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"कृपया यहां पांव न छुएं" - नई दिल्ली के तुगलक रोड पर शरद यादव (Sharad Yadav) के आधिकारिक आवास में प्रवेश करते ही यह बात सुनने को मिली. जिस राजनीतिक संस्कृति में राजनेताओं ने अंध-प्रशंसा को प्रोत्साहित किया, उसमें शरद यादव किसी भी प्रकार की व्यक्ति पूजा या चाटुकारिता के विरोध में अनोखे थे.
राजनीतिक भक्ति का यह विरोध आश्चर्यजनक था क्योंकि शरद यादव अलग-अलग समय में केंद्रीय मंत्री और तीन राजनीतिक दलों के अध्यक्ष रह चुके थे.
समाजवाद और सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रति प्रतिबद्धता उनकी राजनीतिक विचारधारा को परिभाषित करती है और शरद यादव की राजनीति को समझने की कुंजी है. लेकिन शरद यादव के राजनीतिक पथ को किसी और चीज ने आकार दिया था. ये चीज थी संसदीय राजनीति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता जमा होने का विरोध. 1970 के दशक के आपातकाल विरोधी प्रदर्शनों से लेकर आज तक, यही शरद यादव की राजनीतिक पसंद को परिभाषित करती है.
शरद यादव के साथ मेरी पहली बातचीत 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन के दौरान हुई थी, जिसका नेतृत्व अन्ना हजारे कर रहे थे. शरद यादव, उस समय बीजेपी के नेतृत्व वाले विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के संयोजक थे.
उन्होंने कहा था- ''संसद कानून बनाने का सही मंच है. कानून इस तरह से तय नहीं किए जा सकते.'' यादव का मानना था कि राजनेताओं और राजनीतिक प्रक्रिया का मजाक उड़ाने की अन्ना आंदोलन की प्रवृत्ति एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति थी और यह राजनीति के अधिक तानाशाही रूप का रास्ता बना सकती थी.
हमारी दूसरी लंबी बातचीत 2013 के आसपास हुई जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपनी कैंपेन समिति के प्रमुख के रूप में चुना. शरद यादव ने इसे बीजेपी का विशेषाधिकार बताते हुए कहा कि एनडीए का पीएम उम्मीदवार सर्वसम्मति से तय किया जाना चाहिए और ये बीजेपी द्वारा एकतरफा नहीं चुना जा सकता है. यह स्पष्ट था कि वे बीजेपी के भीतर मोदी के उत्थान से खुश नहीं थे और अगर मोदी वास्तव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनते हैं, तो वे एनडीए में बने रहने पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार थे.
नीतीश कुमार के विरोध से पहले ही शरद यादव ने पीएम उम्मीदवार के रूप में मोदी का विरोध करना शुरू कर दिया था. बाद में जब नीतीश कुमार ने भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ आवाज उठाई, तो गठबंधन टूट गया.
पार्टियों के अंदर रहते हुए भी शरद यादव ने उन पार्टियों में सत्ता के केंद्रीकरण का विरोध किाय और इसी वजह से लालू यादव और नीतीश कुमार से उनकी दूरियां बढ़ीं. 1990 के दशक के मध्य में जब शरद यादव जनता दल के अध्यक्ष थे, तब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पार्टी के अंदर एक प्रमुख शक्ति केंद्र बन गए थे और कुछ मायनों में खुद को जनता दल से बड़ा मानते थे.
शरद यादव हालांकि अपने खुद के राजनीतिक आधार के लिए लालू प्रसाद पर निर्भर थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अंततः जनता दल में विभाजन हो गया, लालू प्रसाद, रघुवंश प्रसाद सिंह, मोहम्मद तस्लीमुद्दीन और अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे नेताओं के साथ अलग हो गए.
शरद यादव 1998 में मधेपुरा लोकसभा सीट से लालू यादव से हार गए थे, लेकिन 1999 में उन्होंने लालू यादव को हरा दिया. लेकिन फिर 2004 में हार का सामना करना पड़ा.
दो दशक बाद नीतीश कुमार से अनबन भी कुछ ऐसी ही थी. शरद यादव महागठबंधन के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनावों के लिए बिहार में आरजेडी, जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस को एक साथ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
शरद यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार की तरह जननेता नहीं थे. वह बिहार से भी नहीं थे, जहां उन्होंने अपना अधिकांश चुनाव लड़ा था. हालांकि, शरद यादव ने पुशओवर या रबर स्टैंप बनने से इनकार कर दिया.
राष्ट्रीय राजनीति में उनकी स्थिति अलग थी. उन्होंने अलग-अलग समय पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ गठबंधन किया और उनका विरोध भी किया. सामान्य सूत्र यह था कि जो भी नेता बहुत अधिक शक्ति हासिल करने की कोशिश करता है - चाहे वह इंदिरा गांधी हों, राजीव गांधी हों या नरेंद्र मोदी हों - उन्हें शरद यादव में एक प्रतिद्वंद्वी मिल जाएगा. शरद यादव के निधन से भारत ने एक दिग्गज सांसद और लोकतंत्रिक नेता खो दिया है.
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