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संडे व्यू: राजपथ-जनपथ के संवाद अलग,बेयर ने कैसे समझी PM की हिंदी?

पढ़िए देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स

क्विंट हिंदी
भारत
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के आर्टिकल्स
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के आर्टिकल्स
(फोटो: iStock)

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टूटती कमर से सरकार बेखबर?

पी चिदम्बरम ने अमर उजाला में लिखा है कि राष्ट्रपति कार्यालय के एक किमी के दायरे में चल रही बातचीत और देश के शेष हिस्सों में चल रहे संवाद बिल्कुल अलग-अलग हैं. वास्तविक आय में गिरावट, स्थिरता, बर्खास्तगी और छंटनी, रोजगार तलाशने की निरर्थक कोशिश, बाढ़ या सूखे से हो रही मौत, बिजली-पानी की कमी जैसी बातों पर सत्ता के गलियारे में चर्चा नहीं हो रही है. वहीं राजधानी से 1150 किमी दूर मुम्बई में संवाद का सिर्फ एक मुद्दा है- धन, या उसकी कमी.

लेखक का मानना है कि जब अर्थव्यवस्था के मानदंडों पर पिछड़ते देश की चिन्ता होनी चाहिए थी तब सरकार ऑपरेशन जम्मू-कश्मीर के बाद विजयोल्लास को छिपा नहीं पा रही है.

जीडीपी की वृद्धि दर में लगातार गिरावट, कोर सेक्टर में 0.2 फीसदी विकास का स्तर, रुपये का डॉलर के 3.4 फीसदी गिर जाना, एशिया में रुपये का सबसे खराब प्रदर्शन की ओर सरकार का ध्यान नहीं है.

जून में खत्म हुई तिमाही में घोषित परियोजनाओं में निवेश 15 साल के निचले स्तर पर पहुंच चुका है, निर्यात और आयात दोनों में कमी आई है, खपत बुरे दौर में है, FMCG में भी खपत घटी है और पहली तिमाही में कर राजस्व में महज 1.4 फीसदी की बढ़ोतरी चिंता का सबब होना चाहिए. लेखक का मानना है कि सरकारी खर्च, निजी निवेश, निजी खपत और निर्यात में से कोई भी इंजन पटरी पर नहीं है फिर भी सरकार सुनने-समझने को तैयार नहीं है. लेखक मानते हैं कि अर्थव्यवस्था में बाहुबल दिखाने वाला राष्ट्रवाद काम नहीं करने वाला है.

डरा रहे हैं युद्ध और मंदी के बादल

तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि अगर कश्मीर का विवाद नहीं भी होता तब भी पाकिस्तान हमारा दुश्मन ही होता. इसकी वजह ये है कि पाकिस्तान को भारत के विकास से चिढ़ होती है. वह लिखती हैं कि एक समय था जब विकास में पाकिस्तान आगे था भारत से. 80 के दशक में लाहौर का रुतबा दिल्ली से बड़ा था. शानदार एयरपोर्ट, चमचमाती सड़क और महंगी कारें लाहौर में तो थीं, दिल्ली में नहीं थी. मगर, 21वीं सदी आते-आते जब क्रिकेट के बहाने भारतीय बड़ी संख्या में चार्टर प्लेन के साथ पाकिस्तान पहुंचे, तो उनकी आंखें खुली रह गयीं. अब यह फर्क बहुत बड़ा हो चुका है और भारत काफी आगे निकल चुका है.

(फोटो: फेसबुक/ट्विटर)

लेखिका का मानना है कि पाकिस्तान ने मुम्बई में जो हमला किया, उसका मकसद भारत की व्यावसायिक राजधानी को तबाह करना और भारतीय निवेशकों को डराना था. मगर, वह अपने मकसद में कामयाब नहीं रहा. लेखिका को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना बहुत पसंद आया कि उनका सम्मान होना चाहिए जो देश में धन पैदा करते हैं. लेखिका की चिन्ता है कि बड़े उद्योगपति दुखी हैं, निवेशक डरे हुए हैं और देश में इंस्पेक्टर राज चल रहा है. ऐसे में धन पैदा करने वालों के सम्मान की बात से एक उम्मीद जगती है. लेखक मानती हैं कि युद्ध के बादल और मंदी के बादल दोनों मंडरा रहे हैं और इन दोनों को हटाने का प्रयास प्रधानमंत्री को करना होगा.

