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सोचिए अगर स्कॉटलैंड (Scotland) इस्लामोफोबिक देश होता तो व्हाट्सएप पर ये संभावित मैसेज कैसे शेयर किए गए होते...
"हमारे देश में मुसलमानों की संख्या पिछले 10 सालों में दोगुनी हो गई है"
"ग्लासगो की 5% आबादी अब मुस्लिम है"
"स्कॉटलैंड में रहने वाले मुसलमानों में से 58% पाकिस्तानी मूल के हैं"
स्कॉटलैंड एक ऐसा देश है जहां 95% से ज्यादा श्वेत लोग हैं, जहां मुसलमान 2001 के 0.9% से तेजी से बढ़ कर अब पूरी जनसंख्या का 2% हो गए हैं. अगर स्कॉटलैंड में इस्लाम के प्रति कट्टरपंथ जैसा कुछ होता तो वे इन आंकड़ों का इस्तेमाल 'जनसंख्या जिहाद' और 'संसद जिहाद' जैसे नैरेटिव को गढ़ने के लिए करते, जैसा कि भारत में किया जा रहा है.
इसके बाद इन्हें स्कॉटिश धर्म संसद और 'सकल स्कॉटिश समाज' की रैलियों में दोहराया जाता, जिन्हें कुछ राजनेता भी सपोर्ट करते. और यह सब सुरेश चव्हाणके जैसे मीडियापर्सन के स्कॉटिश वर्जनों में चलाया जाता.
इसके उलट, स्कॉटलैंड इस्लामोफोबिक नहीं है. इसके ठीक उलट अगर हम शब्द गढ़ें तो यह काफी ‘Islamo-Embracing’ है यानी इस्लाम धर्म के मानने वालों को खुले दिल से स्वीकार करने वाला देश है.
स्कॉटलैंड की सरकार के नए प्रमुख और स्कॉटलैंड की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, स्कॉटिश नेशनल पार्टी के नेता हमजा हारून यूसुफ हैं, जो सिर्फ 37 साल के मुस्लिम हैं और पाकिस्तानी प्रवासी के बेटे हैं. यदि आप उनका स्कॉटिश एसेंट सुनें, तो आप सोचेंगे कि स्कॉटिश एक्टर Sean Connery बोल रहे हैं.
और हम यूसुफ को वहां की राजनीतिक में एकलौते उदाहरण के रूप में खारिज नहीं कर सकते हैं. स्कॉटलैंड की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, स्कॉटिश लेबर पार्टी के लीडर अनस सरवर पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम हैं.
एक बार फिर, हमारे सुप्रीम कोर्ट ने सकल हिंदू समाज की रैलियों के दौरान कथित हेट स्पीच के खिलाफ कार्रवाई करने में फेल रहने के लिए महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ एक अवमानना याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि
राज्य नपुंसक और शक्तिहीन है, यह वक्त पर काम नहीं करता है. हमारे पास सरकार ही क्यों है, अगर वह चुप रहती है?”
जस्टिस केएम जोसेफ और बीवी नागरत्ना ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के आदेशों की अवमानना कर हेट स्पीच फल-फूल रही थी.
उन्होंने कट्टरपंथी हिंदुत्व नेता कालीचरण महाराज जैसे व्यक्तियों का जिक्र किया, जो 2022 में महात्मा गांधी के खिलाफ हेट स्पीच के आरोप में जमानत पर बाहर होने के बावजूद हालिया सकल हिंदू समाज की रैलियों में कई कथित नफरत भरे भाषण दिया.
उसके ऊपर पुलिस की तरफ से कोई नई कार्रवाई नहीं की गई. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा...
इस वक्त दुनिया समावेशिता (सबको साथ लेकर चलना) की ओर तेजी से आगे बढ़ रही है.
सादिक खान लंदन के मेयर हैं, ऋषि सुनक इंग्लैंड के पीएम हैं, लियो वराडकर (आधे-आयरिश, आधे महाराष्ट्रीयन) आयरलैंड के प्रीमियर हैं, कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति हैं और कनाडा की राजनीति में हर जगह सिख हैं.
इनमें से हर देश अपनी अप्रवासी आबादी में तेज बढ़ोतरी के आंकड़ों का फायदा उठा सकता था और अपनी राजनीति को डरावने, नकली नस्लवादी नैरेटिव के इर्द-गिर्द बना सकता था.
जैसा कि हम देख सकते हैं, बिल्कुल विपरीत स्थिति है और विडंबना यह है कि यह भारतीय अप्रवासी हैं, जिन्हें इन देशों के समावेशी आचरण से सबसे ज्यादा फायदा हुआ है, चाहे वह राजनीति हो, व्यवसाय हो, संस्कृति हो या खेल.
ये देश अपने नए और सांस्कृतिक रूप से अलग नागरिकों को अपने कानूनों और रायों में बदलाव करने की छूट भी देते हैं.
हम नजर डालें तो देखने को मिलेगा कि कैसे अमेरिका के सिएटल शहर ने हाल ही में जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया. सिएटल ने स्वीकार किया कि भारतीय मूल के कई और नागरिकों के वहां रहने की वजह से, उनके स्थानीय कानूनों को अपडेट करना जरूरी था. सक्रिय रूप से प्रगतिशील और समावेशी होने के रूप में इसकी सराहना की जा सकती है.
एक पल के लिए कोई नहीं कह रहा है कि ये देश दूध के घुले हैं. उनके पास नस्लवाद का अपना इतिहास भी है. उनके पास ऐसे राजनेता और राजनीतिक दल हैं, जिनके पास स्पष्ट रूप से नस्लवादी और फोबिक एजेंडा है.
