सूरज ढलने तक रोजेदार ना पानी पीते हैं और ना ही कुछ खाते हैं.
रोजे की अहमियत क्या है इसका अंदाजा आप एक हदीस से लगा सकते हैं. हदीस है कि रमजान का हुक्म आने पहले मोहम्मद साहब रमजान के लिए अक्सर दुआ किया करते थे. एक दिन जब वो सहाबा इकराम (मोहम्मद साहब के साथ जो लोग रहे उन्हें सहाबा का रुतबा हासिल है) के साथ रमजान का इस्तकबाल (Welcome) कर रहे थे तब हुजूर (मोहम्मद साहब) ने सहाबा से पूछा कि आप किसका इस्तकबाल कर रहे हो. तब हजरत उमर ने कहा कि, या रसूलअल्लाह (मोहम्मद साहब) क्या कोई वही (अल्लाह का आदेश) उतरने वाली है या किसी दुश्मन से जंग होने वाली है.
तब मोहम्मद साहब ने कहा कि, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. तुम रमजान का इस्तकबाल कर रहे हो. जिसकी पहली रात में तमाम अहले क़िब्ला (ईमान वालों) को माफ कर दिया जाता है.
हदीस बुखारी शरीफ के मुताबिक, रोजे के दौरान खाने पीने की चीजों से दूरी रखने के साथ आंख, कान, नाक और मुंह सभी चीजों का रोजा होता है. इसका मतलब है कि आप बुरा मत कहो, किसी के बारे में बुरा मत सोचो और किसी का दिल ना दुखाओ.
कई बार लोग भूल से कुछ खा-पी लेते हैं और इस हालत में डरकर रोजा तोड़ देते हैं. लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए अगर रोजे के दौरान आपने भूल से कुछ खा या पी लिया है तो नियम कहते हैं कि आपका रोजा फिर भी हो जाएगा.
इस्लाम में जकात (दान) को बड़ी अहमियत दी गई है और रमजान के महीने में तो इसे और भी बेहतर माना गया है. रमजान के महीने में दान करने से ज्यादा सवाब (पुण्य) मिलता है. रिवायत में आया है कि मोहम्मद साहब ने फरमाया है कि रमजान के महीने में इफ्तार से पहले अपने पड़ोसियों का ख्याल करो कि उनके पास खाने के लिए कुछ है या नहीं. इसी तरह ईद से पहले अपने पड़ोसियों को देखें कि उनके पास नए कपड़े बनाने के लिए पैसे हैं या नहीं.
तरावीह भी रमजान की इबादत का एक हिस्सा है. ये नमाज सिर्फ रमजान में ही अदा की जाती है. तरावीह में 20 रकात नमाज पढ़ते हैं और हर 4 रकात के बाद थोड़ा आराम लेते हैं. तरावीह का मतलब होता है लंबी नमाज.
रोजा सहर के वक्त फज्र से शुरू होकर शाम को मगरिब की अजान तक चलता है. सहर का मतलब होता है सुबह. उस वक्त हम रोजे की नीयत कर मामूली रूप से रस्म अदायगी के तौर पर कुछ खाते हैं. सुबह के इसी खाने को सहरी कहा जाता है. फज्र की नमाज शुरू होने तक सहरी की जा सकती है.
इफ्तार का मतलब किसी बंदिश को खोलना होता है. रमजान के रोजों में दिन भर खाने-पीने की बंदिशें होती हैं. और शाम को मगरिब की अजान होते ही ये बंदिश खत्म हो जाती है. इसलिये इसे इफ्तारी कहा जाता है. खजूर से इफ्तार करने को इस्लाम में अफजल (प्राथमिकता) माना जाता है.
रमजान का महीना मुसलमानों के लिये सबसे ज्यादा सवाब (पुण्य) का महीना होता है. दूसरे दिनों में जो नेक अमल (अच्छे कर्म) किये जाते हैं, उसके मुकाबले में रमजान में नेकियों का सवाब 70 गुना ज्यादा दिया जाता है. फर्ज इबादतों (फर्ज नमाज) का सवाब 70 गुना बढ़ जाता है तो सुन्नत और नफ्ल इबादतों का सवाब फर्ज के बराबर कर दिया जाता है.
इस्लाम का सबसे पवित्र ग्रंथ कुरान भी रमजान के महीने में ही नाजिल (दुनिया में आया) हुआ. जिस रात कुरआन की पहली आयत आई उसे ‘लयलतुल कद्र’ (द नाइट ऑफ पावर) कहा जाता है. हालांकि रमजान के महीने में ये रात कौन सीहै इसको लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों में मतभेद है.
सुबह सूरज निकलने से पहले यानि फज्र की अजान से पहले रोजेदार सहरी (खाना) करते हैं. इसके बाद रोजा रखने वाले पूरा दिन कुछ नहीं खाते हैं और ना ही कुछ पीते हैं. पीने से मतलब आप कुछ भी नहीं पी सकते हैं यहां तक कि बीड़ी-सिगरेट का दुआं भी नहीं. ना ही बीवी और शोहर सेक्स के बारे में सोच सकते हैं.
रोजा रखने वालों को किसी से जलने, चुगली करने और गुस्से से भी परहेज करना होता है. मतलब रोजे में पूरी तरह खुद पर संयम रखना होता है. हर तरह के बुरे काम से बचना होता है.
किसी रोजेदार से ये सवाल पूछेंगे तो वो कहेगा, ना अल्लाह के लिए किया गया कोई काम मुश्किल नहीं है. लेकिन 15 से 17 घंटे तक इंसान को बिना खाना खाये और बिना पानी पिये रहना पड़ता है जो जून जैसे महीनों में आसान काम तो बिल्कुल भी नहीं है. गर्मी में जब गला सूख रहा होता है ऐसे में कुरान पढ़ना होता है और नमाज भी जबकि भूख और प्यास से जिस्म टूट रहा होता है.
कुरान और हदीस दोनों में इस बात का जिक्र है कि हर बालिग औरत और मर्द को रमजान के महीने में रोजे रखना फर्ज है. हालांकि इसमें उन लोगों को छूट है जो बीमार हो जाते हैं, बहुत बूढ़े हों, जिनके शरीर में रोजा रखने की ताकत ना हो और जो मानसिक रूप से बीमार हों.
इस्लाम में जुमे के दिन की अहमियत काफी ज्यादा है. 3 अप्रैल को पहला रोजा था और 2 मई को आखिरी रोजा होगा. इस बार रमजान के महीने में 4 जुमे होंगे. पहला जुमा 8 अप्रैल को, दूसरा 15 अप्रैल को, तीसरा 22 अप्रैल को और चौथा जुमा 29 अप्रैल को होगा. इसके अलावा ईद उल फित्र इस बार 3 मई को मनाई जाएगी.
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