अक्साई चिन पर शाह का दमदार रुख

राकेश सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में अक्साई चिन को लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर अमित शाह तक के रुख का जिक्र किया है. अक्साई चिन जहां घास तक नहीं उगती- ऐसा कहकर ही पंडित नेहरू ने इस पर चीन के कब्जे की अहमियत को कमतर बताने की कोशिश की थी. 37, 244 वर्ग किमी क्षेत्र तक फैला यह इलाका भूटान और केरल के बराबर है. इस पर चीन ने 1962 के युद्ध से पहले ही कब्जा कर लिया था. चीन ने यहां सड़क बना ली. इस पूरे इलाके को अपने कब्जे में ले लिया. 1963 में 5100 वर्ग किमी की ज़मीन पाक अधिकृत कश्मीर से चीन को दे दी गयी. इस तरह अक्साई चिन पूरी तरह से चीन के अधिकार में आ गया. वह लद्दाख को भी अक्साई चिन का हिस्सा बताता है.

(फोटो: PTI)
लेखक ने ध्यान दिलाया है कि गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहकर कि जब वे जम्मू-कश्मीर बोलते हैं तो उसमें पीओके भी होता है और अक्साई चिन भी, चीन की सरकार को हैरान कर दिया. जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटने का मकसद है कि लद्दाख के नक्शे में अक्साई चिन को शामिल करना.

यह चीन के लिए परेशान करने वाला है. भारत उस सीमा को मानता है जो 1865 में विलियम जॉन्सन ने तैयार की थी. इसके मुताबिक अक्साई चिन कश्मीर का हिस्सा है. चीन 1899 में मैक्डोनाल्ड लाइन को मानता है जिसमें अक्साई चिन की बाउन्ड्री अलग है.

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अनुच्छेद 370 ने बदल दी जिंदगी!

जी सम्पथ ने द हिन्दू में अनुच्छेद 370 से जुड़ी खुशी के रहस्य को उजागर किया है. उन्होंने कश्मीर की भावनाओं को ‘JK’ से बातचीत के आधार पर सामने रखा है. 15 साल बाद मुलाकात हुई है. ‘JK’ का वजन घट चुका है. वह कुपोषित लग रहा है. उसकी आंखों के चारों ओर काले रंग का घेरा है मानो कई दिनों से सोया न हो. उसके माथे पर प्लास्टर लगा है.

लेखक पूछते हैं कि जेके सब ठीक तो है? ‘JK’ का जवाब होता है कि जिंदगी प्लास्टर बन गयी है. यह ब्लास्टर हो गयी है. ‘JK’ बताता है कि थोड़ी गलतफहमी हो जाने की वजह से बॉस ने उसके सिर पर पेपर वेट दे मारा है.

मगर, ‘JK’ को कोई शिकायत नहीं है क्योंकि ऐसा उन्होंने उसे खुश रखने के लिए किया है.

(फोटो: क्विंट हिंदी)

लेखक उसकी नौकरी के बारे में पूछता है जो अब नहीं रही. पछतावा नहीं है क्योंकि अब लिखने-पढ़ने सब कामों के लिए समय है. वह बताता है कि ईएमआई, बच्ची की स्कूल फीस, बिजली बिल के लिए पैसे नहीं हैं. पिताजी की कार, मां की ज्वेलरी तक वह बेच चुका है. ‘JK’ खुशी-खुशी बताता है कि उसके पिता चल बसे हैं इसलिए आपत्ति करने वाला कोई नहीं. वह इलजान कराने की जिम्मेदारी और उनकी तीमारदारी से भी बच गया. लंग कैंसर समेत कई और बीमारियों ने ‘JK’ को घेर रखा है.

वह खुश है कि अब एलिवेटर में 10 के बजाए 4 लोग ही होते हैं. आखिर लेखक ‘JK’ को अद्भुत मानने को विवश हो जाता है. उस पर बर्बर आक्रमण हुए, वह बेरोजगार हुआ, पिता चल बसे, पैसा नहीं हैं, कई बीमारियों की पहचान हुई है. जिंदगी वास्तव में नर्क बन गयी है. फिर भी वह खुश है. क्या है इस खुशी का राज? वह बताता है अनुच्छेद 370 को निरस्त करना. इसने उसकी जिंदगी का मतलब बदल दिया है.