इंग्लैंड की 'Stop The Boats' एंटी ब्लू-कॉलर अप्रवासी नीति, जिसे सुनक ने खुद बनाया है, एक ताजा उदाहरण है.
और फिर भी, फैक्ट यह है कि समावेशिता अब इन देशों में अपरिवर्तनीय है. सुनक को पीएम के रूप में चुनने के बाद, आप पीछे नहीं हट सकते. फ्रांस के फुटबॉल कप्तानों के रूप में जिडान और एमबाप्पे के बाद, पीछे नहीं हट सकते.
लेकिन भारत में...हम पीछे खिसक रहे हैं. अपनी मर्जी से. हेट स्पीच भी इसमें शामिल है.
और फिर से, जस्टिस जोसेफ और नागरत्ना ने अपनी हालिया टिप्पणियों में समस्या (ऐसा नहीं है कि यह रॉकेट साइंस है) को सामने लाते हुए कहा कि
जब हम आंकड़ों को पढ़ते हैं- लोकसभा और राज्यसभा में बीजेपी के 400 सांसदों में से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं, तो इसका क्या मतलब है? सत्ताधारी दल शायद समावेशिता के लिए बहुत उत्सुक नहीं है.
सच कहूं तो बीजेपी ने इस आरोप से पल्ला नहीं झाड़ा है. वे 'समावेशी' होने को 'अल्पसंख्यक तुष्टीकरण' के रूप में खारिज करते हैं.
आंशिक रूप से, बीजेपी भी गलत नहीं है. हमारे कई राजनीतिक दल संकीर्ण राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित हैं, जो एक निश्चित समुदाय, जाति या इलाके की सेवा करते हैं.
हम जिस शब्द की तलाश कर रहे हैं वह मेरिट है. अगर हम योग्यता की तलाश करते हैं, तो निश्चित रूप से समावेशिता की बात होगी, क्योंकि 'मेरिट/योग्यता' वास्तव में एक धर्मनिरपेक्ष मूल्य है.
किसी भी देश या समाज के लिए लंबे वक्त से चले आ रहे सामाजिक विभाजन को दूर करना या यहां तक कि कानून बनाना भी सही नहीं होगा. लेकिन क्या इस तथ्य को देश के लिए सबसे अच्छा क्या है, इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए? क्या इसे देश, बिजनेस को लीड करने या यहां तक कि राष्ट्रीय टीमों में खेलने के लिए बेस्ट प्रतिभाओं को चुनने में हस्तक्षेप करना चाहिए? स्कॉटलैंड से लेकर इंग्लैंड और अमेरिका तक, कई देशों ने सफलतापूर्वक दिखाया है कि ऐसा नहीं होना चाहिए और नहीं करना चाहिए.
भारत के लिए अच्छी बात है कि भले ही हम राजनीति के मोर्चे पर समावेशिता में पिछड़े हों, हम खेल और एंटरटेनमेंट में 'समावेशी' रहे हैं.
जब हम हर खेल में अपनी राष्ट्रीय टीमों का चयन करते हैं तो मेरिट सबसे ऊपर होती है.
हम हर जीते हुए मेडल के लिए खुशियां मनाते हैं, चाहे वह निकहत जरीन हों या मैरी कॉम. हम हर विकेट के लिए खुशियां मनाते हैं, चाहे वह मोहम्मद शमी लें या रविचंद्रन अश्विन. खेल दूसरे देशों के लिए एक बेहतरीन ग्लू और शुरुआती बिंदु रहा है. यह भारत के लिए भी हो सकता है.
लेकिन जहां सबसे बड़ा शून्य मौजूद है और जहां सबसे ज्यादा कोशिश करने की जरूरत है, वो भारतीय राजनीति है. मेरे आशावादी दिमाग के लिए, यहां बीजेपी वास्तव में नेतृत्व कर सकती है. अजेय प्रतीत होने वाली इस पार्टी के लिए भारत में राजनीति के तौर-तरीके को बदलना शायद अब पहले से कहीं ज्यादा मुमकिन है.
बीजेपी सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, वंशवाद, भाई-भतीजावाद, बुलडोजर राज, UAPA राज और कट्टरवाद को छोड़कर आगे बढ़ने का साहसिक आह्वान कर सकती है. और देश की राजनीतिक नैरेटिव का सिर्फ एक पैमाना 'मेरिट' को बना सकती है.
अगर यह कोई कर सकता है तो बीजेपी कर सकती है.
लेकिन, उसे पहले अपनी ही पार्टी के अंदर इस 'Merit Only' कल्चर को शुरू करना होगा.
अमेरिका में, जब डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन, दोनों राष्ट्रपति पद के लिए अधिकतम दो कार्यकाल के प्रैक्टिस को बरकरार रखते हैं, तो यह क्या संदेश है? यह सीधे तौर पर हर महत्वाकांक्षी राजनेता को बताता है कि आप भी पार्टी को लीड कर सकते हैं.
यदि बीजेपी अपने दल के ढांचे के हर स्तर पर इस नेतृत्व सिद्धांत को अपनाती है, तो वे बीजेपी का हिस्सा बनने की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति को बताएंगे कि वे भी इसका नेतृत्व करने का सपना देख सकते हैं.
लेकिन नरेंद्र मोदी के लीडरशिप में लगातार तीसरी बार सत्ता पाने की लालसा में बीजेपी ऐसा शायद ही करेगी. और इसलिए, वही पुराने लीक पर पार्टी बनी रहेगी और उसी बांटने वाली बयानबाजी का उपयोग करके चुनाव लड़ा जाता रहेगा.
और इसीलिए हम निकट भविष्य में स्कॉटलैंड की समावेशिता का अनुकरण नहीं कर सकते हैं.
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