नहीं दबेगी घाटी की आवाज

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में लिखा है कि 1947 में आजादी से ठीक पहले अगस्त के पहले हफ्ते में महात्मा गांधी ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया था. महाराजा हरि सिंह और कर्ण सिंह से उनकी बात हुई और गांधीजी के ही मुताबिक भारतीय संघ से वे मिलना चाहते थे मगर जनता की इच्छा उनके लिए सर्वोपरि थी. गांधीजी ने उनसे शेख अब्दुल्ला को रिहा करने को कहा था. जनता ने महात्मा गांधी का जबरदस्त सत्कार किया था. गांधीजी ने आजादी का उत्सव नहीं मनाया था. वे दिल्ली के बजाए कोलकाता में थे.

लेखक बताते हैं कि शेख अब्दुल्ला तब रिहा हुए जब पाकिस्तान की ओर से कबायली हमले के तीन हफ्ते हो चुके थे. 29 अक्टूबर 1947 को गांधीजी ने दिल्ली की प्रार्थनासभा में साफ कहा कि कश्मीर को महाराजा नहीं बचा सकते. केवल मुसलमान, कश्मीरी पंडित, राजपूत और सिख ही इसे बचा सकते हैं.

उन्होंने यह भी कहा था कि शेख अब्दुल्ला का इन सभी समुदायों के साथ लगाव है. 28 नवंबर को शेख अब्दुल्ला की मौजूदगी में गांधीजी ने कहा था कि शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में सिख, हिन्दू और मुसलमानों को एकजुट रखकर बहुत बड़ा काम किया है और एक ऐसी परिस्थिति बनायी है कि सभी मिलजुलकर एक रह सकते हैं. दो महीने बाद उनकी हत्या हो गयी.

बाद की घटनाओं में 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी, 1989-90 में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार, अनुच्छेद 370 को एकतरफा हटाया जाना और मोदी सरकार का 2019 में बर्बर अभियान की घटनाएं निश्चित रूप से गांधीजी की सोच के खिलाफ रही है. घाटी विशाल खुले जेल में बदल चुकी है. लेखक गांधी पीस फाउन्डेशन को उद्धृत करते हैं कि कश्मीरियों को हम हमेशा के लिए बंद नहीं रख सकते. लोग सामने आएंगे और उनका गुस्सा भी फूटेगा. लेखक ने गांधीजी के आदर्शो को ज़िन्दा रखने की जरूरत बतायी है.

बौद्ध धर्म के बदले मिला वेज मंचूरियन

ट्विंकल खन्ना ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि राखी के दिन उनकी चीनी मित्र ने उन्हें चौंकाया जब ‘नी हाओ’ कहते हुए उन्हें फोन किया. यह मंदारिन भाषा में हैलो का संबोधन था. वह लिखती हैं कि जब दिल से दिल बातें करें तो भाषा माने नहीं रखतीं. उदाहरण के तौर पर मैन वर्सेज वाइल्ड का जिक्र करती हैं कि किस तरह से बेयर ग्रिल्स नरेंद्र मोदी की हिंदी समझ लेते हैं. ऐसा लगता है मानो उन्होंने चुपके से हिन्दी में पीएचडी कर ली हो. ट्विंकल लिखती हैं कि उनके ससुराल में राखी का बड़ा उत्सव होता है.

(फोटो: डिस्कवरी चैनल)

लेखिका ट्विंकल की सास का मायका जम्मू-कश्मीर रहा है. लिहाजा राखी के उत्सव पर इसका ज़िक्र भी आता है. सियासी बातें होती हैं. कब लौटेगी शांति? इस सवाल के बीच यह प्रश्न भी उठता है कि जिनके लिए सबकुछ किया गया बताया जा रहा है, उनसे ही उनकी राय नहीं ली गयी. बहरहाल, फोकस फिर राखी के बाद चायनीज पार्टी पर होती है.

नाम दिया जाता है चायनीज चौक टु चाइना पार्टी. ट्विंकल लिखती हैं कि भारत ने चीन को बौद्ध धर्म दिया, बदले में मिला वेज मंचूरियन. जम्मू-कश्मीर से जुड़े पुराने दिनों की याद ताजा की जाती है. ट्विंकल अपनी सास के साथ किचन पहुंचती हैं. अमेरिकन चॉपसी, चिल्ली पनीर, वेज मंचूरियन सरीखे व्यंजनों को देखकर उन्हें याद आते हैं चांदनी चौक वाले सगे संबंधी.

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